भारतीय शिया विरासत और ईरानी क्रांति: एक भूली-बिसरी कड़ी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 25-06-2025
Indian Shia heritage and the Iranian revolution: A forgotten link
Indian Shia heritage and the Iranian revolution: A forgotten link

 

jkसईद नक़वी

सोशल मीडिया पर इन दिनों एक असंभव-सी कहानी घूम रही है, जिसकी जड़ें 1979में उस असाधारण पहल में हैं, जो भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनके विदेश सचिव जगत मेहता ने उस समय की थी, जब ईरान में शाह की सत्ता का पतन हुआ और अयातुल्लाह खुमैनी सत्ता में आए, जिससे नई दिल्ली और तेहरान के रिश्ते अचानक ठंडे पड़ गए.

अयातुल्लाह रुहुल्लाह खुमैनी, जो इस्लामी क्रांति के पहले सर्वोच्च नेता थे.वर्षों तक इराक के नजफ में और अंतिम समय में पेरिस के बाहरी इलाके न्यूफले ले शातो में निर्वासन में समय बिताया.यह सामान्यतः ज्ञात नहीं है कि लखनऊ और उसके आसपास के क़स्बे 18 वीं सदी के मध्य से शिया शिक्षा के केंद्र रहे हैं.

यह वही समय था जब नवाब सआदत अली खान, जो अवध के पहले नवाब थे, ने फ़ैज़ाबाद में शिया सल्तनत की स्थापना की थी.बाद में राजधानी को लखनऊ ले आए.नवाब सआदत अली खान अपने पूर्वजों को ईरान के निशापुर, जो मशहद में स्थित आठवें इमाम इमाम रज़ा के मजार के दक्षिण में है, से जोड़ते थे.

अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह सांस्कृतिक समन्वय के बड़े पैरोकार थे.उन्होंने स्वयं नृत्य-नाटक में राधा की भूमिका निभाई थी, जबकि कथक गुरु पंडित बिंदादीन, जो कि स्वर्गीय बिरजू महाराज के परदादा थे, ने कृष्ण की भूमिका निभाई थी.

अवध के नवाबों के शासनकाल में गंगा-जमुनी तहज़ीब खूब फली-फूली.संगीत, नृत्य और रंगमंच के साथ-साथ शिया धर्मशास्त्र के अध्ययन के केंद्र भी लखनऊ और उसके आस-पास, विशेषकर बाराबंकी जिले के किन्तूर, में स्थापित हुए.

जब ईरान में अयातुल्लाह सत्ता में आए, तब एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा हुआ: चूंकि लखनऊ एक समय शिया धर्मशास्त्र का प्रमुख केंद्र रहा है, क्या तेहरान में नई सत्ता से उसका कोई ऐतिहासिक या धार्मिक संबंध हो सकता है?

सद्दाम हुसैन के शासन के समय तक एक “छह लाख रुपये” की वसीयत अवध के नवाबों की ओर से नजफ और कर्बला के शिया दरगाहों के रख-रखाव के लिए जारी रहती थी.भारत के तत्कालीन बगदाद में प्रभारी राजनयिक राजेंद्र अभ्यंकर इस खाते से नजफ और कर्बला में भारतीय छात्रों को वजीफा देने वाले अंतिम व्यक्ति थे.

शाह के पतन के बाद, अटल बिहारी वाजपेयी और जगत मेहता ने मुझसे पूछा:"क्या लखनऊ और तेहरान की नई सत्ता के बीच कोई संबंध हो सकता है?"तलाश करने पर पता चला कि कुछ संबंध वाकई थे.लखनऊ के कुछ मौलवी नजफ में खुमैनी से और फिर पेरिस के पास उनसे मिले थे.वास्तव में, खुमैनी के पूर्वजों में कई विद्वान मौलवी किन्तूर से थे.इन्हीं में एक कम ज्ञात मौलवी आग़ा रूही अबक़ाती भी थे, जो खुमैनी से रिश्तेदारी रखते थे.

अबक़ाती को केंद्र बिंदु बनाते हुए जगत मेहता ने एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल की योजना बनाई.समाजवादी नेता अशोक मेहता इसके प्रमुख बनाए गए.बदरुद्दीन तैयबजी को उनके भाषाई कौशल के कारण चुना गया.अबक़ाती इस दल के मार्गदर्शक थे.

तेहरान स्थित भारतीय दूतावास को सूचित कर दिया गया.खुमैनी का कार्यालय, जो तेहरान के बाहर जमारान में था, प्रतिनिधिमंडल को मिलने को तैयार था.लेकिन, मुलाकात तय होने और प्रतिनिधिमंडल के आगमन के बीच कुछ अप्रत्याशित हो गया.

