डॉ. रेशमा रहमा
बिहार की राजनीति को समझना और विश्लेषण करना कोई भी राजनीतिक विश्लेषक इसे चुनौती मानता है. यहाँ की जाति आधारित राजनीति इतनी जटिल है कि उसका आकलन करने के लिए ज़मीनी स्तर पर कार्य करना आवश्यक है. बिहार में सभी 243 सीटों पर अगले चुनाव विधानसभा अक्टूबर-नवंबर 2025 में होने की संभावना है. इसलिए बिहार में बड़ी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों और नेताओं का जमावड़ा देखने को मिल रहा है. कांग्रेस सांसद राहुल गांधी बिहार में यात्रा की.
हाल के वर्षों में राहुल की ये तीसरी यात्रा है. इससे पहले उन्होंने भारत जोड़ो और न्याय यात्रा निकाली थी. इस यात्रा से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का ग्राफ बढ़ा था. उसकी सीटें बढ़ीं और अब एक बार फिर कांग्रेस इस उम्मीद में है वोट अधिकार यात्रा से. नज़र डाले तो यात्रा के दौरन कोई भी मुस्लिम चर्चित महिला चेहरा साथ खड़ी नहीं दिखाई दी.
वही मीडिया में आजकल बिहार खबरों में बना हुआ है . मीडिया भी ख़ासा दिलचस्पी ले रही है. हर बड़ी खबर बिहार से आजकल निकलकर आ रही है. लेकिन क्या बिहार की राजनीति को समझना बेहद आसान है. नहीं जनाब,वही मुस्लिम पुरुष राजनेताओं की संख्या में भारी गिरावत दर्ज हुई है. और मुस्लिम महिलाएं राजनेता तो शून्य के कगार पर आज भी खड़ी दिखाई पड़ती हैं. इसको समझने के लिए बिहार विधानसभाचुनाव रिकॉर्ड खंगालते हुए डेटा बतलाता है ये हक़ीक़त;
बिहार विधानसभा चुनाव में 1952 से 2020 तक मुस्लिम जीते विधायकों की संख्या इस प्रकार है;
1952 |
1957 |
1962 |
1967 |
1969 |
1972 |
1977 |
1988 |
1985 |
1990 |
1995 |
2000 |
2005 |
2010 |
2015 |
2020 |
0 |
25 |
21 |
18 |
19 |
25 |
25 |
28 |
34 |
20 |
19 |
29 |
16 |
19 |
24 |
18 |
इन आंकड़ों से पता चलता है कि बिहार विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व समय-समय पर बदलता रहा है, लेकिन कभी यह संख्या अधिक रही है कभी कम. डेटा को खंगालने पर चौकाने वाला रिजल्ट सामने आया वह हैं शून्य, यानी एक भी मुस्लिम महिला इन आंकड़ों में नहीं है शामिल.
RJD की दो महिला युवा ओजस्वी चेहरों को प्रवक्ता बनाया है .मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर अपने बेबाक अंदाज में टेलीविजन डिबेट्स पर अपना पक्ष रखती हैं. उनका जवाब मीडिया एंकर और पैनलिस्ट्स को खासा परेशान कर देता है.
अक्सर उनकी क्लिप्स सोशल मीडिया पर वायरल होती हैं.हालांकि आजकल वह दोनों सोशल मीडिया पर राजनीतिक सेंसेशन बन चुकी हैं.आम जनता भी काफी दिलचस्पी ले रही है. इन दोनों महिलाओं का काउंटर अटैक बहुत सटीक होता है. यही इन्हें भीड़ से अलग बना रहा है.कंचन यादव और प्रियंका भारती दोनों युवा हैं, जो बिहार से आती हैं.और जेएनयू में पढ़ाई के दौरान राजनीति में आई.बिहार राजनीति में महिलाओं की भागीदारी नहीं है, यह सरासर गलत है.
बिहार राजनीति में महिलाओं की भागीदारी हमेशा से रही है. बिहार में बड़ी और छोटी पार्टियाँ अपने उम्मीदवार चुनती हैं. और इनमें से कई उम्मीदवार चुनाव जीतकर राज्यसभा में जाती रही हैं. बिहार 2020 विधानसभा चुनाव में 26 महिलाएं विजयी रहीं, जो कुल सीटों का लगभग 11% है.
इनमें रेणु देवी, श्रेया सिंह जैसी चर्चित नाम शामिल हैं.इनमें एक भी मुस्लिम महिला उम्मीदवार नहीं है. वही, कुल 19 मुस्लिम विधायक चुने गए, जिनमें लगभग सभी पुरुष थे.AIMIM, RJD और कांग्रेस ने सबसे अधिक मुस्लिम पुरुष उम्मीदवारों को जिताया. 2020 चुनाव में लगभग 10 से कम मुस्लिम महिलाएं उम्मीदवार मैदान में उतारी गयी थीं, लेकिन कोई भी विजयी नहीं हुई.
कुल महिला उम्मीदवारों की संख्या 370 थी.स्वर्गीय सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब ने सीवान से अब तक 4 बार लोकसभा चुनाव लड़ा है 2009, 2014, 2019 (RJD से) और 2024 (निर्दलीय). लेकिन उन्हें अब तक जीत नहीं मिली.यह राजनीतिक घराने से आती है सो इनका खड़ा होना चुनाव में अचम्भा की बात नहीं है.
वह अपने मरहूम पति की सीट से खड़ी होती आई है.यहाँ सवाल यह खड़ा होता है कि कंचन यादव या प्रियंका भारती जैसी बिहार की मुस्लिम लड़कियाँ कहाँ पिछड़ गई हैं.वह राजनीतिक चेहरा क्यों नहीं बन पा रही हैं.
आख़िर क्या है वजह?
दरअसल, बिहार से आने वाली मुस्लिम लड़कियां ज़्यादातर पढ़ने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया इस्लामिया का रुख करती हैं. वहीं, लड़कियों की जेएनयू और डीयू में कम संख्या है. जामिया मिल्लिया इस्लामिया और जेएनयू दोनों दिल्ली में हैं, इसलिए जेएनयू का प्रभाव जामिया के छात्रों पर काफ़ी पड़ता है.
लेकिन जामिया मिल्लिया इस्लामिया में सालों से चुनाव नहीं हो रहे हैं, जिसका ख़ामियाज़ा यहां के मुस्लिम नौजवान उठा रहे हैं. NRC प्रदर्शन के दौरान कई जामिया की लड़कियों के स्पीच वायरल हुई थीं. NRC प्रदर्शनों में बढ़चढ़ कर हिस्सा भी लिया था.
इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मुस्लिम लड़कियों में सक्रियता है, बस उन्हें उचित राजनीतिक प्लेटफॉर्म नहीं मिल पा रहा. कश्मीर की रहने वाली शहला राशिद ने सितंबर 2015 में, उन्होंने वामपंथी समर्थित अखिल भारतीय छात्र संघ के उम्मीदवार के रूप में जेएनयू छात्र संघ के उपाध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा और एबीवीपी की उम्मीदवार वेलेंटीना ब्रह्मा को 200 से अधिक मतों से हराकर जीत हासिल की.
यानी मौका और टैलेंट का मिलान मुस्लिम महिलाओं को बिहार की राजनीति में भागीदारी दिला सकता है. इसके लिए मुस्लिम महिला छात्राओं जो राजनीति की पढ़ाई कर रही हैं या फिर राजनीति में रुचि रखती हैं, उन्हें अपना रास्ता खुद चुनना होगा. क्योंकि उन्हें कोई राजनीतिक पार्टी प्लेट में रखकर आपको ऑफर नहीं देने वाली.
आपका रास्ता कठिन है. कठिन रास्ते पर चलकर राजनीतिक मंजिल पा सकती हैं, कहूं तो छिन सकती हैं अपना हक जिसका रास्ता लोकतंत्र दिखाता है.खिड़की तलाश करें, दरवाजा सामने से खुलेगा.
जवां दिलों की धड़कन कैराना की MP इक़रा हसन चौधरी के राजनीतिक की शुरुआत 2024 लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी (SP) ने कैराना सीट से उम्मीदवार बनाया.उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (BJP) के प्रत्याशी प्रदीप चौधरी को लगभग 69,000 वोटों से हराया और पहली बार लोकसभा सांसद बनीं.वे 18 वीं लोकसभा की सबसे युवा मुस्लिम महिला सांसदों में से एक मानी जाती हैं.
वे कैराना (उत्तर प्रदेश) के प्रभावशाली राजनीतिक परिवार से आती हैं,दादा अख्तर हसन लोकसभा सांसद रह चुके हैं.पिता चौधरी मुनव्वर हसन लोकसभा और राज्यसभा दोनों में सांसद रहे, 2008 में उनका निधन हो गया.माँ तबस्सुम हसन दो बार कैराना से सांसद रही हैं.
भाई नाहिद हसन तीन बार के विधायक हैं. 2015 में इक़रा ने ज़िला पंचायत चुनाव लड़ा, पर हार गईं, 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जब उनके भाई नाहिद हसन जेल में थे, तब इक़रा ने पूरे चुनाव अभियान की ज़िम्मेदारी सम्भाली और जीत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
ये समस्या इक़रा के लिए राजनीतिक करियर की स्क्रिप्ट लिख रही थी, जहां इक़रा अपने लोगो के दिल में जगह बनाती चली गई.ख़ासकर वह युवा वर्ग में काफी मशहूर हुई, लंदन यूनिवर्सिटी के SOAS (School of Oriental and African Studies) से अंतरराष्ट्रीय राजनीति और कानून में मास्टर डिग्री पढ़कर आना और अपने सांस्कृतिक -राजनीतिक पहनावे के साथ लोगो के बीच में उतरना, यह ख़ुबी ने कैराना के लोगो के दिल में इक़रा के लिए जगह बना दी.
राजनीतिक छवि
बिहार में मुस्लिम महिलाएँ (2011 की जनगणना के अनुसार) की संख्या लगभग 85,13,723 है. इनमें एक भी मुस्लिम महिला विधानसभा तक नहीं पहुंच पाई,यह साफ बतलाता है, बिहारी मुस्लिम महिलाओं के मुद्दों पर बात भी नहीं हो रही.
बात करना ज़रुरी भी नहीं समझा गया. भयवाह है यह. राजद के MY फॉर्मूला भी मुस्लिम महिलाओं के लिए कारगर साबित नहीं हुआ. मुस्लिम महिलाओं को कोई लाभ नहीं हुआ.2023 बिहार की नीतीश सरकार ने जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी कर दिए हैं जिसमें बिहार में मुस्लिम धर्म को मानने वाले 17.70% फीसदी लोग रहते हैं.
इसलिए राजनीतिक दलों को खास दिलचस्पि रखनी पड़ती है मुस्लिम मतदाताओं में . वही सीएम नीतीश कुमार जो एक सेक्युलर छवि रखते हैं, 24 नवम्बर 2005 से सितंबर 2025 तक लगभग 19 साल पूरे हो चुकें हैं सत्ता में बने हुए.
ज़ाहिर सी बात है मुस्लिम वोट मिलते हैं इनको. और मुसलमान इन्हें भी पसंद करते हैं. लेकिन मुस्लिम महिलाएँ विधानसभा तक लाने में असफल दिखायी पढ़ते हैं .कहें तो फोकस नहीं किया गया और कहीं कोई शक्तिशाली मुस्लिम महिला चेहरा इनकी पार्टी का प्रतिनिधित्व करती दिखती नहीं हैं.कई बार नीतीश जी ने अपने भाषण में कहा है कि महिलाएं इन्हें बहुत ज़्यादा वोट देती हैं, वोट तो मुस्लिम महिलाओं से भी भर-भर के लिए जाते हैं. लेकिन क्या बना वह आज भी शून्य पर है.
जहाँ तक देखा जाए, इन सालो में बिहार की मुस्लिमलड़कियां सफलता हासिल कर न्यूज़ में बनी रही, मसलन 2024 में रघुनाथपुर प्रखंड के मियाताड़ी की रहने वाली सादिया परवीन ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल करते हुए पायलट बन गईं.
