तिरंगे का तीसरा रंग / प्रो. अख़्तरुल वासे
परिवर्तन की प्रक्रिया हमेशा दुनिया में चलती रहती है, बल्कि इसकी व्याख्या ही परिवर्तन और गति के संदर्भ में ही की जाती है. समय क्या है? यह गति का पैमाना ही तो है.
अल्लामा इक़बाल के अनुसार, यदि दुनिया में स्थिरता है, तो केवल परिवर्तन ही को स्थिरता हासिल है. परिवर्तन ही एकमात्र ऐसी चीज है जो हमेशा रहती है, शांति और स्थिरता एक भ्रम है, अन्यथा यह ब्रह्मांड हमेशा प्रतिध्वनि से गूंजता रहता.
परिवर्तन के इस तरीक़े से समय और परिस्थिति भी सुरक्षित नहीं है. जब से मनुष्य ने इस ज़मीन पर क़दम रखा और मानव समाज का निर्माण किया, उसी वक़्त से यह समाज भी इस परिवर्तन के प्रभाव में है और हमेशा जाने-अनजाने में यह बदलाव होता रहता है.
आधुनिक युग में जो वैश्विक परिवर्तन हुए हैं, उसके उदाहरण अतीत में नहीं मिलते हैं. आधुनिक युग में कुछ महत्वपूर्ण क्रांतियाँ हुईं जिनके कारण दुनिया के बौद्धिक परिदृश्य और सांस्कृतिक क्षितिज, सामाजिक संगठन, अंतर्राष्ट्रीय संबंध सब कुछ बदल गया. संचार के उन्नत और परिवहन के अत्यधिक विकसित साधनों ने दुनिया को एक गाँव में बदल दिया है.
आज दुनिया में हर दूरी कुछ ही घंटों में तय की जा सकती है और किसी संदेश को एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचाना चंद पलों की बात है.
इसी तरह धन की प्रचुरता के कारण लोगों की आवाजाही काफी बढ़ गई है. कुछ समय पहले तक एक व्यक्ति के लिए अपने देश या अपने शहर से बाहर क़दम रखे बिना अपने पूरे जीवन की यात्रा को पूरा करना संभव था, और वह अन्य धर्मों, अन्य सभ्यताओं और विदेशी राष्ट्रों से बिल्कुल भी संबंधित नहीं था, लेकिन अब ऐसा संभव नहीं रहा.
अब तो यह दुनिया अपने आप में एक गाँव है, एक शहर है. एक ऐसा शहर जहाँ वो सारी चीज़ें एक जगह मौजूद हैं, जो कभी पूरी दुनिया की कल्पना मात्र थी.
एक लंबी प्रस्तावना से बचते हुए, यह कहना है कि हमने तय किया है कि ईद मिलादुन्नबी (सल्ल.) के इस पवित्र महीने में हम अपने कॉलम में केवल पैगंबर मुहम्मद सल्ल. के बारे में ही बात करेंगे क्योंकि अल्लाह ने स्वयं कहा हैः
कि मुहम्मद से वफ़ा तूने तो हम तेरे हैं
ये जहाँ चीज़ है क्या लौह-ओ-क़लम तेरे हैं
ग़ौरतलब मामला यह है कि वर्तमान युग के असाधारण परिवर्तनों और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली नई समस्याओं के बारे में पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) की ज़िंदगी से हमें क्या मार्गदर्शन मिलता है और हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की ज़िंदगी जो हर समय और सभी परिवर्तनों के लिए मार्गदर्शक है, उससे हमें क्या कुछ सीखने को मिल सकता है?
यदि हम आज की समस्याओं का वर्गीकरण करें तो उन्हें कुछ विषयों में विभाजित किया जा सकता है. एक सामाजिक परिवर्तन जिसमें विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों और विभिन्न धर्मों के अनुयायियों की परस्पर जुड़ाव कई गुना बढ़ गया है, और सूचना, संचार और प्रसारण के माध्यमों ने मनुष्य को दुनिया के सभी धर्मों और सभ्यताओं से सीधे तौर पर जोड़ा है.
दूसरा बड़ा परिवर्तन विज्ञान और प्रौद्योगिकी है जिसने कुछ ऐसी समस्याएं और कठिनाइयाँ पैदा की हैं जिनकी पहले कभी कल्पना भी नहीं की गई थी.
इसका सबसे बड़ा पहलू पर्यावरण प्रदूषण है जिसने विभिन्न समस्याओं को जन्म दिया है. तीसरी बड़ी चुनौती व्यक्तिगत स्तर पर है. आज का मनुष्य पहले से अधिक भौतिकवादी और अधिक उपभोक्तावादी हो गया है, जिसके कारण भ्रष्टाचार, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार, क्षेत्रीय, धार्मिक और राष्ट्रीय पूर्वाग्रहों में अत्यधिक वृद्धि हुई है. व्यक्तिगत लक्ष्यों और व्यक्तिगत पहचान के भेद ने मानव समाज को बर्बादी और पतन के द्वार पर ला खड़ा किया है.
ऐसी स्थितियों में हमें पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) की ज़िंदगी से बहुत अच्छा मार्गदर्शन मिलता है. इस्लाम की यह अवधारणा कि इस ब्रह्मांड का ख़ुदा एक है और मनुष्य की उत्पत्ति भी एक ही से हुई है, एक महान प्रेरणा है जो मनुष्य को सामाजिक समानता और धार्मिक सद्भाव का पाठ पढ़ाती है. अल्लाह तआला का कहना है कि ‘‘ऐ लोगों! अपने रब से डरो, जिसने तुम्हें एक इंसान से पैदा किया और उससे उसका जोड़ा बनाया और फिर उनसे बहुत से स्त्री-पुरुष पैदा किए.” (अन्निसाः1)
इसी तरह धार्मिक और सांस्कृतिक सद्भाव के लिए इस्लाम का निर्देश है कि ‘‘तमाम इंसान शुरू में एक ही समुदाय थे, फिर उन्होंने आपस में मतभेद पैदा किए.” (यूनुसः11) इस प्रकार मनुष्य वास्तव में एक हैं और धर्म भी मूल रूप से एक ही पेड़ से निकली हुई कई शाखाएँ हैं. इसलिए पुरुषों के बीच नस्लीय अंतर और राष्ट्रों के बीच बौद्धिक और धार्मिक मतभेदों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और उन्हें मिटाने का प्रयास उस ईश्वरीय ज्ञान के विपरीत होगा जिसने उन्हें बनाया है.
ये सांस्कृतिक रंगारंगी और विचित्रता ही तो इस उद्यान के श्रृंगार हैं, इन्हें बनाए रखते हुए मनुष्य की भलाई के लिए इसका उपयोग करना है. इसलिए इस्लाम ने यह सिद्धांत दिया कि धर्म में कोई बाध्यता नहीं है और यह कि आपके लिए आपका धर्म है और हमारे लिए हमारा धर्म है.
कुरान में यह भी कहा गया है कि अगर अल्लाह लोगों को एक-दूसरे से दूर नहीं करता, तो दूसरे धार्मिक स्थल ख़त्म हो जाते और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने भी किसी के धार्मिक स्थलों को न गिराने की नसीहत की है, न ही धार्मिक अनुष्ठानों पर रोक लगाई जाए.
धार्मिक लोगों पर अत्याचार न किया जाए. इस तरह अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की शिक्षाएँ हमें इस वैश्विक गाँव की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता को स्वीकार करने और इस्लाम को अपने जीवन का मार्गदर्शक बनाते हुए अन्य धर्मों का सम्मान करने के लिए मार्गदर्शन करती हैं. बेशक धर्म परिवर्तन करना और इस्लाम धर्म अपनाने की आज़ादी है लेकिन ये आज़ादी इंसान की इच्छा और शक्ति के अधीन है. धन-बल से नहीं.
उपभोक्तावाद और बढ़ती तकनीक ने जो समस्याएं पैदा की हैं, उनके संबंध में हमें यह निर्देश अल्लाह के रसूल (सल्ल.) से मिलता है कि मनुष्य इस दुनिया में एक परीक्षा के लिए आया है और इस परीक्षा में चीज़ों को संतुलित तरीक़े से इस्तेमाल करना भी शामिल है.
भौतिक वस्तुओं का अत्यधिक उपयोग उसके जीवन के उद्देश्य के विरुद्ध है. यहाँ तक कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने निर्देश दिया कि यदि कोई बहती हुई नहर के किनारे हो तो भी वह उतना ही पानी का उपयोग करे जितना उसे ज़रूरी हो.
वस्तुओं की अंधाधुंध खपत भी पर्यावरण में असंतुलन के लिए जिम्मेदार है. अल्लाह के रसूल ने कहा कि पेड़ लगाओ. यदि कोई व्यक्ति एक पेड़ लगाता है, तो उस से जब तक कोई इंसान या जानवर फ़ायदा उठाएगा उस वक़्त तक उसको इसका सवाब मिलता रहेगा. (बुख़ारी)
इसी तरह हदीस है कि अगर किसी के हाथ में पौधा हो और क़यामत आ जाए तो वह उस पौधे को ज़मीन में रोपित दे. (मुसनद अहमद).
इस्लाम को इस दुनिया के संतुलित उपयोग की आवश्यकता है और इसके संतुलित उपयोग से ही इसका संतुलन बनाए रखा जा सकता है. अतः संतुलन की यह अवधारणा पर्यावरणवाद और उपभोक्तावाद द्वारा उत्पन्न अनेक समस्याओं का सर्वोत्तम समाधान है और इसका फ़ायदा पूरी इंसानियत को मिलेगा.
आज के वैश्विक गांव में, सिकुड़ती हुई दूरियों और बढ़ती उपभोक्तावाद के माहौल में इस्लाम की शिक्षाएं और अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की कही बातें एक ऐसा उदाहरण है जिसका पालन करके इस दुनिया को एक बार फिर से शांति के पथ पर लाया जा सकता है, बढ़ती हुई समाजी दूरियों को कम करके लोगों को क़रीब लाया जा सकता है, बढ़ते हुए असंतुलन को संतुलन में परिवर्तित किया जा सकता है.
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.)