हरजिंदर
गलत दिशा में मुड़ गए कारवां कभी सही मंजिल पर नहीं पहंुचते. देश में इस समय यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर जो बहस चल रही है, उसकी हालत भी ऐसी ही है. शुरू से ही इसे जिस तरह से धार्मिक रंग दिया जाता रहा अब उससे इसे अलग करना मुश्किल हो गया है.
उत्तराखंड में और उसके बाद पूरे देश के स्तर पर जब यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात शुरू हुई तो यह तभी से कहा जाने लगा कि इसके पीछे की सोच सांप्रदायिक है. जल्द ही तरह-तरह के धार्मिक संगठन इसे सही साबित करने में जुट गए.
सबसे पहले आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जिस तरह से इसका विरोध किया उसने यही बताया कि पर्सनल लाॅ सिर्फ धार्मिक मसला ही है. अकाली दल और तमाम दूसरे सिख संगठनों ने भी यही बात अपने ढंग से कही है.
भारतीय जनता पार्टी के नेता भी पीछे नहीं. उनमें से कुछ अब कह रहे हैं कि आदिवासी समुदायों को यूनिफॉर्म सिविल कोड से अलग कर देना चाहिए.इन सारी बातों में एक चीज समान है कि सभी यह मानते हैं कि सिविल कोड अंत में सिर्फ धर्म, परंपरा और विश्वास का मामला है. दिक्कत यह है कि इसके विरोध और समर्थन के नए तर्क इनमें से किसी के पास नहीं हैं.
यह चर्चा इस समय कहीं नहीं हो रही है कि हम ऐसा कोड बनाए जिसमें औरतों के साथ न्याय हो. एक ऐसा कानून बने जो मर्द और औरत हर किसी को समान मानता हो. पूरी बहस में जेंडर जस्टिस के तर्क पूरी तरह गायब हैं.
इस पूरे विमर्श में काफी समय से गोवा का उदाहरण दिया जा रहा है. गोवा में न तो हिन्दू पर्सनल लॉ लागू है और न ही मुस्लिम पर्सनल लाॅ. कभी वहां शासन करने वाले पुर्तगालियों ने जो पर्सनल लाॅ बनाया था, वहां आज भी वही कानून थोड़े बहुत बदलावों के साथ चल रहा है. यूनिफॉर्म सिविल कोड के कुछ समर्थकों का कहना है कि जब गोवा में ऐसा कानून हो सकता है तो देश के बाकी राज्यों में क्यों नहीं हो सकता.
उत्तराखंड के जिस यूनिफॉर्म सिविल कोड की चर्चा है, उसका कोई ब्योरा अभी तक उपलब्ध नहीं है. एक तरह से उत्तराखंड गोवा की तरह अपना अलग सिविल कोड बनाने की तैयारी कर रहा है.लेकिन अगर हम गोवा के सिविल कोड को देखें तो जेंडर जस्टिस के हिसाब से शायद वह सबसे खराब कानून है.
पिछले कुछ दिनों में इस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है. बाकी भारत में जो भी कानून हैं वे कम से कम लड़की पैदा करने वाली और लड़का पैदा करने वाली औरतों में कोई भेदभाव नहीं करते. गोवा का कानून उनमें भी भेदभाव करता है.
अगर हम यूनिफॉर्म सिविल कोड पर चल रही बहस से पहले के भारत पर गौर करें तो वहां कईं अच्छी चीजें भी हुईं थीं. इसका एक उदाहरण है डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट. यह कानून कईं तरह से पीड़ित औरतों के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है.
बिना उनके धर्म या उनके सिविल कोड का ध्यान रखें. जब ऐसे कानून बनते हैं तो धार्मिक संगठनों के पास आपत्ति के बहाने भी नहीं रहते. अगर हम ऐसी कोशिशों को बढ़ाएं तो यूनीफार्म सिविल कोड का रास्ता भी शायद ज्यादा आसानी से तैयार हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )