समीर दि. शेख
महाराष्ट्र की अवामी तहज़ीब में, गांव के मेलों को अक्सर एक ख़ास नाम 'उरूस' से जाना जाता है. 'उरूस' लफ़्ज़ हमारी ज़बान पर इतना चढ़ गया है कि यह हमें मराठी ही लगता है. लेकिन, यह असल में अरबी लफ़्ज़ 'उर्स' से बना है. अरबी में इसके दो मतलब हैं: एक है शादी की तक़रीब, और दूसरा, जो ज़्यादा इस्तेमाल होता है, वह है 'किसी सूफी संत की बरसी'.
हमारे यहां 'उरूस' का मतलब मेला, जश्न और ख़ुशी का माहौल बन गया है, इसलिए किसी को यक़ीन भी नहीं होगा कि उस दिन असल में उस सूफी संत का विसाल हुआ था. लेकिन यह सोचना कि विसाल के दिन जश्न मनाना सिर्फ हमारे यहां ही होता है, सही नहीं है. दुनिया भर में सूफी संतों की बरसी, यानी उर्स के दिन, ख़ुशी और गहरी अक़ीदत का पुरजोश नज़ारा ही देखने को मिलता है.
कोई भी यह सवाल पूछ सकता है कि बरसी या विसाल का दिन जश्न का तो हो नहीं सकता, फिर सूफी संतों की बरसी पर उर्स क्यों मनाया जाता है? वह कोई ख़ुशी का दिन थोड़ी है? लेकिन आपको हैरत होगी कि सूफीवाद में, किसी संत के विसाल के दिन को ख़ुशी और क़िस्मत का दिन माना जाता है. क्योंकि उस दिन वह सूफी संत अल्लाह, यानी ख़ुदा से जा मिलता है.
पूरी ज़िंदगी एक सूफी संत जिस 'फ़ना-फ़ि-अल्लाह' (ख़ुदा में फ़ना हो जाना) के लिए जद्दोजहद करता है, उसमें उसे आख़िरकार उस दिन कामयाबी मिलती है और वह ख़ुदा की ज़ात में मिल जाता है. और इसीलिए उस दिन को 'उर्स' (शादी) के तौर पर मनाया जाता है. इस बारे में हिंदुस्तान के मशहूर सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती फ़रमाते हैं, 'एक सूफी संत के लिए, मौत ख़ुदा तक ले जाने वाला पुल है.' इसीलिए 'फ़ना-फ़ि-अल्लाह', यानी अपनी हस्ती को मिटाकर ख़ुदा में एक हो जाना, सूफी फ़लसफ़े में ख़ुशी का सबसे ऊंचा मुक़ाम है.
सूफीवाद एक रूहानी सोच है, जो हमारी भक्ति परंपरा के बहुत क़रीब है. यह फ़लसफ़ा बुनियादी तौर पर दो उसूलों पर टिका है: ख़ुदा से इश्क़ और इंसानियत की ख़िदमत. इस रास्ते को अरबी में 'तसव्वुफ़' भी कहा जाता है. मज़हब के बाहरी अरकान और क़ानून को 'शरीयत' कहते हैं, जो आम इंसान के लिए काफ़ी होती है. लेकिन जिसे रूहानी तरक़्क़ी और सच्ची ख़ुशी की तलब हो, उसे 'शरीयत' पर रुके बिना आगे का सफ़र तय करना होता है, जिसे 'तरीक़त' कहते हैं.
तरीक़त यानी सूफी बनने का रूहानी रास्ता. गुरु-शिष्य, यानी मुर्शिद-मुरीद की रिवायत (परंपरा) से बना यह तरीक़त का रास्ता आपको 'हक़ीक़त' की तरफ़ ले जाता है. हक़ीक़त का मतलब है अपनी हस्ती और अपने आस-पास की दुनिया की असलियत को जानना. और आख़िर में, यह रास्ता आपको 'मारिफ़त', यानी आख़िरी सच तक ले जाता है. ख़ुद को पहचानने से लेकर ख़ुदा को पहचानने तक का यह सफ़र ही सूफीवाद है. इस सफ़र के लिए सिर्फ दो ही चीज़ें काम आती हैं: इश्क़ और ख़िदमत का जज़्बा.
