आवाज द वाॅयस /ढाका
अगस्त 2024 में प्रधानमंत्री शेख हसीना की 15 वर्षों पुरानी सत्ता के पतन के बाद बांग्लादेश एक गहरे राजनीतिक संकट में डूब गया. इस उथल-पुथल और सत्ता के शून्य के बीच, देश ने भीड़ हिंसा की एक अभूतपूर्व और भयावह लहर देखी. सिर्फ एक साल में 637 लोगों की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई, जिनमें 41 पुलिस अधिकारी भी शामिल थे.
2023 में 51 मौतें, 2024-25 में 637 — 12 गुना से अधिक वृद्धि
ग्लोबल सेंटर फॉर डेमोक्रेटिक गवर्नेंस (GCDG) की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक, अगस्त 2024 से जुलाई 2025 के बीच हुई इन हत्याओं ने हाल के इतिहास में न्यायेतर हत्याओं के सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. तुलना करें तो, 2023 में ऐसे महज़ 51 मामले दर्ज हुए थे.
इस भयावह बदलाव का मुख्य कारण
राजनीतिक अस्थिरता, राज्य संस्थानों की विफलता और न्यायिक व्यवस्था पर से जनता का उठता भरोसा है. एक लंबे समय तक सत्तारूढ़ रही सरकार के अचानक पतन ने ऐसा शून्य पैदा किया, जहाँ कानून की जगह अब अफवाहें और आक्रोश ने ले ली है.
हृदय विदारक घटनाएँ : ज़िंदा जलाए गए दर्जनों लोग
भीड़ हिंसा की क्रूरता की मिसाल 4 अगस्त 2024 को जेस्सोर में "द ज़ुबैर होटल" में देखने को मिली, जहाँ 24 लोगों को ज़िंदा जला दिया गया. 25 अगस्त को नारायणगंज के रूपगंज में “ग़ाज़ी टायर्स” की फैक्ट्री में 182 लोगों को बंद करके आग लगा दी गई.
इन घटनाओं के अधिकांश पीड़ितों की पहचान तक सामने नहीं आ पाई. मीडिया पर कठोर सेंसरशिप ने सच्चाई को सामने आने से रोक दिया.
भीड़ का न्याय: डर का राज
आज बांग्लादेश के मोहल्लों में भय और अविश्वास पसरा हुआ है. जहाँ कभी न्यायालयों में फैसले होते थे, अब वहां भीड़ सज़ा सुनाती है.बहुत-सी घटनाएं छोटे आरोपों से शुरू होती हैं — जैसे चोरी या छेड़छाड़, लेकिन कई मामलों में ये राजनीतिक या सांप्रदायिक नफरत में तब्दील हो जाती हैं.
मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि मारे गए 70% से ज़्यादा लोग अवामी लीग से जुड़े थे. पूर्व सत्ताधारी पार्टी, जिसकी पहचान अब भीड़ की नाराज़गी का केंद्र बन गई है.
अल्पसंख्यक समुदाय, विशेष रूप से हिंदू और अहमदिया मुसलमान बार-बार निशाने पर हैं. अक्सर उन पर ईशनिंदा या साज़िश के आरोप लगाए जाते हैं, जिनका कोई ठोस आधार नहीं होता.
9 जुलाई 2025 को ढाका के मिटफोर्ड अस्पताल के बाहर हिंदू सामाजिक कार्यकर्ता लाल चंद सहग की सरेआम हत्या की गई और यह हत्या सोशल मीडिया पर लाइव-स्ट्रीम हुई.
सोशल मीडिया: सच का आइना या झूठ की चिंगारी?
सोशल मीडिया अब दोधारी तलवार बन चुका है. एक ओर यह अत्याचार को उजागर करता है, वहीं दूसरी ओर अफवाहों और नफ़रत को भी पल भर में फैला देता है.
चटगाँव में एक झूठी फेसबुक पोस्ट, जिसमें एक हिंदू युवक पर कुरान के अपमान का आरोप था, दो लोगों की मौत और कई घरों की तबाही का कारण बनी. बाद में साबित हुआ कि पोस्ट पूरी तरह झूठी थी.
सरकार की प्रतिक्रिया: प्रयास, लेकिन नतीजे कम
नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार ने "शून्य सहनशीलता" की नीति घोषित की है. कानूनी जागरूकता और सामुदायिक पुलिसिंग अभियान शुरू हुए हैं, लेकिन वास्तविक धरातल पर परिवर्तन बहुत सीमित है.
अब तक सिर्फ कुछ मामलों में गिरफ़्तारियाँ हुई हैं, और दोष सिद्धि के मामले गिनती के हैं. आलोचक कहते हैं कि सरकार का ध्यान क़ानून व्यवस्था से ज़्यादा राजनीतिक संतुलन पर है.
भविष्य की चिंता : क्या अदालत बचेगी या भीड़ ही न्याय करेगी?
साउथ एशियन नेटवर्क फॉर इकोनॉमिक मॉडलिंग (SANEM) के सर्वे में पाया गया कि 71% बांग्लादेशी युवा मानते हैं कि भीड़ हिंसा अब समाज की सामान्य बात बन चुकी है, और 47% को लगता है कि उन्हें राजनीतिक आधार पर निशाना बनाया जा सकता है.
बांग्लादेश एक नाज़ुक मोड़ पर खड़ा है.अगर पुलिस सुधार, न्यायिक स्वतंत्रता, डिजिटल अफवाहों पर नियंत्रण और नागरिक शिक्षा जैसे गहरे सुधार तुरंत नहीं हुए, तो भीड़-न्याय देश की स्थायी सच्चाई बन सकता है.
क़ानून की अनुपस्थिति में, समाज स्वयं को सज़ा देने वाला बन गया है.अब सबसे बड़ा सवाल यही है ,क्या बांग्लादेश एक बार फिर कानून के रास्ते लौट सकेगा, या फ़ैसले अब अदालत नहीं, भीड़ सुनाएगी?
(रिपोर्ट में उल्लिखित आँकड़े और घटनाएँ जीसीडीजी, स्थानीय मानवाधिकार संगठनों और स्वतंत्र रिपोर्टिंग पर आधारित हैं। मीडिया पर लगे प्रतिबंधों के चलते सभी आंकड़े संपूर्ण नहीं हो सकते.)