मुहर्रम का महीना: मुस्लिमों के लिए इसका महत्व

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 26-06-2025
The month of Muharram: its significance for Muslims
The month of Muharram: its significance for Muslims

 

 ईमान साकिना

मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है, लेकिन शिया मुसलमानों के लिए यह सिर्फ एक नए साल की शुरुआत नहीं, बल्कि गहन शोक और आत्मचिंतन का समय होता है. यह महीना कर्बला की उस ऐतिहासिक त्रासदी की याद दिलाता है जिसमें पैगंबर मोहम्मद (स.अ.) के नवासे इमाम हुसैन (अ.स.) और उनके 70 से अधिक साथियों ने अत्याचारी शासक यज़ीद के खिलाफ लड़ते हुए शहादत दी थी.

कर्बला: अन्याय के विरुद्ध सच्चाई की लड़ाई

10 मुहर्रम, जिसे 'आशूरा' कहा जाता है, इस दिन वर्ष 680 ईस्वी में कर्बला (वर्तमान इराक) में एक निर्णायक युद्ध हुआ. इमाम हुसैन (अ.स.) ने उस समय के भ्रष्ट उम्मयद खलीफा यज़ीद की बैअत (आगामी वफादारी) करने से इनकार कर दिया था.

यज़ीद की सेना ने उन्हें, उनके परिवार और साथियों को घेर लिया. कई दिनों की भूख और प्यास के बाद, आशूरा के दिन उन्हें एक-एक करके बेरहमी से शहीद कर दिया गया. यहां तक कि उनके छह महीने के बेटे अली असगर तक को नहीं बख्शा गया. कर्बला की यह घटना केवल एक ऐतिहासिक संघर्ष नहीं, बल्कि अन्याय, दमन और अधर्म के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बन गई.

इमाम हुसैन (अ.स.) की क्रांति का उद्देश्य

इमाम हुसैन (अ.स.) ने स्पष्ट किया था कि वे सत्ता या प्रसिद्धि के लिए नहीं, बल्कि अपने नाना पैगंबर मुहम्मद (स.अ.) की उम्मत में सुधार और अच्छाई का प्रचार करने के लिए निकले हैं. उन्होंने कहा, "मैंने इस्लाम में सुधार और बुराई के खिलाफ खड़े होने के उद्देश्य से खुरूज किया है." उनका बलिदान हमें यह सिखाता है कि अन्याय के सामने झुकना नहीं चाहिए, चाहे कीमत कुछ भी हो.

मुहर्रम में शोक और स्मरण की परंपराएं

मुहर्रम की शुरुआत से ही शिया समुदाय में शोक का माहौल होता है. पहले दस दिनों में विशेष मजलिसें होती हैं, जिनमें कर्बला की घटनाओं का वर्णन, शहीदों के बारे में नौहे और मर्सिये पढ़े जाते हैं. आशूरा के दिन जुलूस निकाले जाते हैं, जिसमें श्रद्धालु ‘या हुसैन’ और ‘लब्बैक या हुसैन’ के नारे लगाते हुए सड़कों पर निकलते हैं. कुछ लोग सीने पर मातम करते हैं, तो कुछ खूनदान या सेवा कार्यों के जरिए अपनी संवेदनाएं व्यक्त करते हैं.

प्रतीकात्मक रंग और व्यवहार

इस महीने में काले कपड़े पहने जाते हैं, मस्जिदों और इमामबाड़ों को काले झंडों और बैनरों से सजाया जाता है. कई लोग 9 और 10 मुहर्रम को रोज़ा रखते हैं और इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़ियारत, दुआ-ए-आशूरा और अन्य इबादतों के ज़रिए आत्मिक शुद्धि की कोशिश करते हैं.

मुहर्रम के बाद 40वें दिन, जिसे ‘अर्बईन’(Arbaeen) कहा जाता है, इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत की स्मृति में करोड़ों श्रद्धालु कर्बला पैदल यात्रा करते हैं. यह आज दुनिया का सबसे बड़ा शांतिपूर्ण धार्मिक जुलूस माना जाता है.

एक प्रेरणा, सीमाओं से परे

इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत ने न केवल मुसलमानों को, बल्कि पूरी दुनिया को प्रभावित किया. महात्मा गांधी ने भी कहा था, "मैंने हुसैन से सीखा कि अत्याचार सहकर भी विजयी कैसे बना जा सकता है."

मुहर्रम का महीना शोक और दुःख से भरा है, लेकिन यह न्याय, सत्य, बलिदान और मानवता के लिए संघर्ष की भावना भी जगाता है. हर वर्ष जब यह महीना आता है, तो यह याद दिलाता है कि “हर दिन आशूरा है और हर ज़मीन कर्बला.” यही संदेश इमाम हुसैन (अ.स.) की विरासत है – अन्याय के विरुद्ध सदा खड़ा रहना