देस-परदेस : पश्चिम-एशिया की पहेली कब तक उलझी रहेगी?

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 24-06-2025
Country and abroad: How long will the West Asia puzzle remain unsolved?
Country and abroad: How long will the West Asia puzzle remain unsolved?

 

joप्रमोद जोशी

ईरान पर अमेरिकी हमले को लेकर कोई राय बनाने के पहले यह समझना ज़रूरी है कि इस हमले का लक्ष्य क्या था, और वह पूरा हुआ या नहीं? अब  आगे का रास्ता क्या है? क्या यह तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत है? और क्या अमेरिका इस लड़ाई के विस्तार को झेलने के लिए तैयार है?

हालाँकि ट्रंप ने कहा है कि ईरान के परमाणु ठिकानों को ‘तबाह’ कर दिया गया है, पर इस बयान को पूरी तरह मान लेने की भी कोई वजह नहीं है. यह प्रचारात्मक बयान है. अमेरिका के रक्षा-सूत्र बता रहे हैं कि यह कहना जल्दबाजी होगी कि ईरान के पास अब परमाणु हथियार बनाने की क्षमता है या नहीं.

इन बातों के जवाब देने की कोशिश करते समय राजनीतिक बयानों से उन तत्वों को अलग करने की ज़रूरत भी है, जिनका उद्देश्य भ्रम फैलाना या वास्तविकता पर पर्दा डालना होता है.

न्यूयॉर्क टाइम्स के एक विश्लेषण के अनुसार, डॉनल्ड ट्रंप ने अपने प्रशासन के शुरुआती महीनों में इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू को ईरान पर हमले के खिलाफ चेतावनी दी थी, लेकिन 13 जून की सुबह तक, पहले इसराइली हमले के कुछ घंटों बाद, उन्होंने अपना सुर बदल दिया. इस बदलाव की गूढ़ बातों को समझने में कुछ देर लगेगी.

इस हमले के कारण पहाड़ की गहराई में स्थित संवर्धन स्थल फ़ोर्दो तथा दो अन्य ईरानी परमाणु स्थलों पर अमेरिकी हमले से ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह तबाह तो नहीं होगा, लेकिन ईरान युद्ध को और व्यापक बना सकता है या कार्यक्रम में तेजी ला सकता है.

7

अमेरिकी इरादा

अमेरिका की मनोकामना ईरान की नाभिकीय क्षमता को खत्म करने की है, या उसके आला-नेतृत्व को समाप्त करने की? इसराइल के वर्चस्व को स्थापित करने की या पश्चिम एशिया के आर्थिक-समीकरणों को नई शक्ल देने की? या इन सबको जोड़कर देखना होगा?

सवाल यह भी है कि ईरान के पीछे, अमेरिका और इसराइल क्यों पड़े हैं? झगड़ा किस बात का है? ईरान दबने या घबराने के बजाय, क्या इस लड़ाई को आगे ले जाएगा? उसके पास क्या लंबी लड़ाई की सामर्थ्य है?

अरब देशों और ईरान के नज़रियों में फर्क क्या है? ऐसा भी नहीं कि अरब देश पूरी तरह अमेरिका-परस्त हैं. उनके रूस, चीन और अमेरिका से भी रिश्ते हैं. ऐसा ईरान के साथ क्यों नहीं है? दूसरे शब्दों में पूछें कि अमेरिकी दादागीरी को अरब देशों ने स्वीकार कर लिया है, ईरान ने क्यों नहीं?

बैकरूम बातें

इन बातों के जवाब औपचारिक बयानों में नहीं, बैकरूम बातचीत में मिलेंगे. पर ये बातें एकदम से सामने नहीं आएँगी. पश्चिम एशिया के मंच पर चीन और रूस को हम नहीं देख पा रहे हैं, क्योंकि वे इसमें सीधे भागीदार नहीं हैं, पर वे नेपथ्य में उनकी उपस्थिति की अनदेखी नहीं की जा सकती हैं.

पश्चिमी देशों के बनते-बिगड़ते गठबंधन की भी इस इलाके में भूमिका है. इतना स्पष्ट है कि इस टकराव को रोक पाने में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय से लेकर संरा सुरक्षा परिषद तक सब नाकाम हुए हैं. हम इस मामले में भारत को कहाँ खड़ा पाते हैं? हमें क्या करना चाहिए और क्या हम वह कर पा रहे हैं?

r

धार्मिक सत्ता

इन हमलों के ईरान में अप्रत्याशित परिणाम होंगे या नहीं यह भी देखना है. देश की धार्मिक-सत्ता ने, जिसने 1979की इस्लामी क्रांति के बाद से लगभग आधी सदी तक शासन किया है, ने कई घरेलू विद्रोहों के बावजूद अपनी स्थिरता साबित की है. आर्थिक प्रतिबंधों और तीव्र अमेरिकी दबाव के बावजूद उसने अपनी जीवनी-शक्ति को साबित किया है.

