आज़ादी के सपने-08 : 21 वीं सदी में विदेश-नीति की बदलती दिशा

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 11-08-2023
India's P Minister Modi's branch increased among the heads of state of China, Saudi Arabia, Japan, Russia
India's P Minister Modi's branch increased among the heads of state of China, Saudi Arabia, Japan, Russia

 

permodप्रमोद जोशी

भारत को आज़ादी ऐसे वक्त पर मिली, जब दुनिया दो खेमों में बँटी हुई थी. दोनों गुटों से अलग रहकर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखने की सबसे बड़ी चुनौती थी. यह चुनौती आज भी है. ज्यादातर बुनियादी नीतियों पर पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की छाप थी, जो 17 वर्ष, यानी सबसे लंबी अवधि तक, विदेशमंत्री रहे.

राजनीतिक-दृष्टि से उनका वामपंथी रुझान था. साम्राज्यवाद,  उपनिवेशवाद और फासीवाद के वे विरोधी थे. उनके आलोचक मानते हैं कि उनकी राजनीतिक-दृष्टि में रूमानियत इतनी ज्यादा थी कि कुछ मामलों में राष्ट्रीय-हितों की अनदेखी कर गए. किसी भी देश की विदेश-नीति उसके हितों पर आधारित होती है. भारतीय परिस्थितियाँ और उसके हित गुट-निरपेक्ष रहने में ही थे. बावजूद इसके नेहरू की नीतियों को लेकर कुछ सवाल हैं.

चीन से दोस्ती

कश्मीर के अंतरराष्ट्रीयकरण और तिब्बत पर चीनी हमले के समय की उनकी नीतियों को लेकर देश के भीतर भी असहमतियाँ थीं. तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और नेहरू जी के बीच के पत्र-व्यवहार से यह बात ज़ाहिर होती है. उन्होंने चीन को दोस्त बनाए रखने की कोशिश की ताकि उसके साथ संघर्ष को टाला जा सके, पर वे उसमें सफल नहीं हुए.

तिब्बत की राजधानी ल्हासा में भारत का दूतावास हुआ करता था. उसका स्तर 1952 में घटाकर कौंसुलर जनरल का कर दिया गया. 1962की लड़ाई के बाद वह भी बंद कर दिया गया. कुछ साल पहले भारत ने ल्हासा में अपना दफ्तर फिर से खोलने की अनुमति माँगी, तो चीन ने इनकार कर दिया.

1959 में भारत ने दलाई लामा को शरण जरूर दी, पर ‘एक-चीन नीति’ यानी तिब्बत पर चीन के अधिकार को मानते रहे.  आज भी यह भारत की नीति है. तिब्बत को हम स्वायत्त-क्षेत्र मानते थे. चीन भी उसे स्वायत्त-क्षेत्र मानता है, पर उसकी स्वायत्तता की परीक्षा करने का अधिकार हमारे पास नहीं है.

pm modi

सुरक्षा-परिषद की सदस्यता

पचास के दशक में अमेरिका की ओर से एक अनौपचारिक प्रस्ताव आया था कि भारत को चीन के स्थान पर संरा सुरक्षा परिषद की स्थायी कुर्सी दी जा सकती है. नेहरू जी ने उस प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि चीन की कीमत पर हम सदस्य बनना नहीं चाहेंगे.

उसके कुछ समय पहले ही चीन में कम्युनिस्टों ने सत्ता संभाली थी, जबकि संरा में चीन का प्रतिनिधित्व च्यांग काई-शेक की ताइपेह स्थित कुओमिंतांग सरकार कर रही थी. नेहरू जी ने कम्युनिस्ट चीन को मान्यता भी दी और उसे ही सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का समर्थन भी किया.

गुट-निरपेक्षता

गुट-निरपेक्ष शब्द के आविष्कार का श्रेय भी नेहरू जी को जाता है. पहली बार संयुक्त राष्ट्र में इस शब्द का इस्तेमाल 1950 में भारत और युगोस्लाविया के प्रतिनिधियों ने किया था. तब इसकी कोई संगठनात्मक संरचना भी नहीं थी. वह 1956में बनी. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति को भारत का एक और शब्द दिया ‘पंचशील. गुट-निरपेक्ष आंदोलन आज निष्प्राण है, पर ‘ग्लोबल-साउथ’ के रूप में एक नई अवधारणा फिर से दुनिया के मंच पर आ रही है.

