डॉ शुजात अली कादरी
प्रसिद्ध फिल्म संवाद लेखक और प्रतिष्ठित टीवी धारावाहिक महाभारत के पटकथा लेखक डॉ राही मासूम रजा कहते थे कि पैगंबर मुहम्मद के पोते इमाम हुसैन इब्न अली मुहर्रम के महीने में भारतीय बन जाते हैं. रजा का यह ऐलान देश के लगभग हर कोने में भारतीयों द्वारा कर्बला की लड़ाई में हुसैन की शहादत को व्यापक रूप से याद करने से उत्पन्न हुई है.
हिजरी कैलेंडर का पहला महीना, मुहर्रम, हजरत हुसैन के शोक को समर्पित है, जिन्होंने दूसरे उमय्यद खलीफा यजीद प्रथम के अत्याचार को चुनौती दी थी. दुनिया भर के मुसलमान इस महीने को अत्यंत दुख और पीड़ा के साथ मनाते हैं और किसी भी उत्सव और उत्सव से परहेज करते हैं.
हुसैन मुहर्रम के 10वें दिन शहीद हुए थे और इसे आशूरा के नाम से जाना जाता है. आशूरा को पूरे दिन शोक के साथ मनाया जाता है, जिसे मातम कहा जाता है, जिसमें भक्तों द्वारा आत्म-ध्वजारोपण के भावुक कार्य किए जाते हैं. भक्त धारदार हथियारों और जंजीरों से खुद को घायल करते हैं. कर्बला की लड़ाई और हुसैन के बलिदान की याद में नोहे, भावुक कविताएं या शोकगीत पूरे महीने मजलिस (सभाओं) में पढ़े जाते हैं.
इमाम हुसैन का प्रतीक ताजिया मुहर्रम की 10 तारीख को निकाला जाता है. यह लकड़ी, अभ्रक और रंगीन कागज से बना होता है. यह किसी भी आकार का हो सकता है और कारीगर इसे अपनी कल्पना के अनुसार बनाते हैं. प्रत्येक ताजिया में एक गुंबद होता है.
भारत में प्राचीन काल से ही अपने पुरखों को याद करने की परंपरा है. भारत में मुहर्रम पर शोक मनाने की परंपरा शायद उतनी ही पुरानी है, जितनी भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम का आगमन. भारत में मुहर्रम को कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है. इसमें सभी धर्मों के लोग हिस्सा लेते हैं.
मुहर्रम हिंदू-मुस्लिम एकता का संगम रहा है. दुखों के जुड़ाव और उसे शब्दों में पिरोने के कारण हिंदू और मुस्लिम धार्मिक संवेदनाएं एक-दूसरे से सहज रूप से जुड़ी हुई हैं. नतीजतन, मर्सिया लिखने वालों में बड़ी संख्या में हिंदू कवि प्रमुख रूप से शामिल हैं.
हुसैन प्रेमी हिंदू और सिख
हिंदू मर्सिया लिखने वालों का पता लगाने का श्रेय कालीदास गुप्त रजा को जाता है. उन्हें गालिब का विशेषज्ञ माना जाता है, लेकिन वे मर्सिया भी लिखते थे. गुप्त रजा इमाम रजा के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उन्होंने इमाम के प्रति अपनी अनन्य भक्ति के कारण अपने ‘तखल्लुस’ में ‘रजा’ को शामिल किया था. बड़ी उम्र में, उन्होंने हिंदू मर्सिया लेखकों का ‘तजकिरा’ संकलित करने की योजना बनाई, लेकिन उनके निधन के कारण वे यह कार्य पूरा नहीं कर सके. हालांकि, उन्होंने कई हिंदू मर्सिया लेखकों का विवरण छोड़ दिया है. उनके विवरण से हिंदू मर्सिया लेखकों की आकाशगंगा के बारे में पता चलता है.
