देश-परदेस : पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान के रहस्य क्या कभी खुलेंगे ?

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 07-11-2022
देश-परदेस : पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान के रहस्य क्या कभी खुलेंगे ?
देश-परदेस : पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान के रहस्य क्या कभी खुलेंगे ?

 

permodप्रमोद जोशी

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि इमरान खान ने अपने ऊपर हुए हमले के बाबत जो आरोप लगाए हैं, उनकी जाँच के लिए आयोग बनाया जाए. इमरान खान ने उनके इस आग्रह का समर्थन किया है. पाकिस्तानी सत्ता के अंतर्विरोध खुलकर सामने आ रहे हैं. पर बड़ा सवाल सेना की भूमिका को लेकर है. उसकी जाँच कैसे होगी? एक और सवाल नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति से जुड़ा है. यह नियुक्ति इसी महीने होनी है.

पाकिस्तानी सेना, समाज और राजनीति के तमाम जटिल प्रश्नों के जवाब क्या कभी मिलेंगे? इमरान खान के पीछे कौन सी ताकत? जनता या सेना का ही एक तबका? सेना ने ही इमरान को खड़ा किया, तो फिर वह उनके खिलाफ क्यों हो गई? व्यवस्था की पर्याय बन चुकी सेना अब राजनीति से खुद को अलग क्यों करना चाहती है?

पाकिस्तान में शासन के तीन अंगों के अलावा दो और महत्वपूर्ण अंग हैं- सेना और अमेरिका. सेना माने एस्टेब्लिशमेंट. क्या इस बात की जाँच संभव है कि इमरान सत्ता में कैसे आए? पिछले 75साल में सेना बार-बार सत्ता पर कब्जा करती रही और सुप्रीम कोर्ट ने कभी इस काम को गैर-कानूनी नहीं ठहराया. क्या गारंटी कि वहाँ सेना का शासन फिर कभी नहीं होगा ? 

अमेरिका वाले पहलू पर भी ज्यादा रोशनी पड़ी नहीं है. इमरान इन दोनों रहस्यों को खोलने पर जोर दे रहे हैं. क्या उनके पास कोई ऐसी जानकारी है, जिससे वे बाजी पलट देंगे? पर इतना साफ है कि वे बड़ा जोखिम मोल ले रहे हैं और उन्हें जनता का समर्थन मिल रहा है.

लांग मार्च आज से

हमले के बाद वज़ीराबाद में रुक गया लांग मार्च आज मंगलवार को उसी जगह से फिर रवाना होगा, जहाँ गोली चली थी. इमरान को अस्पताल से छुट्टी मिल गई है, पर वे मार्च में शामिल नहीं होगे, बल्कि अपने जख्मों का इलाज लाहौर में कराएंगे. इस दौरान वे वीडियो कांफ्रेंस के जरिए मार्च में शामिल लोगों को संबोधित करते रहेंगे. उम्मीद है कि मार्च अगले 10से 14दिन में रावलपिंडी पहुँचेगा.

पाकिस्तानी शासन का सबसे ताकतवर इदारा है वहाँ की सेना. देश में तीन बार सत्ता सेना के हाथों में गई है. पिछले 75में से 33साल सेना के शासन के अधीन रहे, अलावा शेष वर्षों में भी पाकिस्तानी व्यवस्था के संचालन में किसी न किसी रूप में सेना की भूमिका रही.

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लोकतांत्रिक असमंजस

भारत की तरह पाकिस्तान में भी संविधान सभा बनी थी, जिसने 12मार्च 1949को संविधान के उद्देश्यों और लक्ष्यों का प्रस्ताव तो पास किया, पर संविधान नहीं बन पाया. नौ साल की कवायद के बाद 1956में पाकिस्तान अपना संविधान बनाने में कामयाब हो पाया.

23 मार्च 1956 को इस्कंदर मिर्ज़ा राष्ट्रपति बनाए गए. उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से चुना गया था, पर 7अक्तूबर 1958को उन्होंने अपनी लोकतांत्रिक सरकार ही बर्खास्त कर दी और मार्शल लॉ लागू कर दिया. उनकी राय में पाकिस्तान के लिए लोकतंत्र मुफीद नहीं.