नेहरू के जीवन के अंतिम दो साल चीनी हमले के कारण पैदा हुई उदासी के बीच गुजरे थे. उन्हें प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से धिक्कारा गया. उनकी कोशिश थी कि चीन के साथ किसी किस्म का समझौता हो जाए, पर वह आजतक हुआ नहीं. विचार आज भी वही है. बहरहाल कश्मीर और चीन नेहरू की दो बड़ी विफलताएं हैं.

आदर्श और यथार्थ

विदेश-नीति का वर्गीकरण कई तरह से किया जा सकता है. मसलन नेहरू युग, इंदिरा गांधी, नरसिंह राव, गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और अब नरेंद्र मोदी युग. किसी भी देश की विदेश नीति अपेक्षाकृत स्थिर और संतुलित रहती है. उसमें भारी उछाल-पछाड़ नहीं होती. फिर भी नेतृत्व का व्यक्तिगत प्रभाव कहीं न कहीं पड़ता है.

सरकारें कोई बड़ा और बुनियादी बदलाव नहीं करती हैं, पर अक्सर कुछ क्षण होते हैं, जब बुनियादी बदलाव होते हैं. 1971में भारत और रूस के बीच रक्षा सहयोग के समझौते ने हमारी विदेश नीति को नई दिशा दी थी. वह दिशा इंदिरा गांधी के प्रभाव को बताती है.

1998 के नाभिकीय परीक्षण ने पहली बार विदेश-नीति के कठोर पक्ष को व्यक्त किया. उसके फौरन बाद भारत को पश्चिमी देशों की पाबंदियों और आलोचनाओं का सामना करना पड़ा, पर उसी दौरान पश्चिमी दृष्टिकोण में बदलाव भी आया. यह बदलाव चीन के सामरिक-उदय को देखते हुए था.

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राष्ट्रीय-शक्ति

सन 2005 में अमेरिका के साथ हुए सामरिक सहयोग के समझौते के बाद भारतीय विदेश नीति में बुनियादी बदलाव आया. 2008में अमेरिका के साथ हुए न्यूक्लियर डील ने इस सहयोग को और पुख्ता किया. इस दौरान फ्रांस भी हमारे विश्वस्त मित्र के रूप में उभरा है.

विदेश-नीति आदर्शों के सहारे नहीं चलती. उसके दो तत्व बेहद महत्वपूर्ण होते हैं. एक, राष्ट्रीय हित और दूसरा शक्ति. बगैर ताकत राष्ट्रीय हितों की रक्षा सम्भव नहीं है. ताकत या शक्ति को परिभाषित करना सरल नहीं है, पर मोटे तौर पर यह आर्थिक शक्ति है. इसके बगैर हम किसी दूसरी ताकत की उम्मीद नहीं कर सकते. आज के युग में टेक्नोलॉजी भी एक बड़ा कारक है. इसके लिए औद्योगिक शैक्षिक यानी ज्ञान के आधार की जरूरत होगी.

कश्मीर का मसला

कश्मीर के मसले पर हमें पहले साल ही यह बात समझ में आ जानी चाहिए थी कि केवल आदर्शों का वजह से हमारा सम्मान नहीं होने वाला है. अंतरराष्ट्रीय राजनय में ‘स्टेटेड’ और ‘रियल’ पॉलिसी हमेशा एक नहीं होती. कोई देश हमारे आदर्शों के कारण अपने हितों को हमारे ऊपर न्योछावर नहीं करेगा. ऐसा भी नहीं कि ताकत का आदर्शों से रिश्ता नहीं होता.

ताकत माने अमानवीय शक्ति कत्तई नहीं है. उसके पीछे भी आदर्श होते हैं, पर कमजोरों के आदर्शों को कोई नहीं पूछता. कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में हमने उठाया. पर पश्चिमी देशों ने वहाँ हमारे आदर्शों की उपेक्षा करते हुए उस समस्या को हमेशा के लिए हमारे गले की हड्डी बना दिया.