सच्ची ख़ुशी की तलाश का सफ़र
सूफी सोच भले ही रूहानी और दुनिया से कुछ हद तक किनारा करने वाली हो, लेकिन इसमें ख़ुशी का एक बहुत मज़बूत तसव्वुर मिलता है. बल्कि यह कहना ग़लत नहीं होगा कि इसमें सबसे ज़्यादा ज़ोर 'सआदत' यानी ख़ुशी पर ही दिया गया है. सूफी सिर्फ इस दुनिया की ख़ुशी की बात नहीं करता, बल्कि उसकी ख़ुशी के तसव्वुर में ज़मीन की महदूद (सीमित) ज़िंदगी और आख़िरत (परलोक) की लामहदूद (असीम) ज़िंदगी, दोनों शामिल होती हैं.
असली ख़ुशी क्या है और उसे कैसे हासिल किया जाए, इस पर सूफियों ने तफ़सील से बात की है. महान फ़लसफ़ी और सूफी अल-गज़ाली (1057-1111) ने तो इस पर एक पूरी किताब लिखी है, जिसका नाम है 'कीमिया-ए-सआदत', यानी 'ख़ुशी का कीमिया' या 'The Alchemy of Happiness'.
अल-गज़ाली समेत सभी सूफी यह मानते हैं कि बाहरी और दुनियावी चीज़ों से मिलने वाली ख़ुशी असली ख़ुशी नहीं है; असली ख़ुशी तो ख़ुद को पहचानने से लेकर ख़ुदा को पहचानने तक के सफ़र में है. वे मानते हैं कि इश्क़ ही उस सबसे बड़ी ख़ुशी को पाने का ज़रिया है. इसीलिए सूफी फ़लसफ़ा रूहानियत और इश्क़ का एक खूबसूरत मेल है. यह एक ऐसी सोच है जो रस्म-ओ-रिवाज में फंसे बिना आम लोगों के दिलों में उतर जाती है और इश्क़ के सहारे ख़ुदा से मिलने की बात करती है. ज़ाहिर है, इस सोच को मानने वाले सूफी संतों की शायरी में इश्क़ और उसकी शिद्दत (उत्कटता) का रूहानी अंदाज़ न होता तो ताज्जुब की बात होती.
सूफियों ने इश्क़ के सात दर्जे बताए हैं: दिलकशी, उन्स (लगाव), इश्क़, अक़ीदत, इबादत, जुनून, और मौत (फ़ना हो जाना). किसी इंसान से किया गया इश्क़ अक्सर तीसरे दर्जे पर आकर रुक जाता है. लेकिन सूफियों का इश्क़ आख़िरी दर्जे तक पहुंचता है और वे ख़ुदा में फ़ना हो जाते हैं.
सच्ची ख़ुशी कैसे पाएं?
सूफी सोच बाहरी चीज़ों और रस्म-ओ-रिवाज से ख़ुशी पाने के बजाय 'अपने अंदर झांकने' पर ज़ोर देती है. यह मानती है कि दुनियावी चीज़ों से दूरी, यानी फ़क़ीरी, से ही सच्ची ख़ुशी मिलती है. इस फ़क़ीरी को 'ज़ुहद' कहा जाता है. दुनियावी ख़ुशी की लालच बंदे और ख़ुदा के बीच की सबसे बड़ी रुकावट है. इसीलिए 'कीमिया-ए-सआदत' में अल-गज़ाली कहते हैं, 'दौलत और शोहरत से ख़ुशी पाने की कोशिश करना एक सराब (मरीचिका - धोखे) के पीछे भागने जैसा है. असली ख़ुशी तो रूहानी तरक़्क़ी और ख़ुदा की मर्ज़ी में है.'