देश के राजनीतिक दल एक-दूसरे की खाल खींचने में लगे हैं. उनकी दिलचस्पी लोकतंत्र का नाम लेने भर में है. यह भी सच है कि वहाँ लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टाचार को बोलबाला रहा, पर लोकतंत्र को बदनाम करने की एक सुनियोजित साजिश भी चलती रही. सेना के भ्रष्टाचार का जिक्र करने की हिम्मत किसी में नहीं है.

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पीपीपी का ‘मीमो-गेट’

पाकिस्तानी सेना एक तो खुद को व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण अंग मानती है, दूसरे पाकिस्तानी समाज और संविधान तक उसे महत्वपूर्ण दर्जा देता है. वह एक बड़ी आर्थिक शक्ति भी है. एक मायने में देश की सबसे बड़ी कारोबारी कंपनी भी सेना है. देश की वर्तमान राजनीति का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है 2008का चुनाव. उस चुनाव में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार बन जाने के बाद सेना और सरकार के बीच अधिकारों को लेकर टकराव शुरू हुए. इनमें एक महत्वपूर्ण मसला था ‘मीमो-गेट’ का.

17 नवम्बर 2011 को अमेरिकी वैबसाइट ‘फॉरेन पॉलिसी’ ने पाकिस्तानी व्यवसायी मंजूर इजाज़ के हवाले से यह जानकारी प्रकाशित की कि अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत हुसेन हक्कानी अमेरिका के पूर्व जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ माइकेल मुलेन तक एक कागज़ पहुँचाना चाहते थे, जिसमें प्रार्थना की गई थी कि पाकिस्तान को फिर से सेना के हवाले होने से रोकने में ओबामा सरकार मदद करे.

बगैर दस्तखत के इस पुर्जे की जानकारी से पाकिस्तानी व्यवस्था में भूचाल आ गया. राजदूत हक्कानी को तत्काल हटना पड़ा और यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुँच गया. सुप्रीम कोर्ट में इसकी सुनवाई के दौरान पाकिस्तानी सेना ने सरकार की स्वीकृति के बगैर अदालत के सामने अपना पक्ष रख दिया.

प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी ने उस वक्त नागरिक सरकार के अधिकारों की रक्षा करने की कोशिश की. उन्होंने अपने रक्षा सचिव लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) खालिद नईम लोधी को बर्खास्त करके उनका कार्यभार कैबिनेट सेक्रेटरी नर्गिस सेठी को सौंप दिया. इस बात पर सेना ने सार्वजनिक रूप से प्रधानमंत्री की निंदा की. इस मामले में अदालत ने भी सेना का साथ दिया. इन विवादों की वजह से अंततः युसुफ गिलानी को कुर्सी छोड़नी पड़ी.

प्रोजेक्ट इमरान

पाकिस्तानी स्रोत बताते हैं कि इमरान खान को भविष्य में कठपुतली प्रधानमंत्री बनाने का सेना का प्रोजेक्ट 2010के आसपास ही बन गया था. 2013में नवाज शरीफ के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी यह टकराव कायम रहा और 2015में भारत के साथ बातचीत शुरू करने की कोशिशों पर पलीता लगा.

हालांकि इमरान को खड़ा करने में कई जनरलों ने भूमिका निभाई, पर अंततः 2018में जब कमर जावेद बाजवा सेनाध्यक्ष थे, इमरान खान सेना की सहायता से चुनाव जीते.

जनरल बाजवा ने पहले अपने जूनियर मेजर जनरल फैज़ को आईएसआई डायरेक्टरेट (सी) का प्रमुख बनाया. उन्होंने नवाज शरीफ की तत्कालीन सरकार की जड़ें खोदनी शुरू कीं और इमरान को 2018का चुनाव जिताया. सेना ने न केवल इमरान खान की चुनाव में मदद की, बल्कि अल्पसंख्यक रहने पर सांसदों का इंतजाम किया. जनरल फैज इसी वजह से इमरान खान के दोस्त बन गए।

इमरान ने अपने प्रतिस्पर्धियों को जेल में डालने का कार्यक्रम चलाया, जिसे देश की सेना ने सफाई माना. कुछ विशेषज्ञों की नज़रों में उनकी सरकार वस्तुतः सेना और राजनेताओं की ‘हाइब्रिड’ सरकार थी.

