मलिक असगर हाशमी
कहने को तो नूंह और मणिपुर की सांप्रदायिक वारदातों को छोड़कर वर्ष 2023 में भारत ने कोई बड़ा दंगा नहीं देखा. बावजूद इसके इन दंगांे ने देश का बड़ा नुकसान किया है. ऐसी घटनाओं से देश की छवि तो खराब होती ही है, आर्थिक और सामाजिक रूप से भी भारी खसारा उठाना पड़ता है.
हालांकि, पिछले दंगों से हमने बहुत कुछ सीखा है. यदि इस लिहाज से 2022 और 2023 की तुलना करें तो इस एक वर्ष में ऐसी वारदातों में कमी आई है. 2022 के फरवरी में कर्नाटक से हिजाब का विवाद शुरू होने पर कई जगह सांप्रदायिक झड़पें हुईं.
इसके बाद इसी साल अप्रैल में रामनवमी के जूलुस को लेकर गुजरात, मध्य प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, राजस्थान और कर्नाटक में हिंसक झड़पें दर्ज की गईं. रामनवमी पर जेएनयू में मांसाहारी भोजन परोसने के सवाल पर दो धाराओं के छात्रों में तकरार हो गया.
अयोध्या में इसी साल कई मस्जिदों की दीवारों पर आपत्तिजनक पोस्टर चिपका दिए गए. अप्रैल 2022 में दिल्ली की जहांगीरपुरे में सांप्रदायिक दंगे दर्ज किए गए. इसी तरह मई 2022 में भाजपा की तत्तकालीन प्रवक्ता नूपुर शर्मा के आपत्तिजनक टिप्पणी के बाद देश भर में ऐसा बवाल मचा कि इसकी गूंज विदेशों में भी सुनाई पड़ी.
राजस्थान में एक टेलर मास्टर की गर्दन रेत दी गई. महाराष्ट्र में भी ऐसी वारदातें हुईं. बदले में सरकारों ने कई लोगों के घर ढहा दिए.इसी तरह 2021 में भी सांप्रदायिक दंगों का सिलसिला बना रहा.केंद्रीय गृह राज्य मंत्री द्वारा संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, 2017 और 2021 के बीच देश में सांप्रदायिक या धार्मिक दंगों की संख्या 2,900 से अधिक रही.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2021 में सांप्रदायिक या धार्मिक दंगों के कुल 378 मामले दर्ज किए गए, जबकि 2020 में 857, 2019 में 438, 2018 में 512 और 2017 में 723 मामले दर्ज किए गए.
इस लिहाज से देखों तो हरियाणा के नूंह और मणिपुर में ही 2023 में बड़े सांप्रदायिक दंगों का दौर चला. यह दंगे ऐसे रहे कि इसमें भारी जान-माल का नुकसान तो हुआ ही विदेशों में भी भारत की छवि को धक्का पहुंचा.
ऐसे दंगों से सर्वाधिक हानि कारोबार को होता है. नूंह दंगे की वजह से हरियाणा में कार्यरत कई विदेशी कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को या तो लंबी छुट्टी पर भेज दिया था या दफ्तर आने से रोकने के लिए वर्क फ्रॉम होम की व्यवस्था कर दी थी.
सांप्रदायिक दंगों पर शिवाजी सरकार की रिपोर्ट कहती है,‘ सांप्रदायिक हिंसा की एक कीमत होती है. मणिपुर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से बहुत दूर हो सकता है, या हरियाणा में नूंह सिर्फ 60 किमी या उसके आसपास हो सकता है, लेकिन घटनाएं वैश्विक गणना, निवेश प्रवाह और समग्र नुकसान को प्रभावित करती हैं.’
नूंह में हुई हिंसा ने गुरुग्राम स्थित बहुराष्ट्रीय और भारतीय कंपनियों को झटका दिया है. इस वारदात के बाद ही कंपनियां गुरुग्राम का विकल्प ढूंढने लगी हैं. गुरूग्राम के एक उद्योग संगठन से जुड़े जेएन मंगला कहते हैं, ‘‘ जब सुरक्षा की बात आती है, तो नोएडा, गुरुग्राम से बेहतर विकल्प है.
सांख्यिकीय रूप से, गुरुग्राम में अपराध दर नोएडा की तुलना में अधिक है. इसलिए, युवा लोग और परिवार तेजी से इसके बजाय नोएडा को चुन रहे हैं.’’ यानी एक बड़ी वारदात ने हरियाणा की आर्थिक चूंलें हिला दी हैं. सूबे को कुल राजस्व का 60 प्रतिशत इसी शहर से प्राप्त होता है, पर कभी सड़क पर नमाज पढ़ने को लेकर टंटा तो कभी आपराधिक घटनाएं, इस कारपोरेट शहर को निरंतर नुकसान पहुंचा रही हैं.
सिडनी स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पीस द्वारा तैयार ग्लोबल पीस इंडेक्स (जीपीआई) में कहा गया है कि 2020 की हिंसा में भारत को 646 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है, जो इसके अधिकांश बजट व्यय और कल्याण कार्यक्रमों को वित्तपोषित करने के लिए पर्याप्त है. 2023 में दंगे कम होने से इसकी रैंकिंग सुधरी है और अब यह 126 पर पहुंच गई है.
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंसा से सबसे अधिक प्रभावित 10 देशों का औसत आर्थिक प्रभाव विश्व सकल घरेलू उत्पाद के 34 प्रतिशत के बराबर था. 2017 में निरंतर क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के संदर्भ में भारत में हिंसा की आर्थिक लागत 806.2 बिलियन डॉलर या सकल घरेलू उत्पाद का 9 प्रतिशत थी.