13 जून को अचानक इसराइली हमला होने के पहले ईरान और अमेरिका ईरान के परमाणु कार्यक्रम की सीमाओं पर चर्चा कर रहे थे. ईरान परमाणु हथियारों के लिए आवश्यक स्तर के करीब ईंधन का उत्पादन तेजी से कर रहा था. इस वार्ता के तहत ईरान के नाभिकीय-कार्यक्रम पर नई सीमाओं के बदले में, उसे आर्थिक प्रतिबंधों से राहत मिलती.

समझौते की राह

हालांकि दोनों पक्ष किसी अंतिम समझौते के करीब नहीं थे, लेकिन जून की शुरुआत में संभावित समझौते के संकेत भी सामने आए थे. जब इसराइल ने ईरान पर हमला किया, तो वार्ता विफल हो गई. फिर भी, ईरान ने संकेत दिया है कि वह बातचीत करने के लिए तैयार है. अब भी लगता है कि अमेरिकी हमला भी जरूरी नहीं कि दोनों पक्षों के बातचीत की मेज पर लौटने की संभावनाओं को खत्म कर दे.

विश्लेषकों का कहना है कि अमेरिकी और इसराइली हवाई हमलों से परमाणु सुविधाओं को जो नुकसान पहुँचा है और शीर्ष परमाणु वैज्ञानिकों की हत्या हुई है, उसके कारण ईरान में शायद परमाणु हथियार बनाने की क्षमता नहीं है. फिर भी, वह उस दिशा में आगे बढ़ सकता है और ऐसा करने के लिए उसे बाहर से मदद भी मिल सकती है.

सभी की निगाहें फ़ोर्दो पर टिकी हैं. लेकिन यह संभव है कि ईरान के पास गुप्त परमाणु स्थल हों, जिनका अमेरिका और इसराइल को पता न हो, हालांकि ऐसे स्थानों के बारे में कोई सार्वजनिक सबूत सामने नहीं आया है. यदि वे हैं, तो ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को गति देने के लिए अपने पास बचे हुए संसाधनों का उपयोग कर सकता है.

tr

ईरानी परहेज़

हालाँकि ईरान ने अभी तक इसराइली हमलों का जवाब मिसाइल-प्रहारों से दिया है, लेकिन उसने पश्चिम एशिया में अमेरिकी सैनिकों या ठिकानों पर हमला करने से परहेज़ किया है. उसने सऊदी अरब या संयुक्त अरब अमीरात जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका के सहयोगी अरब देशों पर भी हमला नहीं किया है.

दक्षिण में एक महत्वपूर्ण तेल शिपिंग चैनल, होर्मुज जलडमरूमध्य को बंद करके या उसमें यातायात को बाधित करके ईरान ने वैश्विक तेल की कीमतों में तेजी जरूर पैदा कर दी है, जो अब अमेरिकी हमले के बाद और ऊँची जाएगी.

हमले के पहले शुक्रवार को ईरानी विदेशमंत्री अब्बास अराग़ची ने कहा कि अगर अमेरिका ईरान पर हमला करेगा, तो देश को जवाबी कार्रवाई करने का अधिकार है, जैसा कि उसने इसराइल के खिलाफ किया है.

इस क्षेत्र में ईरान के सहयोगी मिलीशिया, जिनमें यमन में हूती, लेबनान में हिज़बुल्ला और इराक के सशस्त्र समूह, लड़ाई में शामिल नहीं हुए हैं. पिछले दो साल में उनमें से कई गंभीर रूप से कमज़ोर हो गए हैं, फिर भी वे ईरानी सहयोगी लड़ाई में शामिल हो सकते हैं.

शासन परिवर्तन की चर्चा

यदि ईरान के सर्वोच्च नेता की हत्या भी कर दी जाए, तो भी धार्मिक-सैन्य प्रतिष्ठान, जिसने लगभग पाँच दशकों से ईरान की सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत रखी है, शायद नहीं गिरेगा. ईरानी सेना की सबसे शक्तिशाली शाखा इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर देश पर नियंत्रण कर सकती है. वे पश्चिमी देशों के अनुकूल सरकार बना सकते हैं.

संभावना यह भी है कि आयतुल्ला अली खामनेई की जगह कोई और ज़्यादा चरमपंथी व्यक्ति देश का नेतृत्व करके लंबी लड़ाई का आधार तैयार करे. ऐसी लड़ाई के लिए भी बाहरी सहायता चाहिए. चीन और रूस उसके साथ हैं, पर वे लंबी कट्टरपंथी लड़ाई में साथ नहीं दे पाएँगे. उनकी दिलचस्पी भी कारोबार और व्यापार में है.

ईरानी सेना जल्दी से खुद को मजबूत नहीं करेगी, तो कुछ विश्लेषकों को डर है कि ईरान अराजकता या गृहयुद्ध में फँस जाएगा, क्योंकि विभिन्न गुट नियंत्रण के लिए संघर्ष करेंगे. वहीं ईरान के उदार विपक्ष के मजबूत होने की  संभावना बहुत कम है, जिसे शासन ने दबाकर बेहद कमजोर कर दिया है.

r

ट्रिगर पॉइंट

पश्चिम एशिया के वर्तमान टकराव के पीछे पिछले 75से ज्यादा वर्षों का घटनाक्रम है, पर, मौज़ूदा टकराव का ट्रिगर पॉइंट 7अक्तूबर 2023को हुआ हमास का हमला है. उस वक्त यह सवाल भी उठा था कि अचानक यह हमला क्यों हुआ.

