ध्रुवीकरण की राजनीति में अल्पसंख्यकों की शिक्षा

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 04-12-2023
Education of minorities in the politics of polarization
Education of minorities in the politics of polarization

 

harjinderहरजिंदर

यह ऐसी पहली रिपोर्ट नहीं है. देश की उच्च शिक्षा में मुसलमानों के गिरते प्रतिशत पहले भी कईं अध्यन हुए हैं.ऐसी हर रिपोर्ट सिर्फ एक ही ओर इशारा करती है. हालात में सुधार होने के बजाए स्थिति लगातार बिगड़ रही है. सबसे बड़ी बात यह है कि सुधार के लिए ऐसी कोई कोशिश भी नहीं हो रही जिससे अच्छे नतीजे निकलें.

राष्ट्रीय शिक्षा योजना और प्रशासन संस्थान के रिटायर प्रोफेसर अरुण सी मेहरा द्वारा तैयार की गई ताजा रिपोर्ट- द स्टेट आॅफ मुस्लिम एजूकेशन इन इंडिया, भी जहां इन्हीं सब बातों को दोहराती है, वहीं उसके कुछ आंकड़े चैकाने वाले भी हैं.
 
यह रिपोर्ट बताती है कि उच्च शिक्षा के लिए मुसलमानों के दाखिले की दर 8.5 फीसदी से भी ज्यादा गिर गई है. उच्च शिक्षा के मामले में मुस्लिम छात्र अन्य पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के छात्रों से भी काफी पीछे हैं.
 
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यह मामला सिर्फ प्रतिशत के गणित का ही नहीं . उच्च शिक्षा में दाखिला लेने वालों की वास्तविक संख्या  भी तेजी से कम हुई है. 2919-20 में उच्च शिक्षा में 21 लाख मुसलमानों ने दाखिला लिया था जो एक ही साल में घटकर 19.21 लाख पहुंच गया. इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि यह संख्या इसके पहले धीरे-धीरे बढ़ रही थी. हालांकि स्थिति तब भी संतोषजनक नहीं थी लेकिन अब यह ज्यादा परेशान करने वाली हो गई है.
 
यह कमी 11वीं और 12वीं जमात के दाखिलों में भी देखी जा सकती है। जैसे जैसे हम उच्च शिक्षा की ओर जाते हैं यह कमीं लगातार और बढ़ती जाती है.परेशान करने वाली एक और चीज है ड्राॅपआउट रेट। यानी दखिला लेने के बाद पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने वालों की दर.
 
अगर हम इसके राज्यवार आंकड़ें देखें तो इसकी सबसे ज्यादा दर है असम में- 29.52 फीसदी, यानी इस राज्य में एक चैथाई से ज्यादा बच्चे उच्च शिक्षा के लिए दाखिला तो लेते हैं, लेकिन किसी न किसी कारण से वे पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। इसके बाद नंबर है पश्चिम बंगाल का.
 
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इस फेहरिस्त में पश्चिम बंगाल का नाम इतने ऊपर होना चैकाता है. यह एक ऐसा राज्य है जहां सरकार न सिर्फ खुद को धर्मनिरपेक्ष कहती है, मुसलमानों और अल्पसंख्यकों की सबसे बड़ी हितैषी होने का दावा भी करती है. ज्यादा विस्तार में जाएं तो रिपोर्ट दरसअल हमें यही दिखा रही होती है कि राजनीति में दावे भले ही कितने भी किए जाएं, अल्पसंख्यकों के हालात सुधारने की असल कोशिशें कहीं भी नहीं की जा रही हैं.
 
रिपोर्ट यह भी बताती है कि लगातार महंगी होती उच्च शिक्षा का खर्च उठाना अब बहुत से अल्पसंख्यकों के बस के बाहर की बात होता जा रहा है. शिक्षा के निजीकरण की वजह से यह समस्या और बढ़ रही है. इसका सीधा सा अर्थ यह भी है कि समस्या मूल रूप से सामाजिक या सांस्कृतिक नहीं बल्कि आर्थिक है.
 
यानी यह ऐसी समस्या है जिससे वेल्फेयर स्टेट चाहे तो आसानी से निपट सकती है. लेकिन दिक्कत यह है कि हमारी राजनीति इस मसले को आर्थिक मानकर उसकी समाधान की कोशिश नहीं करती बल्कि धार्मिक ध्रुवीकरण से वोट हासिल करने से आगे कहीं नहीं जाती.
 
( लेखक वरष्ठि पत्रकार हैं )