2020 में दिल्ली दंगे सबसे हिंसक घटनाओं में से एक थे, जिसमें व्यापक रक्तपात, अशांति और लोगों की जान चली गई. पूर्वी दिल्ली क्षेत्र सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आ गया, जिसके परिणामस्वरूप लगभग 53 लोगों की मौत हो गई.
भारतीय हिंसा की आर्थिक लागत सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत तक है. 2021 में किसानों का विरोध प्रदर्शन, लखीमपुर मामला कुछ महत्वपूर्ण हिंसक कृत्य हुए. पिछले दशक में भारत सरकारी नीतियों, कर्फ्यू, इंटरनेट शटडाउन,विरोध प्रदर्शनों के अलावा मुंबई हमलों और कई शहरों में बम विस्फोटों जैसी कई बड़ी आतंकी घटनाओं का शिकार रहा है. जिससे भारत को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा.
2023 में रिपोर्ट किए गए अपराधों की सबसे अधिक संख्या के साथ उत्तर प्रदेश इस सूची में शीर्ष पर है. राज्य की जनसंख्या का आकार और सामाजिक-आर्थिक कारक इसकी बढ़ी हुई अपराध दर में योगदान करते हैं, जो एक बड़ा केंद्र होने के बावजूद, पश्चिमी यूपी से बड़ी संख्या में उद्योगों के स्थानांतरण का एक कारण है. यहां तक कि होंडा ने वहां अपनी कार मैन्युफैक्चरिंग भी बंद कर दी है.
भारत विविधता में एकता का एक चमकदार उदाहरण है, लेकिन हर साल सांप्रदायिक हिंसा के कारण कई निर्दोष लोग मारे जाते हैं. 2017 में सांप्रदायिक हिंसा की 822 घटनाओं में 111 लोग मारे गए थे. धार्मिक असहिष्णुता बढ़ रही है.
वर्ष 2019 में गौरक्षकों ने भारत में गोमांस खाने वाले और पशु-व्यापार करने वाले समुदायों के खिलाफ मॉब लिंचिंग की. दिल्ली में नागरिकता संशोधन बिल विरोधी प्रदर्शन हुए जो हिंसक दंगों में बदल गए. धार्मिक दंगे कोई नई बात नहीं है, पर इससे होने वाला भारी नुकसान अब खलने लगा है.
साम्प्रदायिक दंगे निश्चित तौर पर आर्थिक स्थिति को प्रभावित करते हैं. व्यवसाय बंद हो जाते हैं. लोग अपने घरों से बाहर नहीं निकलते. लंबे समय तक हिंसा से निवेश में बाधा आती है. संपत्ति का विनाश होता है. 2002 के गुजरात दंगों के बाद, राज्य में आने वाले निवेश में गिरावट देखी गई.
भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान 8 प्रतिशत हानि के साथ 80,303 डॉलर के साथ 5वें स्थान पर है. चीन 4 प्रतिशत या 1,049,173 डॉलर के उच्चतम नुकसान के साथ 138वें स्थान पर है. यह उस छवि के विपरीत है जिसे चीन एक शांतिपूर्ण समाज के रूप में चित्रित करता है. जीपीआई के अनुसार कमांड संरचना के बावजूद चीन में श्रमिक अशांति बहुत आम है.
श्रिया अय्यर ने अपनी पुस्तक द इकोनॉमिक्स ऑफ रिलिजन इन इंडिया में लिखा है, ‘‘ आर्थिक विकास से असमानता और ध्रुवीकरण भी बढ़ता है, जो बदले में धार्मिक संघर्ष को भड़काता है. इसमें आगे कहा गया है, ‘देश में हिंदू और मुसलमानों के बीच झगड़े की मूल वजह यही है.
आर्थिक विकास से व्यवसायों के बीच प्रतिस्पर्धा की भावना बढ़ती है. पीआर राजगोपाल ने अपनी पुस्तक कम्युनल वायलेंस इन इंडिया में कहा है कि 1991 के वाराणसी दंगे और 1984 के भिवंडी दंगे कथित तौर पर इसी घटना के कारण हुए थे. यह सिंड्रोम सत्ता संघर्ष को जन्म देता है.
दक्षिण एशिया क्षेत्र या भारतीय उपमहाद्वीप में, हिंसा का आर्थिक प्रभाव 2019 में बढ़कर 1.27 ट्रिलियन डॉलर हो गया था, जो इस क्षेत्र के लिए अब तक का उच्चतम स्तर है. अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका कम शांतिपूर्ण देश माने जाते हैं. इसलिए इन देशों की आर्थिक दशा भी अच्छी नहीं.
हालांकि, दंगों से होने वाले नुकसान को अब हर देश गंभीरता से लेने लगा है. इसकी रोकथाम के लिए कानून स्तर पर कदम तो उठाए ही जा रहे हैं. सामाजिक सौहार्द भी बढ़ाया जा रहा है. अरब देशों में यह काम वर्ल्ड मुस्लिम लीग कर रहा है.
इसके मुखिया अल-इस्सा इसी सिलसिले में 2023 में भारत का दौरा कर चुके हैं. गंगा-जमुनी तहजबी को आगे बढ़ाने वाले सूफी-संतों को भी आगे बढ़ाया जा रहा है. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की पहल पर इसी सिलसिले में 2022 को इंडोनेशिया का एक प्रतिनिधिमंडल भारत आया था.
देश-दुनिया के कई हिस्से में अब सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ाने वाले सम्मेलन भी बड़ी संख्या में होने लगे हैं, जिसका असर दिखने लगा है. आतंकवाद का जोर बहुत हद तक थमा है. दुनिया शांति की ओर लौट रही है. और लौटनी भी चाहिए क्यों कि कुछ लोगों की ऐसी हरकतों से बाकी लोगों को भारी कीमत चुकानी पड़ती है.