1949 की चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देने वालों में भारत साम्यवादी देशों के बाद पहला देश था. हमसे काफी बाद पाकिस्तान ने उसे मान्यता दी. पर आज पाकिस्तान-चीन रिश्ते समुद्र से गहरे और आसमान से ऊँचे बताए जाते हैं.

1962 की लड़ाई में हमारी पराजय से प्रेरित होकर पाकिस्तान ने 1963में चीन के साथ समझौता करके उसे अक्साईचिन की तमाम जमीन सौंप दी. इसके बाद उसने कश्मीर का निपटारा हमेशा के लिए करने के विचार से 1965में ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ शुरू किया. इन दोनों युद्धों ने भारतीय नीति-नियंताओं को जगा दिया, जिसकी परिणति 1971 के बांग्लादेश युद्ध में हुई.

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हिंद महासागर

देश की 15,106.7 किलोमीटर लम्बी थल सीमा और 7,516.6 किलोमीटर लम्बे समुद्र तट की रक्षा और प्रबंधन का काम आसान नहीं है. पिछले तीन सौ साल का अनुभव है कि हिंद महासागर पर प्रभुत्व रखने वाली शक्ति ही भारत पर नियंत्रण रखती है. हिंद महासागर अब व्यापार और खासतौर से पेट्रोलियम के आवागमन का मुख्य मार्ग है.

मोदी सरकार के पहले नौ साल में सबसे ज्यादा गतिविधियाँ विदेश नीति के मोर्चे पर हुईं हैं. इसके दो लक्ष्य नजर आते हैं. एक, सामरिक और दूसरा आर्थिक. देश को जैसी आर्थिक गतिविधियों की जरूरत है वे उच्चस्तरीय तकनीक और विदेशी पूँजी निवेश पर निर्भर हैं.

भारत को तेजी से अपने इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करना है जिसकी पटरियों पर आर्थिक गतिविधियों की गाड़ी चले. अमेरिका के साथ हुए न्यूक्लियर डील का निहितार्थ केवल नाभिकीय ऊर्जा की तकनीक हासिल करना ही नहीं था. असली बात है आने वाले वक्त की ऊर्जा आवश्यकताओं को समझना और उनके हल खोजना.

बनते-बिगड़ते रिश्ते

यूक्रेन और क्राइमिया से जुड़ी नीतियों के कारण रूस इन दिनों अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है. हमारी सेना के तीनों अंग रूसी शस्त्रास्त्र से लैस हैं. यह रिश्ता आसानी से खत्म नहीं होगा. हम चीन के साथ व्यापारिक रिश्ते बनाकर रखना चाहते हैं, पर गलवान-प्रकरण के बाद भरोसा टूट गया है.

पाकिस्तान को छोड़ दें, तो दक्षिण एशिया के शेष देशों के साथ हमारे रिश्ते कमोबेश अच्छे हैं. चीनी दखलंदाजी जरूर बढ़ रही है. हिंद महासागर में चीनी गतिविधियाँ बढ़ी हैं. एशिया-प्रशांत क्षेत्र में हमारा व्यापार बढ़ रहा है. दक्षिण चीन सागर में वियतनाम के अनुबंध पर भारत तेल और गैस की खोज कर रहा है. यह बात चीन को पसंद नहीं है. जिस तरह चीन हिंद महासागर में अपने आर्थिक हितों की रक्षा के बारे में सोच रहा है उसी तरह हमें भी अपने हितों की रक्षा करनी है.

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रिश्तों का विस्तार

हाल के वर्षों में रक्षा-तकनीक सहयोगी के रूप में इसरायल भी उभरा है. नब्बे के दशक तक भारत अंतरराष्ट्रीय संगठनों में इसरायल विरोधी नीति पर चलता था. पर अब बदलाव आया है. अरब देशों से भी इसरायल के रिश्ते सुधरे हैं. भारत, अमेरिका, यूएई और इसरायल के ‘आई2यू2’ समूह इस बात की पुष्टि करता है.

पश्चिम एशिया में तेज राजनीतिक-गतिविधियाँ चल रही हैं. अफगानिस्तान और इराक से हटकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, वहीं चीन और रूस ने अपनी पैठ बनाने की शुरुआत की है. 2002 के बाद से भारत, जापान और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय सामरिक संवाद चल रहा है.

2007में शिंजो एबे की पहल पर अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच ‘क्वाड्रिलेटरल डायलॉग’ शुरू हुआ, जो अब औपचारिक गठबंधन की शक्ल लेता जा रहा है.

नवम्बर 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत यात्रा के दौरान कहा था कि अमेरिका कोशिश करेगा कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने के लिए समर्थन जुटाया जाए. अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और रूस ने भी इस विचार से सहमति व्यक्त की है, पर चीन इस बात से सहमत नहीं है.

विश्व-समुदाय

दूसरे विश्व युद्ध के बाद से दुनिया की अर्थ-व्यवस्था एकीकरण की ओर बढ़ रही है. संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के साथ विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की स्थापना हुई. वैश्विक व्यापार के नियम बनाने के लिए वार्ता का उरुग्वाय चक्र शुरू हुआ, जिसकी परिणति नब्बे के दशक में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के रूप में हुई.

उसके पहले 1975 में फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, यूके और संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकारों ने मिलकर ग्रुप-6बनाया, जो एक साल बाद कनाडा को जोड़कर जी-7और 1997में रूस को शामिल करके जी-8बन गया. क्राइमिया पर रूसी कब्जे के बाद उसे जी-8से बाहर कर दिया गया. अब माना जा रहा है कि भारत इस समूह का आठवाँ सदस्य बन सकता है.

1999 में जी-20की स्थापना हुई, जिसमें अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, चीन, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, मैक्सिको, रूस, सउदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया, तुर्की, यूके, अमेरिका और यूरोपीय संघ शामिल थे. अंततः यह ग्रुप जी-8 की जगह लेगा. 2011 के बाद से इस ग्रुप के शिखर सम्मेलन सालाना हो रहे हैं. इस साल सितंबर में इसका शिखर सम्मेलन में दिल्ली में होने वाला है.

2006 के सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र महासभा की सालाना बैठक के हाशिए पर थे ब्राजील, रूस, भारत और चीन ने अनौपचारिक विचार-विमर्श का निश्चय किया. इस अनौपचारिक वार्ता के बाद जून 2009में रूस के येकतेरिनबर्ग में ब्रिक्स का औपचारिक शिखर सम्मेलन हुआ. 2010 में इस समूह में दक्षिण अफ्रीका भी शामिल हो गया. इस महीने जोहानेसबर्ग में ‘ब्रिक्स’ का शिखर-सम्मेलन भी हो रहा है.

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अमेरिकी-समूह

अमेरिकी प्रयास से भारत को न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप से छूट मिल गई थी. अमेरिका चाहता है कि भारत को न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य बनाया जाए, पर चीन ने पाकिस्तान की दावेदारी खड़ी करके इसमें अड़ंगा लगा दिया है.  अमेरिका की सहायता से भारत मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रेजीम, 41देशों के वासेनार अरेंजमेंट और ऑस्ट्रेलिया ग्रुप में शामिल हो चुका है.

जून के महीने में प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका-यात्रा के दौरान भारत को अंतरिक्ष-अनुसंधान से जुड़े आर्टेमिस समझौते में भी शामिल करने की घोषणा हुई है. लंबे अरसे तक भारत पूर्व एशिया के देशों से कटा रहा. दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का सहयोग संगठन आसियान 1967 में बना था. उसे बने 56साल हो गए हैं. भारत के पास भी इसमें शामिल होने का अवसर था, पर वह शीतयुद्ध का दौर था और आसियान को अमेरिकी गुट माना गया. 1992में भारत आसियान का डायलॉग पार्टनर बना.

दिसंबर 2012 में भारत ने जब आसियान के साथ सहयोग के बीस साल पूरे होने पर समारोह मनाया तब तक हम ईस्ट एशिया समिट में शामिल हो चुके थे और अब हर साल आसियान-भारत शिखर सम्मेलन में भी शामिल होते हैं.

अगले और इस श्रृंखला के अंतिम आलेख में पढ़ें: खुशहाली की ओर बढ़ते भारत की राहें

( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )


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