किंशुक चटर्जी
13 जून की रात, इजरायल ने ईरान इस्लामी गणराज्य पर हवाई हमले शुरू किए, जिनका लक्ष्य वहां के परमाणु और सैन्य ठिकाने थे. इसका घोषित उद्देश्य ईरान की परमाणु हथियार प्राप्त करने की कोशिशों को विफल करना था — एक आरोप जिसे तेहरान खारिज करता है. अगले दिन ईरान ने पलटवार करते हुए मिसाइल हमले किए और अमेरिका के साथ दोहा में चल रही परमाणु कार्यक्रम पर छठे दौर की बातचीत को रद्द कर दिया.
पहले सप्ताह के अंत तक, वॉशिंगटन डीसी भी इस संघर्ष में सैन्य रूप से शामिल होने पर विचार कर रहा है, ताकि ईरान के परमाणु कार्यक्रम के जटिल सवाल का कोई सैन्य समाधान निकाला जा सके.
यदि ऐसा हुआ, तो यह संघर्ष एक बड़े क्षेत्रीय युद्ध में बदल सकता है, जिससे निकलने का रास्ता खोजना आसान नहीं होगा. ऐसे में क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के लिए यह आवश्यक है कि कोई मध्यस्थ इस संघर्ष से बाहर निकलने का रास्ता सुझाएं.
भारत इस तरह के संभावित मध्यस्थ के रूप में सामने आता है, लेकिन जब यह संघर्ष शुरू हुआ, तब नई दिल्ली असमंजस में थी. भारत उन कुछ देशों में से एक है जिनके ईरान और इजरायल — दोनों के साथ गहरे और सौहार्दपूर्ण संबंध हैं, और वह इनमें से किसी एक पक्ष का समर्थन नहीं करना चाहता.
इसीलिए संघर्ष के एक सप्ताह बाद भी नई दिल्ली ने संतुलन बनाए रखते हुए किसी पक्ष का समर्थन नहीं किया, बल्कि दोनों – तेल अवीव और तेहरान – से संपर्क कर उसे हिंसा से दूर रहने की अपील की. हालांकि भारत जैसे देश से, जो दोनों के साथ इतने अच्छे संबंध रखता है, यह प्रयास बहुत ही सीमित प्रतीत होता है.
अगर हम भारत और ईरान के पूर्व-आधुनिक संबंधों को भी अनदेखा कर दें, तो भी भारत 1913 से ही ईरानी तेल का प्रमुख बाजार रहा है. 1947 के बाद तीन दशकों तक ईरान भारत के लिए सबसे बड़े तेल आपूर्तिकर्ताओं में से एक रहा .
शीत युद्ध के समय ईरान अमेरिका का रणनीतिक साझेदार होने के बावजूद भारत के साथ उसके अच्छे संबंध बने रहे। 1979 की ईरानी क्रांति और ईरान-इराक युद्ध के दौरान थोड़े समय के लिए यह संबंध प्रभावित हुए, लेकिन बाद में दोनों देशों ने पुनः मित्रवत संबंध स्थापित कर लिए.
1990 के दशक में, जब सोवियत संघ के पतन के बाद अफगानिस्तान गृहयुद्ध की चपेट में था, भारत और ईरान दोनों ने पाकिस्तान-समर्थित इस्लामी उग्रवादियों (गुलबुद्दीन हिकमतयार और बाद में तालिबान) के विरुद्ध बुरहानुद्दीन रब्बानी और अहमद शाह मसूद के नेतृत्व वाले उत्तरी गठबंधन का समर्थन किया.
बीते दो दशकों में, ईरान भारत की मध्य एशिया और अफगानिस्तान नीति में एक अहम भूमिका निभाता रहा है — खासकर चाबहार बंदरगाह के जरिए भारत को पाकिस्तान को बायपास करते हुए एक वैकल्पिक परिवहन मार्ग प्रदान कर.
हालांकि 2010 के बाद ईरान के संदिग्ध परमाणु कार्यक्रम को लेकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण भारत को चाबहार परियोजना और ईरानी कच्चे तेल पर अपनी निर्भरता घटानी पड़ी, लेकिन भारत की रिफाइनरियों की संरचना ईरानी खाड़ी के उत्तरी हिस्से के कच्चे तेल के लिए अधिक अनुकूल रही है. ऐसे में भारत हमेशा ईरानी तेल आयात को फिर से शुरू करने को लेकर आशान्वित रहा है.
इसके विपरीत, भारत और इजरायल के संबंध 1990 के दशक में औपचारिक राजनयिक संबंधों की स्थापना के बाद शुरू हुए और तेजी से विकसित हुए — विशेष रूप से प्रौद्योगिकी और रक्षा क्षेत्र में.
आज इजराइल भारत का एक प्रमुख रक्षा आपूर्तिकर्ता है (जैसे हाल में भारत-पाक संघर्ष में निर्णायक भूमिका निभाने वाले ड्रोन), और 'वेस्टर्न क्वाड' या 'I2U2' (भारत, इजराइल, यूएई और अमेरिका) के ज़रिए हिंद महासागर क्षेत्र में रणनीतिक साझेदार बनने की कोशिश कर रहा है.
भारत की सबसे बड़ी कूटनीतिक खासियत यह रही है कि वह ईरान और इजरायल — दोनों के करीब रहते हुए भी किसी एक का पक्षधर नहीं बना. उदाहरण के लिए, भारत ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अपनी चिंता जाहिर की है और 2006 व 2009 में IAEA में ईरान के खिलाफ मतदान किया.
लेकिन 2022 और 11 जून 2025 को भारत ने ईरान के खिलाफ आलोचनाओं को सही नहीं मानते हुए मतदान से परहेज किया. भारत का मानना है कि ईरान को शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु ऊर्जा प्राप्त करने का पूरा अधिकार है.
इसी तरह, 7 अक्टूबर 2023 की घटना के बाद भारत ने हमास की आतंकवादी गतिविधियों की आलोचना की, लेकिन साथ ही ग़ज़ा के नागरिकों की स्थिति को लेकर भी चिंता जताई. ऐसे में तेहरान और तेल अवीव दोनों जानते हैं कि भारत उनके लिए एक विश्वसनीय मित्र है — जो जरूरत पड़ने पर असहमति जताने में भी नहीं हिचकिचाता.
ऐसे देश से, जो सभी पक्षों के साथ इतना अच्छा संबंध रखता है, मौजूदा स्थिति में अपेक्षा थी कि वह अधिक सक्रिय भूमिका निभाए। लेकिन क्या भारत वाकई निष्क्रिय है या पर्दे के पीछे कुछ और चल रहा है?
जब इजरायल और ईरान ने एक-दूसरे पर सैन्य हमले शुरू किए, भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर सबसे पहले उन नेताओं में थे जिन्होंने दोनों पक्षों से संयम बरतने की अपील की.
नई दिल्ली का इतिहास यह रहा है कि वह अपने पड़ोस में या अन्यत्र संघर्षों में पक्ष नहीं लेता, लेकिन कई बार ऐसे संघर्षों में एक निष्पक्ष तीसरा पक्ष मध्यस्थता करके समाधान की दिशा दिखाता है — जैसे अमेरिका, ईरान और सऊदी अरब ने भारत और पाकिस्तान के बीच हालिया संघर्ष को शांत करने में भूमिका निभाई थी.
ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर अमेरिका और ईरान के बीच जो वार्ताएं चल रही थीं, वे कतर द्वारा मध्यस्थता से संचालित हो रही थीं — जो कि खुद अमेरिका का सैन्य अड्डा होने के बावजूद तेहरान द्वारा भरोसेमंद माना जाता है.
ऐसे में अगर भारत इस संघर्ष में एक शांति-दूत की भूमिका निभाता है, तो हो सकता है कि तेहरान और तेल अवीव के लिए एक सम्मानजनक ‘एक्जिट रैंप’ तैयार हो जाए और अमेरिका भी बातचीत की मेज पर लौट आए.
इतिहास में कई बार तीसरे पक्ष द्वारा की गई गुप्त बातचीत ने बड़े-बड़े युद्धों को रोका है. मध्य पूर्व एक ऐसा क्षेत्र है जहां प्रतिद्वंद्विता और क्षेत्रीय विवाद इतने जटिल हैं कि कोई भी पूरी तरह निष्पक्ष मध्यस्थ मिलना कठिन है. लेकिन भारत को इस क्षेत्र में एक ऐसे देश के रूप में देखा जाता है जिसके कोई भू-क्षेत्रीय उद्देश्य नहीं हैं, और जो लगभग सभी पक्षों के साथ अच्छे संबंध रखता है.
भारत की स्थिति ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर दोनों पक्षों — ईरान की परमाणु हथियारों से दूरी और इजरायल की चिंता — के दृष्टिकोण से मेल खाती है. यह भारत को इस संघर्ष से बाहर निकलने का रास्ता दिखाने के लिए एक उपयुक्त मध्यस्थ बना सकता है — जैसे कि संघर्षविराम कराकर, अमेरिका और ईरान के बीच ठप पड़ी बातचीत को दोबारा शुरू करवाने में मदद कर.
हालांकि, ऐसा करने की खिड़की बहुत जल्दी बंद होती जा रही है. अगर अमेरिका सैन्य हस्तक्षेप का निर्णय लेता है, तो किसी भी राजनयिक समाधान की संभावना तत्काल समाप्त हो जाएगी, और यह क्षेत्र एक और विनाशकारी युद्ध की आग में झोंक दिया जाएगा.
(लेखक कोलकाता यूनिवर्सिटी के हिस्ट्री डिपार्टमेंट में प्रोफेसर हैं)