आईएसआई के एक पूर्व चीफ ले. जन. असद दुर्रानी ने हाल में एक भारतीय पत्रकार से कहा कि इमरान को ही नहीं भुट्टो और नवाज़ शरीफ को भी सेना ने प्रधानमंत्री बनने में मदद की और उन दोनों ने भी सेना से पंगा मोल लिया था. अब इमरान ने भी सेना और अमेरिका-विरोधी रुख अपनाया है, पर यह भी लगता है कि उन्होंने सेना के साथ बैक-चैनल संपर्क बनाकर रखा है. 

सवाल है कि फिर सेना और इमरान के बीच रिश्ते खराब क्यों हुए? और आज सेना क्यों कह रही है कि हम राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करेंगे?  इन सवालों के जवाब हमारे पास नहीं हैं. इसके लिए इंतज़ार करना होगा.

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आईएसआई की भूमिका

पाकिस्तान की राजनीति में सेना आईएसआई के मार्फत हस्तक्षेप करती रही है.  आईएसआई की स्थापना 1948में हुई थी. कानूनन यह संगठन रक्षा मंत्रालय और प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह है, पर व्यवहार में सेनाध्यक्ष के अधीन है. नागरिक सरकार के प्रति इसकी नाममात्र की जवाबदेही है.

बेनज़ीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ दोनों ने इसपर नियंत्रण की कोशिश की और विफल रहे. इमरान खान और सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा के बीच तल्खी पिछले साल आईएसआई प्रमुख की नियुक्ति को लेकर ही बढ़ी थी.

देश में पहली सांविधानिक सरकार बनने के फौरन बाद सैनिक शासन लागू हो गया. 1958में फील्ड मार्शल अयूब खान के कार्यकाल में आईएसआई की रिपोर्टिंग उनके पास आ गई. उन्होंने ही इस संस्था की राजनीतिक भूमिका तैयार की. आज आईएसआई का डायरेक्टरेट (सी) यही काम करता है, जिसके प्रमुख पर इमरान हत्या के प्रयास का आरोप लगा रहे हैं.

आईएसआई में तीन-स्टार वाले लेफ्टिनेंट जनरल के अलावा दो-स्टार वाले छह मेजर जनरल होते हैं, जो आईएसआई की अलग-अलग शाखाओं का काम देखते हैं. संगठन के लिहाज से यह सेना की एक कोर से ज्यादा बड़ा संगठन है. पाकिस्तान में कोर कमांडरों की हैसियत बहुत बड़ी होती है.

दबाव में सेना

सेना भी दबाव में दिखाई पड़ रही है. इसके पहले किसी दूसरे प्रधानमंत्री ने इतना खुलकर उसकी आलोचना नहीं की थी. इमरान खान जोखिम मोल ले रहे हैं या उनके पीछे कोई ताकत है? हाल में एक पाकिस्तानी पत्रकार की केन्या में हुई रहस्यमय मौत को लेकर सफाई देने के लिए आईएसपीआर के डीजी के साथ आईएसआई के डीजी प्रेस के सामने पेश हुए.

ऐसा देश में पहले कभी नहीं हुआ. पाकिस्तानी जनता तमाम सार्वजनिक स्थानों पर हिंसा करती रही है, पर सैनिक-प्रतिष्ठानों से दूर रहती है. इसबार विरोध प्रदर्शन हुए हजारों की भीड़ ने पेशावर के कोर कमांडर के निवास को घेर लिया था. भीड़ नारा लगा रही थी—‘यह जो दहशतगर्दी है, इसके पीछे वर्दी है!’

शरीफ-सरकार

क्या सेना शहबाज़ शरीफ की सरकार के साथ है? ऐसा दावे के साथ नहीं कहा जा सकता, पर इतना जरूर लगता है कि सेना भी फौरन चुनाव कराने के पक्ष में नहीं है. सेना चाहती है कि देश में किसी तरह से स्थिरता आए. पिछले साल सेना की ओर से कई बार कहा गया था कि आर्थिक सुरक्षा ही सबसे बड़ी सुरक्षा है.

देश की आर्थिक स्थिति खराब है. उसे दुरुस्त करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की मदद और अमेरिका का सहारा चाहिए, पर इमरान ने अपनी जुबानी-तोपों का रुख अमेरिका की ओर कर दिया. सेना को लगता है कि नया प्रशासन समझदारी से काम करेगा. हाल में उसे एफएटीएफ की ‘ग्रे लिस्ट’ से छुटकारा मिला है. भुगतान संतुलन भी सुधर रहा है. 

( लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं )