सीधी बातः भारत मेरा देश है और इस्लाम मेरा धर्म

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 14-06-2023
 भारत मेरा देश
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https://www.hindi.awazthevoice.in/upload/news/1686570176Saquib_Salim.jpgसाकिब सलीम

क्या मैं मुसलमान हूं? हाँ. क्या मैं एक भारतीय हूँ? हाँ. मैं, साकिब सलीम, एक भारतीय मुसलमान हूं और यही मेरी पहचान है. हाल के दिनों में मैंने लोगों को भारतीय और मुस्लिम की इन दो पहचानों के बीच इस झूठे द्वंद्ववाद पर बहस करते हुए देखा है. मुझे नहीं पता कि वे समाजों, संस्कृतियों और राष्ट्रों के बारे में क्या जानते हैं. भारतीय मुसलमान भी, अरबी मुसलमानों, तुर्क मुसलमानों, मोरक्कन मुसलमानों, फ्रांसीसी मुसलमानों या किसी भी अन्य जतीयता @ राष्ट्रीयता के रूप में स्वाभाविक हैं, जिन्होंने इस्लाम को धर्म के रूप में स्वीकार किया है.

जब तक मैंने कॉलेज में प्रवेश नहीं किया था, तब तक मैं दोनों के बीच किसी भी तरह के द्वंद्व से अनजान था. मेरे दादा खुद एक इस्लामिक विद्वान थे, वो हमें बताते थे कि हमारे पूर्वज गौर ब्राह्मण थे. इस प्रकार जब उन्होंने इस्लाम को अपने धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया, तो लोग उन्हें गारा कहने लगे. वह हमें बताते थे कि 1920 के दशक तक, जब भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन भी सांप्रदायिक विभाजनकारी राजनीति से संक्रमित हो गया था, तब भी हरिद्वार के पंडित समुदाय के लोग मृत पूर्वजों के अनुष्ठानों के लिए पैसे इकट्ठा करने के लिए अपनी रिकॉर्ड बुक के साथ गांवों का दौरा करते थे.

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इस तथ्य को स्वीकार करना कि हमारे पूर्वज ब्राह्मण थे, उन्हें एक कट्टर मुसलमान होने से नहीं रोका. वह दिन में पाँच बार नमाज पढ़ते थे और रमजान के पूरे तीस दिनों के रोजे अपने 90 के दशक में भी रखते थे. वास्तव में, पश्चिम उत्तर प्रदेश का गारा समुदाय देश के कुछ सबसे प्रसिद्ध इस्लामी विद्वानों, प्रोफेसरों और अन्य पेशेवरों को पैदा करने का दावा करता है. इस समुदाय के लोग भारत में अपनी जड़ों और इस्लाम के पालन से कभी नहीं कतराते. वास्तव में कई लोग गौर को अपने उपनाम के रूप में भी रखते हैं.

अपने बचपन से मैंने मुसलमानों को पुंडीर, तोमर, चैधरी और त्यागी आदि उपनामों के साथ देखा है. वे सभी अपनी जड़ों को भारतीय पूर्वजों से जोड़ते हैं, जिन्होंने इतिहास में किसी समय इस्लाम स्वीकार किया था.

इस बात को मेरे लिखने की क्या वजह है? क्योंकि ये हालिया सोशल मीडिया रुझान है, जहां दो समूह यानी दक्षिणपंथी मुस्लिम और दक्षिणपंथी हिंदू हमें बताते हैं कि मुसलमान एक राष्ट्र (या उम्माह) है और इसलिए शब्द के सच्चे अर्थों में भारतीय नहीं हो सकते हैं, इस बात से मुझे पीड़ा होती है.

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देवबंद मदरसा के सबसे सम्मानित उलेमाओं में से एक मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी कहा करते थे कि उनके वंश को इस्लामी विद्वान के रूप में उनकी स्थिति में बाधा नहीं बनना चाहिए. एक बार उन्होंने लिखा था कि अगर पूछा जाए, तो हम बता देंगे कि उनके पिता राम सिंह और दादा जसपत राय थे. इस बात ने प्रमुख इस्लामी विद्वानों में शुमार उनके उत्थान को कभी नहीं रोका. उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इस्लामी विद्वानों के एक आंदोलन का नेतृत्व किया और राजा महेंद्र प्रताप, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और अन्य के साथ गठबंधन किया.

क्या इसका मतलब यह है कि जिन मुसलमानों के पूर्वज अरब से आए थे, वे कम भारतीय हैं? नहीं बिलकुल नहीं. मैं हिंदुत्व के मूल विचारकों में से एक, विनायक दामोदर सावरकर को उद्धृत करना चाहता हूं, ‘‘हिंदुओं और मुसलमानों के बीच मूल दुश्मनी अतीत की बात हो सकती है. उनका वर्तमान संबंध शासकों और शासितों, विदेशी और देशी का नहीं था, बल्कि केवल भाई-बहन का था, जिनमें केवल धर्म का ही अंतर था. क्योंकि वे दोनों हिन्दुस्तान की माटी की संतान थे. उनके नाम अलग-अलग थे, लेकिन वे सब एक ही माता की संतानें थीं. इसलिए भारत इन दोनों की सामान्य मां होने के नाते, वे खून से भाई थे.

अपने दादाजी के पास वापस आ रहा हूं. उनके एक परम मित्र थे, ताऊ प्रभु. वे एक पंजाबी हिंदू थे, जो 1947 में भारत के बंटवारे के बाद मुजफ्फरनगर आ गए थे. ये दोनों परिवार आज भी एक-दूसरे के रीति-रिवाजों, शादियों और त्योहारों आदि में एकसाथ हिस्सा लेते हैं. ताऊ प्रभु के बेटे हमारे लिए परिवार के सदस्यों से बहुत अलग नहीं थे. मेरे दादाजी के एक अन्य मित्र एक कट्टर जैन व्यापारी थे.

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वह हमें बताएंगे कि मानवता किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है. आज सोशल मीडिया पर लोग पूछते हैं कि 1947 में अधिकांश मुसलमान पाकिस्तान क्यों नहीं गए, लेकिन मेरे दादाजी के लिए यह एक बेवकूफी भरा सवाल था. कौन अपना घर छोड़ता है? उन वर्षों में वह मौलाना हुसैन अहमद मदनी से प्रभावित थे, जिन्होंने विभाजन के खिलाफ अभियान चलाया था, क्योंकि उनका मानना था कि धर्म को राष्ट्र के साथ नहीं जोड़ा जा सकता.

जब कोई मुझसे पूछता है कि क्या मैं एक राष्ट्रवादी भारतीय मुसलमान हूं. तो मैं, ज्यादातर मामलों में जवाब नहीं देता. भारत के एक वरिष्ठ राजनीतिक विचारक ने एक बार मुझसे बातचीत के दौरान कहा था कि आस्था पर बहस नहीं करनी चाहिए. हम उन मुद्दों पर बहस करते हैं, जहां हम अपना स्टैंड बदलने के लिए तैयार हैं. क्या मैं अपने राष्ट्रवाद या धर्म पर अपना रुख बदलने के लिए तैयार हूं? नहीं, यह मेरा विश्वास है कि मैं एक मुसलमान हूं और मैं एक भारतीय हूं. इस पर बहस करने का अधिकार किसी को नहीं है.