राजदूत आहूजा उस समय तेहरान में नहीं थे.अतः कुलदीप सहदेव को यह ऐतिहासिक प्रतिनिधिमंडल खुमैनी के पास ले जाना पड़ा.जो अनुभव वहां भारतीय दल ने प्राप्त किया वह अविस्मरणीय था.तेहरान में जो सत्ता उभरी थी, उसका विश्व में कोई समानांतर केवल वेटिकन में ही मिल सकता था, जहां पोप का पूर्ण आधिपत्य होता है.

प्रतिनिधिमंडल उस कक्ष में पहुंचा जहां खुमैनी कुछ दूरी पर बैठे थे.एक हल्के इशारे से खुमैनी ने दल को प्रवेश द्वार के पास रुकने का संकेत दिया.फिर उन्होंने एक काले पगड़ी और चोगा पहने सहायक से अबक़ाती को पास बुलवाया.

अबक़ाती को शायद यह उम्मीद थी कि ईरानी क्रांति के नेता उन्हें एक खोए हुए रिश्तेदार की तरह गले लगाएंगे.लेकिन जो हुआ वह चौंकाने वाला था.खुमैनी ने उन्हें तीखी डांट पिलाई.वे पूरी तरह नाराज़ थे.पूरी बैठक में गहरा सन्नाटा छा गया.प्रतिनिधिमंडल चुपचाप पीछे-पीछे चलते हुए बाहर की ओर लौट गया.तेहरान में सभी अन्य बैठकें रद्द कर दी गईं.वे तुरंत चुपचाप दिल्ली लौट आए.इस अप्रत्याशित कूटनीतिक झटके से स्तब्ध.

बाद में क़ुम में आयतुल्लाह ने मुझे बताया कि अबक़ाती की पहल असफल क्यों हुई."यह क्रांति बहुत नाज़ुक अवस्था में है और दुश्मन हर ओर हैं." यदि यह प्रचारित हो जाता कि इस्लामी क्रांति के नेता की “विदेशी जड़ें” हैं, तो यह क्रांति के दुश्मनों को हथियार मिल जाता.

अबक़ाती इस आधार पर प्रतिनिधिमंडल के साथ थे कि उनका संबंध किन्तूर के प्रतिष्ठित मौलवियों से है और वह खुमैनी के वंशज हैं.यह बात शायद सच थी, लेकिन उस समय इस सच्चाई का प्रचार क्रांति के रक्षकों के लिए अस्वीकार्य था.

यह क्रांति के शुरुआती दौर की बात है.इसी संदर्भ में कुछ असाधारण घटित हुआ, जब ईरान के लोकप्रिय राजदूत ग़ुलामरेज़ा अंसारी ने एक स्वागत समारोह में अपनी बात रखी.अपने भाषण में उन्होंने भारत और ईरान के बीच सभ्यतागत रिश्तों पर विस्तार से बात की.

उन्होंने कहा:“इस्लामी क्रांति के नेता, अयातुल्लाह खुमैनी की जड़ें भी भारत से जुड़ी हैं.”यह बात उन्होंने दिल्ली के लीला होटल में खचाखच भरे सभागार में कही.राजदूत अंसारी को लगा कि क्रांति के शुरुआती संकोच अब बीते ज़माने की बात हो गई है और तेहरान में सत्ता अब पूरी तरह स्थिर है.

भारत और ईरान जैसे दो सभ्यतागत राष्ट्रों के बीच सांस्कृतिक संबंध हमेशा मुझे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की शिराज़ में हाफ़िज़ की मजार पर हुई यात्रा की याद दिलाते हैं.मजार के बगल में एक छोटी सी लाइब्रेरी है.उस लाइब्रेरी की छज्जे पर एक अनोखी तस्वीर लगी है.

इस तस्वीर में दिखाई देता है कि जब रवींद्रनाथ टैगोर ईरान गए, तो उन्होंने विशेष रूप से हाफ़िज़ की मजार पर जाने का प्रबंध किया.वहां वह "फाल" निकालते दिख रहे हैं.यह एक परंपरा है जिसमें किसी पवित्र ग्रंथ या संत-कवि की किताब का कोई भी पृष्ठ खोला जाता है.पहली पंक्ति को संकेत के रूप में देखा जाता है.यह आस्था का नहीं बल्कि काव्यिक सौंदर्य का मामला है — बातचीत की शुरुआत करने का एक बहाना.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )