मलिक असगर हाशमी
‘दिवाने इतने जमा हुए कि शहर बन गया.’ जश्न-ए-रेख्ता के संस्थापक संवीज श्राफ ने अपने उद्घाटन भाषण में जब यह शेर पढ़ा तो वहां मौजूद हजारों श्रोताओं को एहसास हो गया कि उर्दू अदब-उत्सव के पहले दिन ही उन्हें सफाई क्यों देनी पड़ रही है ?
दरअसल, यहां पहुंचते ही आपको एहसास होगा कि जश्न-ए-रेख्ता अपने जिस रंग और माहौल के लिए जाना जाता है, इस बार मिसिंग है. प्रवेश द्वार को पार करते ही रंगीनियत की जगह उदास और सादापन का अहसास होगा. एक और अहसास. उर्दू की महफिल में ही उर्दू को भाव नहीं मिल रहा.
जश्न-ए-रेख्ता का यह आठवां संस्करण मशहूर शायर मीर तक़ी मीर के 300 वें जन्मदिन को समर्पित है. इसका अनुभव कराने के लिए समारोह स्थल के पूरे रास्ते में उंचे-उंचे खंबों पर मीर तकी मीर के शेर सफेद कपड़े पर काले इंक से छपवा कर लगाए गए हैं.
यहां तक कि सेल्फी प्वाइंट भी मीर को समर्पित है. पर उर्दू के इस शायर का एक भी शेर उर्दू में कहीं नहीं दिखा. सभी देवनागरी में. पिछली बार सेल्फी प्वाइंट मिर्जा गालिब को समर्पित था. इस बार मीर तक़ी मीर को इसका प्रतीक बनाया गया है. यहां मीर का नाम उर्दू में अंग्रेजी और हिंदी में है. सेल्फी प्वाइंट भी इतना बड़ा है कि एक फ्रेम में पूरा नहीं आ सकता.
अब से पहले जश्न-ए-रेख्ता में समारोह स्थल पर प्रवेश के लिए पैसे देने नहीं पड़ते थे. इस बार तीन सौ से हजार रुपये वसूले जा रहे हैं. यही नहीं मेन पंडाल में यदि किसी शायर या फिल्मी अदाकारा या अदाकारा को करीब से सुनना हो तो बदले में हजारों रुपये देकर गोल्ड टिकट खरीदना होगा.
इसके बावजूद यह गारंटी नहीं कि कुर्सी पर बैठने के लिए आपको जगह मिल ही जाए. एंट्री पर टिकट लगाने का असर इस बार यह दिखा कि माहौल में खुशी और उत्साह भरा शोर-गुल नहीं है. हालांकि इसका एहसास जश्न-ए-रेख्ता के संस्थापक संजीव श्राप को भी है, इसलिए उन्हें मंच से शेर पढ़कर कर सफाई देनी पड़ी कि उन्हें श्रोताओं ने ही सुझाव दिया है कि अत्याधिक भीड़ आ जाती है कि ‘जबर लगे’, इसलिए टिकट लगा दीजिए.
हालांकि संजीव श्राप से कोई पूछे कि यदि वह हर काम श्रोताओं और उर्दू के शैदाइयों से पूछकर करते हैं, तो इस बार का थीम उन्होंने किससे पूछकर रखा है ? जश्न-ए-रेख्ता जितना इल्म ओ अदब के लिए पहचान रखता है उतना ही अपने दिल-फरेब माहौल के लिए भी.
पिछले साल कार्यक्रम स्थल को चंपई, गुलाबी, पीले,लाल, हरे, नीले रंगों से सजाया गया था. यहां तक कि हर झालर, पताका इसी रंग में सराबोर थे. पिछले साल ही क्यों इससे पहले के तमाम साल कार्यक्रम स्थल पर खुश रंग बिखरे होते थे.
इस बार रंग दिया गया है सफेद, सुरमई और आकाश के रंग के मिश्रण को. कार्यक्रम स्थल पर पहुंचते ही मन पर उदासी सी छा जाती है. आपको स्टॉल भी इस बार कम मिलेंगे. कार्यक्रम परिसर बेहद खुला-खुला सा है. मुख्य मंच को छोड़कर सारे मंच बेहद छोटे-छोटे बनाए गए हैं.
इनके आगे लगी कुर्सियों की संख्या भी कम दिखी. एक मंच मुख्य प्रवेश द्वार के ठीक बाईं ओर और एक अन्य मंच पिछली बार के गालिब के सेल्फी प्वाइंट के ठीक पीछे बनाई गई है. दोनों ही मंच के आकार-प्रकार को देखकर अंदाजा होता है कि आयोजकों ने उर्दू के दिवानी से पैसे लेकर आयोजन में ‘कंजूसी’ दिखा दी.
यहां तक कि झंडी-पताका, झालरों की संख्या भी कम है. पिछली बार इससे परिसर के तमाम पेड़ लदे मिले थे, पर इस बार इक्का-दुक्का नजर आ रहे हैं. फूड कोर्ट में भी पहले जैसी रौनक नहीं. पिछली बार विभिन्न स्टाॅल पर खरीदारांे की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए एटीएम टाइप का काॅर्ड इशू किया गया था.
इस बार यह व्यवस्था नहीं है. इसकी वजह से फूड कोर्ट के जिस स्टाल पर अधिक बिक्री हो रही है, वहां ग्राहक कतार में नजर आए. इन स्टॉल पर पहुंचकर महंगाई का भी एहसास होता है. एक चाय 80 रुपये की. आयोजन में पहले दिन अव्यवस्था भी दिखी. उद्घाटन में ही माइक खराब हो गया. तब उद्घाटन कार्यक्रम के मुख्य अतिथि जावेद अख्तर को कहना पड़ा-‘‘यह हमारी बेजुबानी का एहसास करा रहा है.’’