वह सिवान जिले की पहली मुस्लिम महिला पायलट बनीं हैं. बीएससी रिजल्ट 2021 के मुताबिक, रजिया सुल्तान समेत कुल 40 उम्मीदवारों का डीएसपी पद के लिए चयन हुआ था. जिसमें एक नाम रजिया सुल्तान का भी शामिल था.
गोपालगंज जिले के रतन चौक, हथुआ की रहने वाली रजिया सुल्तान ने बीएससी परीक्षा के माध्यम से डीएसपी बनने वाली पहली मुस्लिम महिला है.बिहार की पहली मुस्लिम महिला आईपीएस अधिकारी गुंचा सनोवर ने अपने दूसरे प्रयास में सफलता प्राप्त की. वह पटना के सिटी एसपी के तौर पर अपनी सेवाएं दे चुकी हैं और 2015 में दरभंगा से डीआईजी के पद से रिटायर हुईं.
राजपत्रित अधिकारी बनने जा रहीं सबीहा सदफ एक और उदाहरण हैं मुस्लिम महिलाओं की सफलता का.
बीपीएससी की 64वीं परीक्षा में सफल होने वाली मुस्लिम उम्मीदवारों में शमा बानो का नाम भी शामिल है.सीमा खातून और मासूमा खातून ये दोनों भी बीपीएससी की 64वीं परीक्षा में सफल हुईं और मुस्लिम महिलाओं की सफलता की कहानी को बयां करती हैं.
वही कला और संस्कृति से जुड़ी लड़कियां आदाब, अदीबा, फ़िदा, हुदा हैं.मुजफ्फरपुर की युवा शतरंज खिलाड़ी मरियम फातिमा ने इतिहास रच दिया है. इंटरनेशनल चेस फेडरेशन (FIDE) ने उन्हें वीमेंस इंटरनेशनल मास्टर नॉर्म प्रदान किया है और उनकी रेटिंग 2100 तक पहुंच गई है. इस उपलब्धि के साथ वे बिहार की पहली महिला खिलाड़ी बन गई हैं जिन्हें यह सम्मान मिला. यानी शतरंज वाली दिमाग भी रखती हैं. राजनीति की शतरंज की बिसात से कम है क्या?
सूची बहुत लंबी निकलि जा सकती है. कुछ सालो में बिहार की मुस्लिम लड़कियों ने अपने प्रतिभा का शानदार कारनामा दिखाया, इतना तय है पिछड़े होने का लेवल नहीं लग सका, फिर मामला वही आ खड़ा होता है प्रतिभा होने के कारण मुस्लिम महिला राजनीति पर ध्यान केन्द्रित क्यों नहीं किया जा रहा है, बिहार में सभी 243 सीटों पर अगले चुनाव विधानसभा अक्टूबर-नवंबर 2025 में होने की संभावना है.
उम्मीद नहीं जतलाई जा सकती बहुत बड़ा बदलाव हो सकता है. मुस्लिम महिलाएं इस बार भी सिर्फ वोटर बनकर रह जाएंगी, या कभी इनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व होगा. यह आने वाला समय तय करेगा. बिहार की राजनीति में सक्रिय होने के लिए पूर्ण भागीदारी एवं दिशा और दशा खुद तय करना होगा बिहार की मुस्लिम महिलाओं को.
सोशल मीडिया पर सक्रिय रूप से राजनीतिक विचार साझा करना, सामाजिक मुद्दे अपना खुलकर विचार रखना, राजनीति में रुचि बढ़ाना, राजनीतिक मंच का चयन, पंचायत चुनाव, एमसीडी, वार्ड कमिश्नर जैसे चुनावो में सक्रिय भागीदारी से लेकर विधानसभा और लोकसभा पहुँचने के लिए रोडमैप तैयार करना और उसके लिए निरंतर प्रयास ही शून्य से सफलता की राजनीतिक कुंजी खोल सकते हैं.
लेख: डॉ. रेशमा रहमान, सहायक प्रोफेसर और शोधकर्ता, USTM