इसलिए, सूफी सोच पल भर की ख़ुशी के पीछे भागने के बजाय हमेशा रहने वाली ख़ुशी की तलाश करने की प्रेरणा देती है. यह बात महाराष्ट्र के संत तुकाराम के फ़लसफ़े से कुछ मिलती-जुलती है, जो कहते हैं, "जैसे ख़ुदा ने रखा है, वैसे ही रहो | दिल में इत्मीनान बनाए रखो ||." लेकिन, इस ख़ुशी को पाने के लिए सिर्फ 'वैसे ही रहने' के बजाय, सूफी सोच कुछ 'रियाज़त' (साधना) सुझाती है.
ख़ुदा को याद करना, यानी ज़िक्रुल्लाह, ख़ुश रहने के लिए बहुत अहम है. सूफी सोच में, इंसान का दिल 'नफ़्स' (इंसान की बुरी ख्वाहिशें) के काबू में आने से काला पड़ जाता है. ज़िक्र उन काले धब्बों को मिटाकर दिल को साफ़ करता है, और इससे अंदर का चिराग़ और रौशन होता है. सूफियों के लयबद्ध 'ज़िक्र' के कई तरीक़े हैं, और इस रास्ते पर चलने वाले को यह रियाज़त रोज़ करनी पड़ती है.
'इस्लाम' लफ़्ज़ का मतलब ही 'ख़ुदा की मर्ज़ी के आगे सर झुकाना' है, लेकिन हर मुसलमान यह कीमिया सीख जाए, यह ज़रूरी नहीं. सूफी मानते हैं कि असली ख़ुशी ख़ुदा की मर्ज़ी में ही राज़ी रहने में है. इसे वे 'तवक्कुल' कहते हैं. तवक्कुल एक रूहानी ढाल है जो बंदे को दुनिया की ख्वाहिशों और उनके पूरा न होने से पैदा होने वाली मायूसी से बचाती है. जब आपमें तवक्कुल आ जाता है, तो आपको 'रिज़ा' यानी 'इत्मीनान' की ख़ुशी मिलती है. आज के दौर में, जहां डिप्रेशन और एंग्जायटी की लहर है, यह जानना दिलचस्प होगा कि क्या तवक्कुल से कुछ हद तक ज़हनी सुकून मिल सकता है.
सूफियों ने लज़्ज़त (Pleasure) और ख़ुशी (Happiness) में फ़र्क किया है. आसान लफ़्ज़ों में, लज़्ज़त पल भर का मज़ा है, जबकि ख़ुशी एक देर तक टिकने वाला एहसास है. हो सकता है किसी के क़दमों में दुनिया की हर लज़्ज़त हो, लेकिन वह ख़ुश हो, यह ज़रूरी नहीं. वहीं, किसी की क़िस्मत में तकलीफ़ हो, पर वह उससे दुखी हो, यह भी ज़रूरी नहीं. इस बारे में, 'पीरों के पीर' कहे जाने वाले बग़दाद के अब्दुल क़ादिर जीलानी, जिन्हें गौस-ए-पाक भी कहते हैं, अपनी किताब में पैगंबर मुहम्मद की एक हदीस का ज़िक्र करते हैं: 'कभी-कभी दुख पाने वाले भी ख़ुश होते हैं, और ख़ुश रहने वालों की क़िस्मत में भी आज़माइश आती है.'
इंसानियत की ख़िदमत से मिलती है ख़ुशी
सूफी ख़ुशी को ख़ुदा की रहमत समझता है. वे मानते हैं कि रहमान (रहम करने वाला) ख़ुदा, बंदे के नेक कामों का इनाम ख़ुशी की सूरत में देता है. इसलिए, सूफियों ने नेक काम करते रहने, इंसानियत की ख़िदमत के लिए हमेशा तैयार रहने, अपनी ज़रूरतों से ज़्यादा दूसरों की ज़रूरतों को अहमियत देने और ख़ुद को दूसरों की ख़िदमत के लिए वक़्फ़ कर देने जैसी बातों को बहुत अहमियत दी है.