हमास के हमले के ठीक पहले लग रहा था कि सऊदी अरब और इसराइल के बीच कोई मैत्री समझौता होने वाला है. उसकी पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी, जिसकी शुरुआत 2020के अब्राहम समझौते से हो गई थी.

अब्राहम समझौता, अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात और इसराइल के बीच हुआ था. इसमें बाद में सूडान, बहरीन और मोरक्को भी शामिल हो गए थे. इस समझौते ने इसराइल और अरब देश के बीच संबंधों के सामान्यीकरण का रास्ता खोला था. अक्तूबर 2023में हमास के हमले के पहले लग रहा था कि सऊदी अरब और इसराइल के बीच राजनयिक संबंध स्थापित हो जाएँगे.

w

पश्चिम एशिया कॉरिडोर

इन संभावनाओं के समांतर सितंबर 2023में दिल्ली में हुए जी-20शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की कि शीघ्र ही भारत से पश्चिम एशिया के रास्ते से होते हुए यूरोप तक एक कनेक्टिविटी कॉरिडोर के निर्माण का कार्य शुरू होगा. इस परियोजना में शिपिंग कॉरिडोर से लेकर रेल लाइनों तक का निर्माण किया जाएगा.

इस परियोजना में दो कॉरिडोर बनने हैं. एक पूर्वी कॉरिडोर, जो भारत से जोड़ेगा और दूसरा उत्तरी (या पश्चिमी) कॉरिडोर, जो यूरोप तक जाएगा. पश्चिम एशिया में इंफ्रास्ट्रक्चर विकास इस परियोजना का हिस्सा नहीं जरूर नहीं है, पर चीन की दिलचस्पी भी इस इलाके में है. एक तरह से यह चीन के ‘बीआरआई’ और पश्चिम के ‘बी3डब्लू (बिल्ड बैक बैटर वर्ल्ड)’ के बीच प्रतियोगिता का हिस्सा भी था. 

ईरान की दिलचस्पी

ईरान इस वक्त इसराइल के खिलाफ है, जबकि 1979की क्रांति से पहले वह इसराइल के साथ हुआ करता था. तब वहाँ अमेरिका-परस्त शाह रज़ा पहलवी का शासन हुआ करता था.1979 की ईरानी क्रांति ने हजारों साल पुरानी राजशाही को खत्म किया था, जिसके बाद यहाँ एक लोकतांत्रिक गणराज्य का जन्म हुआ. ईरान के अंतिम बादशाह शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी अमेरिका और इसराइल के करीबी सहयोगी थे.

तख्त पर उनकी वापसी भी अमेरिका और ब्रिटेन की मदद से हुई थी, जिन्होंने 1953में ईरान के लोकतांत्रिक पद्धति से चुने गए प्रधानमंत्री मुहम्मद मुसद्देक़ का तख्ता-पलट कराया था. इस क्रिया की प्रतिक्रिया होनी थी. जनता के मन में विरोध ने जन्म ले लिया था.

परिणाम यह हुआ कि ईरान में इस्लामिक-क्रांति ने जन्म लिया, जिसके कारण 1979में आयतुल्ला खुमैनी की वापसी हुई. शाह के खिलाफ उस क्रांति में वामपंथियों का एक तबका भी उनके साथ था, पर आयतुल्ला खुमैनी के शासन ने उनका क्रूर दमन कर दिया.

5

इसराइल-विरोधी लड़ाई

इसराइल के विरुद्ध लड़ाई का नेतृत्व अरब देशों के हाथ से हटकर ईरान के हाथ में क्यों आ गया है? अरब देशों की दिलचस्पी क्या अब फलस्तीन समस्या के समाधान में नहीं है?ओस्लो समझौते ने समाधान की दिशा में कदम बढ़ाए थे, पर फलस्तीनी समूहों के बीच भी एकता नहीं है.

इसराइल के अस्तित्व को लेकर भी सब एक राय के नहीं हैं. इसमें इसराइल-विरोधी कट्टरपंथी तबका अब ईरान के साथ है. उसके साथ हमास, हिज़्बुल्ला, हूती और हशद अल-शबी जैसे संगठन हैं, जिन्हें ईरान का प्रॉक्सी माना जाता है.

इनके अलावा कुछ छोटे संगठन भी हैं. पिछले डेढ़-पौने दो साल में इन संगठनों की ताकत में काफी ह्रास हुआ है. सीरिया का रुख अब बदल चुका है. ऐसे में इसराइल चाहता है कि ईरान पर निर्णायक चोट का यही सही मौका है. पर क्या यह सही सोच है?

(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)


ALSO READ  कोई बड़ा मोड़ ही रोक पाएगा ईरान-इसराइल टकराव