ईरान में एक भारतीय क्रांतिकारी: पांडुरंग सदाशिव खांखोजे

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 22-06-2025
An Indian Revolutionary in Iran: Pandurang Sadashiv Khankhoje
An Indian Revolutionary in Iran: Pandurang Sadashiv Khankhoje

 

sakib- साक़िब सलीम

“मेरा इतिहास बहुत लंबा है, लेकिन कॉन्स्टैंटिनोपल से मैंने तुर्की सरकार से यह व्यवस्था की थी कि ग़दर सैनिकों को बसरा में उतरने की अनुमति दी जाए. इसके बाद कांशीराम, बरकतुल्ला और कई अन्य ग़दर साथी भारत या यूरोप आए. बाद में सूफ़ी अंबा प्रसाद और कई अन्य ग़दर साथी हमारे साथ जुड़े. बरकतुल्ला और महेन्द्र प्रताप अफगानिस्तान गए, लेकिन अफगानों ने उनके साथ युद्ध में भाग नहीं लिया. हम भारत की बलूचिस्तान सीमा (ईरान) तक गए और वहाँ भारत में एक अस्थायी ग़दर सरकार की स्थापना की. हमने कई लड़ाइयाँ लड़ीं. हमारे कई साथी शहीद हुए. मैं घायल हुआ . हमने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए चार वर्षों तक कठिन संघर्ष किया. यह पूरा ग़दर इतिहास अज्ञात ही रह गया.”

यह शब्द हैं डॉ. पांडुरंग सदाशिव खांखोजे के, जो उन्होंने 1953 में भगवान सिंह ग्यानी को एक पत्र में लिखे थे.हरित क्रांति में एक प्रमुख वनस्पति वैज्ञानिक की भूमिका निभाने वाले डॉ. खांखोजे को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में लगभग भुला दिया गया है.

अमेरिका में ग़दर पार्टी के संस्थापकों में से एक और इसके सैन्य रणनीतिकार के रूप में उन्होंने पहले विश्व युद्ध के दौरान ईरान में ब्रिटिश सेना के खिलाफ एक सशस्त्र गुरिल्ला आंदोलन चलाया. उन्होंने वहाँ एक निर्वासित ग़दर सरकार भी स्थापित की थी.

ईरान में चला यह आंदोलन भारत से ब्रिटिश राज को सशस्त्र क्रांति के ज़रिए उखाड़ फेंकने की एक व्यापक योजना का हिस्सा था. इस योजना में बंगाली क्रांतिकारी, इस्लामी विद्वान, मराठी क्रांतिकारी और अन्य लोग शामिल थे, जिनका उद्देश्य ब्रिटिश भारतीय सेना के भारतीय सैनिकों में विद्रोह भड़काना था.

हालांकि यह योजना सीमित सफलता ही पा सकी, लेकिन इसने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित किया — खासकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फौज को.

1906 में 20 वर्षीय खांखोजे बाल गंगाधर तिलक की सलाह पर सैन्य प्रशिक्षण और कृषि शिक्षा के लिए जापान गए. वहाँ उन्होंने डॉ. सन यात सेन और काउंट ओकुमा से मुलाकात की और उनके अनुयायियों के साथ मिलकर क्रांतिकारी तकनीकें सीखीं.

1907 में वे अमेरिका चले गए. उनकी बेटी सावित्री सावनी लिखती हैं, “वहाँ उन्होंने तारकनाथ दास, खगन दास और सुरेन बोस जैसे छात्रों से मुलाकात की और मिलकर इंडिया इंडिपेंडेंस लीग (IIL) की एक शाखा बनाई.

उन्होंने माउंट टामालपैस मिलिट्री अकादमी, कैलिफोर्निया से सैन्य डिप्लोमा प्राप्त किया. वे ग़दर पार्टी की गुप्त सैन्य शाखा के प्रमुख बन गए. कई उपनामों का प्रयोग करते रहे. उनके लिए गुप्तता सर्वोपरि थी, जिसने शायद उन्हें ज़िंदा रहने में मदद की.”

1908 में उन्होंने “पीर ख़ान” के नाम से पोर्टलैंड में IIL की स्थापना की, जिसमें सोहन सिंह भकना अध्यक्ष और पंडित काशीराम कोषाध्यक्ष बनाए गए. 1914 में उन्होंने मोहम्मद ख़ान नाम से भारत लौटने की योजना बनाई, लेकिन परिस्थितियों ने उन्हें ईरान पहुंचा दिया.

कॉन्स्टैंटिनोपल से वे एक छोटी टुकड़ी के साथ ईरान के बुशेहर पहुँचे.इसमें ग़दरियों द्वारा भर्ती भारतीय युद्धबंदी, सैनिक, और स्थानीय क़बीलों के लोग शामिल थे. उन्होंने ब्रिटिश सेना से संघर्ष किया और शिराज़ पहुँचे. यहाँ सूफी अंबा प्रसाद के नेतृत्व में एक और क्रांतिकारी दल सक्रिय था.

खांखोजे, प्रमथनाथ दत्त (दाऊद अली ख़ान), अगाशे (मोहम्मद अली), खंधूभाई, कुमारजी नाइक (गुजराती), केदारनाथ, अमीन शर्मा, बसंत सिंह, चैत सिंह (पंजाबी), मिर्ज़ा अब्बास (हैदराबादी), ऋषिकेश लट्टा (गढ़वाली), केरसास्प (पारसी) आदि के साथ केर्मन पहुँचे.

वहाँ उन्होंने हसन ख़ान और सैयद हसन तक़ीज़ादे के साथ मिलकर “पर्शियन डेमोक्रेटिक पार्टी” का गठन किया. ब्रिटिश विरोधी आंदोलन शुरू किया..इन क्रांतिकारियों ने ईरान, इराक और आसपास के क्षेत्रों में ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिकों के बीच बगावत भड़काने के लिए पर्चे बाँटे.

उमा मुखर्जी अपनी पुस्तक “Two Great Indian Revolutionaries” में लिखती हैं, “इन पर्चों में एक अंग्रेज़ी, दो उर्दू, एक हिंदी और एक मराठी में था. अंग्रेज़ी पर्चा ‘Awake and Arise; O Princes and Peoples of India’ शीर्षक से था. इसका समापन सैनिकों से अंग्रेज़ अधिकारियों को मारने की अपील के साथ होता था. उर्दू पर्चों में एक पर दस उलमा के दस्तखत थे और वह सीधा जिहाद का आह्वान करता था.”

प्रमथनाथ को बलूचिस्तान और अफगान सीमा पर भेजा गया, जहाँ उन्हें गोली लगी। घायल प्रमथ और अगाशे केर्मन में रह गए और बाकी दल बम पहुँचा, जहाँ जहां ख़ान के नेतृत्व में ब्रिटिश नियंत्रण वाले भारत पर हमला किया गया. एक अस्थायी सरकार भी स्थापित हुई.

हालांकि, एक स्थानीय नेता ने ब्रिटिशों से मिलकर क्रांतिकारियों पर हमला कर दिया, जिसके बाद खांखोजे बम से बाफ़्त पहुँचे. वहाँ लड़ाई में घायल खांखोजे ब्रिटिश सेना द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए. मनमथनाथ गुप्त के अनुसार, खांखोजे फकीर का वेश धरकर नेयरीज़ भाग गए.

नेयरीज़ में उन्होंने क्रांतिकारी साथियों को मुक्त कराने के लिए ब्रिटिश चौकी पर हमला किया. सभी भारतीय, जर्मन और ईरानी बंदियों को छुड़ाया. इसके बाद उनका दल शिराज़ पहुँचा.

1916 में इस शहर को अपने कब्जे में लिया. फिर से ब्रिटिश सेना ने उन्हें हराया और इस बार वे इस्फहान भाग गए, जहाँ उन्होंने “हाजी आगा ख़ान” के नाम से गुरिल्ला युद्ध के लिए एक सैन्य प्रशिक्षण केंद्र शुरू किया.

बाद में वे ईरानी सेना में शामिल हो गए और 1919 तक ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ते रहे, जब तक कि ईरान पूरी तरह हार नहीं गया.युद्ध के बाद खांखोजे ने भूपेंद्रनाथ दत्त, लुहानी और विरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के साथ मिलकर व्लादिमीर लेनिन और बोल्शेविक सरकार से भारत की आज़ादी के समर्थन की कोशिश की. 

यह प्रयास असफल रहा. ब्रिटिश सीक्रेट सर्विस उनका पीछा कर रही थी. इसलिए वे सुरक्षा के लिए मेक्सिको चले गए.भारत लौटने पर उन्हें मौत की सज़ा या कालापानी का डर था. मेक्सिको में उन्होंने कृषि वैज्ञानिक के रूप में ख्याति प्राप्त की और ग़रीब किसानों के लिए कई निशुल्क स्कूल खोले, जिनकी सराहना आज भी होती है.

स्वतंत्रता के बाद उन्हें भारत सरकार द्वारा कृषि नीति समिति का प्रमुख बनने का आमंत्रण मिला. वे 1951 में भारत लौटे। लेकिन वे फिर मेक्सिको चले गए. अंततः 1956 में वे स्थायी रूप से नागपुर लौट आए और वहीं 1967 में उनका निधन हुआ.