उनके अनुसार, पहले हिंदू मर्सिया लेखक राम राव थे. उनका उपनाम ‘सैवा’ था. वे गुलबर्गा के थे, लेकिन अली आदिल शाह के शासनकाल के दौरान बीजापुर चले गए. लगभग 1681 में, उन्होंने अपने द्वारा लिखे गए मूल मर्सिया के अलावा दक्कनी में रोजातुश शुहादा का अनुवाद किया. मक्खन दास और बालाजी तसंबक, जिनका उपनाम ‘तारा’ था, भी उल्लेखनीय हैं. वे राम राव के बाद दक्कन में खूब फले-फूले. एक अन्य हिंदू कवि स्वामी प्रसाद ने भी ‘असगर’ के उपनाम से उर्दू में मर्सिया लिखे.
जब उर्दू का केंद्र दक्षिण से उत्तर की ओर स्थानांतरित हुआ और लखनऊ में अवध राजवंश के संरक्षण में अजादारी फली-फूली, तो हिंदू कवि और लेखक मुहर्रम की रस्मों में भाग लेने में पीछे नहीं रहे. वे जोश से मर्सिया लिखने में लगे रहे. उनमें सबसे अच्छे और मशहूर मुंशी चन्नू लाल लखनवी थे. उन्होंने ‘तरब’ के उपनाम से ‘गजल’ और ‘दिलगीर’ के छद्म नाम से मर्सिया लिखे. अपने बाद के दौर में उन्होंने अकेले ही मरसिया लिखी और इस क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई.
हिंदू मरसियानिगारों में रूप कंवर कुमारी नाम की एक महिला भी शामिल थीं. वह आगरा में रहने वाले कश्मीरी पंडितों के परिवार से ताल्लुक रखती थीं. वह सार्वजनिक समारोहों में जाना पसंद नहीं करती थीं और केवल उन्हीं मरसिया लेखकों से संपर्क रखती थीं, जिन्हें वह अपने लेखन में मार्गदर्शन के लिए पर्याप्त सक्षम समझती थी.
उन्होंने 1920 और 30 के दशक में लिखा. उनके मरसिया में दो सांस्कृतिक संवेदनाओं का मिश्रण पाया जाता है. उन्होंने अपने लिए अभिव्यक्ति का एक ऐसा तरीका ईजाद किया था, जिसमें ‘हिंदीकृत भक्ति’ शब्दावली और मरसिया के फारसीकृत भाव एक साथ मिलकर एक ध्वनिपूर्ण तरीके से दिखाई देते हैं.
अभिव्यक्ति के दो तरीकों के इस मिश्रण ने मरसिया को एक नया स्वाद दिया और इस कारण से वह अपने समकालीन लेखकों के बीच अलग पहचान रखती हैं. वह हजरत अली को ऋषि, भक्त या सिर्फ महाराज कहकर पुकारती हैं और कहती हैं ‘नजफ हमारे लिए हरिद्वार-ओ-काशी जैसा है’.
बनारस के महाराजा चैत सिंह के पुत्र राजा बलवान सिंह भी मरसिया लिखने में माहिर थे. उन्हें अंग्रेजों ने बनारस से निकाल दिया था. वे ग्वालियर के महाराजा से जागीर जीतने में सफल रहे. उनके बेटे ज्यादातर आगरा में रहे और नजीर अकबराबादी के शिष्य बन गए. उन्होंने खुद को मरसिया लेखक के रूप में प्रतिष्ठित किया, हालांकि उन्होंने अन्य काव्य रूपों में भी लिखा.
इसी तरह, लखनऊ के एक रईस लाला राम प्रसाद भी ‘बशर’ नाम से मरसिया लिखते थे. वे अहले-ए-बैत के भक्त थे. अपने अंतिम दिनों में वे कर्बला चले गए, जहाँ उन्होंने अंतिम सांस ली.
अन्य उल्लेखनीय हिंदू और सिख कवि, जिन्होंने कर्बला और शहादत को अपनी मार्मिक कविता का विषय बनाया, वे थे राजेंद्र कुमार, राम बिहारी लाल ‘सबा’, चंद्र शेखर सक्सेना, गौहर प्रसाद निगम ‘विलायत’ गोरखपुरी, मुंशी लक्ष्मन नारायण ‘सखा’, महेंद्र कुमार ‘अश्क’, कुँवर मोहिंदर सिंह बेदी, बसवा रेड्डी, जय सिंह, किशन लाल, गोपी नाथ, प्रो. जगन्नाथ आजाद, और चंद्र शर्मा ‘भुवन’ अमरोही. भुवन अमरोही का निम्नलिखित शेर सभी हिंदुओं की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता हैः
हिंद में काश हुसैन इब्न अली आ जाते
चूमते उनके कदम पलके बिछाते हिंदू.
भारत में शांतिपूर्ण मुहर्रम
मुहर्रम के अत्यधिक भावुक और व्यापक अवलोकन के बावजूद, भारत के किसी भी हिस्से से किसी भी अप्रिय दुर्घटना की सूचना नहीं है. कानून-व्यवस्था के कुछ दुर्लभ मुद्दे प्रकाश में आते हैं और वह भी प्रबंधन की कुछ चूक के कारण होता है, क्योंकि शोक मनाने की भारी भीड़ जमा हो जाती है.
राजधानी दिल्ली के बीचों-बीच शोक मनाने वालों को सड़कों पर देखा जा सकता है और हिंदू और सिख सामाजिक कार्यकर्ता उनकी मदद करते हैं. वे शोक मनाते हैं और फिर सुरक्षा बलों की मदद से तितर-बितर हो जाते हैं.
लखनऊ, हैदराबाद, मुंबई और यहां तक कि श्रीनगर जैसे शहरों में भी यही देखा जा सकता है. पैगंबर के परिवार का दर्द शांति की भावना को और मजबूत बनाता है. मुहर्रम में बांटे जाने वाले तबारुख (पवित्र भोजन) को भी हिंदू और सिख बड़ी श्रद्धा से स्वीकार करते हैं.
पाकिस्तान में अराजकता और खून-खराबा
मगर पाकिस्तान में मुहर्रम अक्सर घातक हमलों की एक श्रृंखला में बदल जाता है. ज्यादातर सांप्रदायिक समूह या आतंकवादी आशूरा के दिन शोक मनाने वालों को निशाना बनाते हैं. सौभाग्य से हाल के वर्षों में इस तरह के हमले कम हुए हैं, लेकिन यह पाकिस्तान में सांप्रदायिक विभाजन का दुखद संकेत है.
खराब सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि कुछ निर्दोष लोगों को अपनी जान देनी पड़े. 1987 से 2007 तक पाकिस्तान में 4000 से ज्यादा शिया मारे गए और इस तरह की सांप्रदायिक हत्याएं जारी हैं.
अकेले 9/11 के बाद से 2019 तक विभिन्न बम और गोलीबारी हमलों में लगभग 5500 शिया मारे गए हैं. सिपाह-ए-सहाबा पाकिस्तान, लश्कर-ए-झांगवी और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान जैसे शिया विरोधी आतंकी समूहों ने खुले तौर पर इस तरह के हमलों की साजिश रचने का दावा किया है.
एक नए और ज्यादा ख़तरनाक आतंकी समूह इस्लामिक स्टेट ऑफ खुरासान (आईएसके) ने 2022 में पेशावर में एक मस्जिद पर हमला करके लगभग 61 शियाओं को मार डाला.
यहां तक कि सिर्फ दो दिन पहले ओमान की एक मस्जिद में चार पाकिस्तानी शिया मारे गए.
सुन्नी भी हुसैन को उतना ही सम्मान देते हैं, लेकिन कट्टरपंथी उनकी शहादत पर सार्वजनिक शोक मनाने का विरोध करते हैं. पाकिस्तान की 220 मिलियन आबादी में से लगभग 20 प्रतिशत शिया हैं, जिनके खिलाफ सांप्रदायिक हिंसा - खास तौर पर सुन्नी कट्टरपंथियों द्वारा - दशकों से छिटपुट रूप से भड़की हुई है.
मुहर्रम का पवित्र महीना भारत में सांप्रदायिक सौहार्द के धागे बुनता है. मगर यह पाकिस्तान में सांप्रदायिक हिंसा का केंद्र बन जाता है.