दक्षिण एशिया के एक मशहूर सूफी, सैयद सरफ़राज़ शाह, पाकिस्तान में एक बड़े सरकारी अफ़सर के पद से रिटायर हुए हैं. उनकी वेबसाइट 'क़लंदर' पर उनके सैकड़ों लेक्चर मौजूद हैं. क़रीब दस साल पहले, मैंने उनके लगभग सभी लेक्चर बहुत ध्यान से सुने, और उन सूफी बातों का मेरे तब के नौजवान ज़हन पर गहरा असर पड़ा. उनकी एक बात मेरे दिल में हमेशा के लिए घर कर गई: "तुम ख़ल्क़-ए-खुदा के फुटमैट बन जाओ, देखना खुदा तुमको अपने सर का ताज बना देगा." यानी, तुम ख़ुदा की बनाई मखलूक (लोगों) के पायदान बन जाओ, फिर देखना, ख़ुदा तुम्हें अपने सर का ताज बना देगा. सूफी मानते हैं कि अपने अंदर की 'मैं' को खत्म करना, ख़ुशी की तरफ़ जाने वाला एक अहम क़दम है.
यानी, सूफी समाजी कामों और उससे मिलने वाले रूहानी सुकून को ख़ुशी का ज़रिया मानते हैं. और इसीलिए वे 'ख़ल्क़-ए-खुदा की ख़िदमत' को, यानी ख़ुदा के बंदों की सेवा करने और उनकी ज़रूरतें पूरी करने को बहुत अहमियत देते हैं. समाजशास्त्री बताते हैं कि हिंदुस्तान में ज़्यादातर मुसलमान सूफियों की इसी 'ख़िदमत' की वजह से मुसलमान बने. इतिहास में इस बात के ढेरों सबूत मिलते हैं कि सूफियों के ख़ानक़ाहों (आश्रमों) में तिब्ब (दवा-दारू) और लंगर (मुफ्त खाना) के ज़रिए इंसानियत की ख़िदमत की जाती थी. भाईचारे की मीठी ज़बान, सादगी भरा पाक-साफ़ रहन-सहन और ख़िदमत के जज़्बे की वजह से लोग सूफियों की तरफ़ खिंचे चले आते थे.
अब्दुल क़ादिर जीलानी सबसे बड़ी ख़ुशी की तारीफ़ (परिभाषा) करते हुए एक जगह कहते हैं, 'कुदरत के साथ एक अच्छा रिश्ता बनाकर जीना, नेक काम करके लोगों की ख़िदमत करना, और 'रज़ा-ए-खुदा' यानी ख़ुदा की मर्ज़ी के आगे सर झुकाना, इससे जो एहसास मिलता है, वही सबसे बड़ी ख़ुशी है.' सूफी मानते हैं कि दिल की और रूह की सफाई ही ख़ुश रहने का रास्ता है. उनके मुताबिक़, इंसानियत की ख़िदमत और ख़ुदा के लिए सब कुछ सौंप देने से ये दोनों चीज़ें हासिल होती हैं.
ख़ुशी के मुसाफ़िर: मुर्शिद और सोहबत
सूफियों में गुरु को 'मुर्शिद' या 'पीर' कहा जाता है. गुरु की अहमियत बहुत ज़्यादा है. सूफी मानते हैं कि ख़ुदा को और सच्ची ख़ुशी को महसूस करना है, तो यह सिर्फ गुरु के बताए रास्ते और उनकी मेहरबानी से ही मुमकिन है. इसीलिए सूफियों में मुर्शिद और मुरीद, यानी गुरु-शिष्य की जोड़ियां दुनिया भर में मशहूर हैं. हमारे हिंदुस्तान में अमीर ख़ुसरो और उनके गुरु निज़ामुद्दीन औलिया की जोड़ी बहुत लोकप्रिय है. तूती-ए-हिंद यानी 'हिंदुस्तान का बोलने वाला तोता' के नाम से मशहूर, हर फ़न में माहिर ख़ुसरो ने अपने गुरु के इश्क़ में जो अनगिनत क़व्वालियां लिखीं, जैसे 'आज रंग है री' और 'ज़ेहाल-ए-मिस्कीं', वे आज भी नौजवानों में लोकप्रिय हैं.
13वीं सदी के शायर रूमी, जिन्हें आज अमेरिका में सबसे लोकप्रिय शायर माना जाता है, और उनके कलंदर गुरु शम्स तबरेज़ी का रूहानी रिश्ता और उससे पैदा हुई महान कविताएं आज दुनिया भर के पढ़ने वालों के लिए ख़ुशी और एक गहरे एहसास का ज़रिया हैं. अपने गुरु के बारे में रूमी कहते हैं, "मौलवी हरगिज़ न शुद मौला-ए-रুম, ता ग़ुलाम-ए-शम्स तबरेज़ी न शुद." (यह मौलवी कभी भी रूम का मौला (मालिक) नहीं बनता, अगर वह शम्स तबरेज़ी का ग़ुलाम न बनता.)
ख़ानक़ाह, साथी और मौसिकी
सूफीवाद में गुरु-शिष्य परंपरा से मिलने वाले रूहानी इल्म को बहुत अहमियत दी गई है. गुरु की मेहरबानी पाने के लिए गुरु और गुरु-भाइयों की ख़िदमत करके उनसे इल्म हासिल करना पड़ता था. इसके लिए कई सूफियों ने अपनी 'ख़ानक़ाह' यानी आश्रम बनाए, जिन्हें अब दरगाह कहा जाता है. यहां एक मुरीद (शिष्य) अपने साथियों के साथ मुर्शिद से रूहानी इल्म हासिल करता है, जिससे वह ख़ुदा को जान सके और उस एहसास से सच्ची ख़ुशी पा सके.
इस सबसे बड़ी ख़ुशी को महसूस करने के लिए, सूफी गुरु अपने शिष्यों को 'तैयार' करते थे. इसके लिए मुराक़बा यानी ध्यान की कई रस्में होती थीं, और जैसा कि ऊपर बताया गया, महफ़िल-ए-ज़िक्र यानी ख़ुदा को याद करने की महफ़िलें होती थीं. ज़िक्र के साथ-साथ, कुछ सूफी ख़ानक़ाहों में हर जुमेरात (गुरुवार) को 'महफ़िल-ए-समा' का भी आयोजन होता था. हिंदुस्तान में चिश्ती सिलसिला सबसे बड़ा सूफी सिलसिला है. इसमें 'महफ़िल-ए-समा', यानी ख़ुदा के ज़िक्र में संगीत का इस्तेमाल करने की इजाज़त थी. इस एहसास से कि संगीत के सहारे ख़ुदा से जल्दी मिला जा सकता है, 'सूफी संगीत' जैसे क़व्वाली का जन्म हुआ. इन महफ़िलों में सूफी एक मस्ती की हालत में चले जाते थे, जिसे 'वज्द' कहा जाता था, और कुछ देर के लिए ही सही, उन्हें उस सबसे बड़ी ख़ुशी का एहसास होता था.
कुल मिलाकर, रूह का ख़ुदा से मिल जाना, इसी को सूफी सबसे बड़ी ख़ुशी मानते हैं. लेकिन, वहां तक का सफ़र भी ख़ुशी से भरा हो, और रास्ते के हर पड़ाव पर ख़ुशी महसूस हो, इसके लिए सूफी हमेशा कोशिश करते रहे. इसीलिए वे सिर्फ पांच वक़्त की नमाज़ और 30 दिन के रोज़ों पर ही नहीं रुके, बल्कि उन्होंने उससे ज़्यादा रियाज़त (साधना) करके ख़ुद को और ख़ुदा को जानने की कोशिश की. नेकी के लिए की गई यही जद्दोजहद उन्हें 'सिरात-ए-मुस्तक़ीम' यानी सीधे रास्ते पर रखती है. और जैसा कि क़ुरान की पहली सूरत में कहा गया है, इस 'सिरात-ए-मुस्तक़ीम' पर रहने की वजह से, आख़िर में उन पर ख़ुदा की रहमत होती है. यानी, उन्हें इस दुनिया में और मौत के बाद की दुनिया में भी सबसे बड़ी ख़ुशी का एहसास होता है.
(लेखक 'आवाज़ द वॉइस' के मराठी विभाग के एडिटर हैं.)