अमेरिकी कोशिशों का स्वागत , मध्यस्थता का नहीं

Story by  प्रमोद जोशी | Published by  [email protected] | Date 14-05-2025
Desh-Pardes: American efforts are welcome, but not mediation
Desh-Pardes: American efforts are welcome, but not mediation

 

joshiप्रमोद जोशी

दक्षिण एशिया का दुर्भाग्य है कि जिस समय दुनिया के देश, जिनमें भारत भी शामिल है, डॉनल्ड ट्रंप की आक्रामक आर्थिक-नीतियों के बरक्स अपनी नीतियों के निर्धारण में लगे हैं, हमें लड़ाई में जूझना पड़ रहा है.

इस लड़ाई की पृष्ठभूमि को हमें दो परिघटनाओं से साथ जोड़कर देखना और समझना चाहिए. एक, शनिवार के युद्धविराम की घोषणा भारत या पाकिस्तान के किसी नेता ने नहीं की, बल्कि डॉनल्ड ट्रंप ने की. दूसरे हाल में भारत और ब्रिटेन के बीच मुक्त-व्यापार समझौता हुआ है, जिसकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया. 

इसके अलावा हाल के दिनों की भू-राजनीति में महत्वपूर्ण नए मोड़ आए हैं, जिनका भारत पर भी असर पड़ेगा. खबरों के मुताबिक तुर्की और चीन ने पाकिस्तान का एकतरफा समर्थन किया है.

पाकिस्तान ने आतंकवाद को एक अघोषित नीति के रूप में इस्तेमाल किया है. दूसरी तरफ यह साबित करते हुए कि आतंकवादी हमले की स्थिति में हम पाकिस्तान में घुसकर कार्रवाई कर सकते हैं, मोदी सरकार ने प्रभावी रूप से एक नए सुरक्षा सिद्धांत की घोषणा की है. पाकिस्तान को निर्दोष लोगों की हत्या करने और आतंकवाद को बढ़ावा देने की अनुमति नहीं दी जाएगी.

ट्रंप की घोषणा

ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर घोषणा की कि भारत और पाकिस्तान ‘पूर्ण और तत्काल संघर्ष विराम’ पर सहमत हो गए हैं. ट्रंप ने अपनी आदत के अनुरूप या शायद जल्दबाज़ी में ऐसा किया. वे साबित करना चाहते हैं कि लड़ाइयों को रोकना उन्हें आता है.

इसमें दो राय नहीं कि इस संकट को टालने में अमेरिका ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसमें कोई संदेह नहीं है. उनकी घोषणा के बाद सहज सवाल खड़ा हुआ कि क्या अमेरिका अब भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करेगा? सच यह है कि अमेरिका ऐसे प्रयास बार-बार करता रहा है.

डॉनल्ड ट्रंप ने अपने पिछले कार्यकाल में भी कई बार मध्यस्थता की पेशकश की, पर भारत ने शालीनता से उन्हें बता दिया था कि ऐसा संभव नहीं है. भविष्य की बात छोड़ दीजिए, अतीत में भी देश की किसी सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया.

अमेरिका के सामने भी द्वंद्व है. वह एक तरफ भारत के साथ रिश्ते सुधार रहा है, वहीं अपने स्वार्थों के कारण पाकिस्तान की क्षुद्रताओं की अनदेखी करता है. वहीं पाकिस्तान एक तरफ अमेरिका को अपना दोस्त मानता है, और चीन को अपना आका. हाल के वर्षों में भारत की अमेरिका से निकटता बढ़ी है, पर भारत की नीति किसी का पिट्ठू बनने की नहीं है.

अमेरिकी इतिहास

भारत-पाकिस्तान रिश्तों में अमेरिकी भूमिका में 1947के बाद से आजतक काफी बदलाव आया है. शुरूआती वर्षों में अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ दिया. 1947-48के प्रथम कश्मीर-युद्ध में अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से मध्यस्थता का समर्थन किया, जिसके परिणामस्वरूप नियंत्रण रेखा स्थापित हुई.

1950के दशक में, अमेरिका ने पाकिस्तान को शीत युद्ध में अपने सहयोगी के रूप में चुना। 1954में पाकिस्तान को सीटो और सेंटो जैसे सैन्य गठबंधनों में शामिल किया गया, जिसके तहत उसे हथियार और आर्थिक सहायता मिली. यह भारत के खिलाफ संतुलन बनाने की रणनीति थी.

भारत ने गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाई, जिससे अमेरिका के साथ उसके संबंध तुलनात्मक रूप से खिंचाव के रहे. इस दौर में अमेरिका ने पाकिस्तान को प्राथमिकता दी, क्योंकि उसे दक्षिण एशिया में सोवियत प्रभाव को रोकने के लिए एक मजबूत सहयोगी चाहिए था।

1971 की लड़ाई

इस लड़ाई में अमेरिका ने पाकिस्तान का खुलकर समर्थन किया। राष्ट्रपति निक्सन ने सातवें बेड़े के विमानवाहक पोत यूएसएस एंटरप्राइज को बंगाल की खाड़ी में तैनात किया और संयुक्त राष्ट्र में युद्धविराम प्रस्ताव पेश किया. यह भारत के खिलाफ दबाव बनाने की कोशिश थी.

भारत को सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त था, जिसने अमेरिका के प्रभाव को सीमित किया. इस युद्ध में भारत की जीत और बांग्लादेश का निर्माण अमेरिका के लिए राजनयिक झटका था.

इस अवधि में अमेरिका का झुकाव स्पष्ट रूप से पाकिस्तान की ओर था, लेकिन भारत की सैन्य और कूटनीतिक सफलता ने अमेरिका को दक्षिण एशिया में भारत की ताकत को गंभीरता से लेने के लिए मजबूर किया.

80 और 90 के दशक

सोवियत संघ के अफगानिस्तान पर आक्रमण (1979) के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान को अपने प्रमुख सहयोगी के रूप में मजबूत किया. उसे अरबों डॉलर की सैन्य और आर्थिक सहायता दी, जिसका उपयोग भारत के खिलाफ भी किया गया.

1998 में भारत और पाकिस्तान के परमाणु परीक्षणों ने दक्षिण एशिया को वैश्विक ध्यान का केंद्र बनाया. अमेरिका ने दोनों देशों पर प्रतिबंध लगाए, लेकिन भारत की उभरती आर्थिक शक्ति और तकनीकी प्रगति ने अमेरिका को भारत के साथ संबंध सुधारने के लिए प्रेरित किया.

1999 के कारगिल युद्ध में अमेरिका ने पाकिस्तान पर दबाव डाला कि वह अपनी सेना और आतंकवादियों को वापस बुलाए. राष्ट्रपति क्लिंटन ने भारत के पक्ष में स्पष्ट रुख अपनाया, जो एक महत्वपूर्ण बदलाव था, जबकि 1993में क्लिंटन-प्रशासन ने कश्मीर के ‘विलय-पत्र’ को खारिज कर दिया था.

आतंकवाद का विरोध

9/11 हमलों के बाद आतंकवाद विरोधी युद्ध और भारत की आर्थिक प्रगति ने अमेरिका की नीति को प्रभावित किया. 2001के भारतीय संसद पर हमले और 2008के मुंबई हमलों के बाद अमेरिका ने भारत के साथ आतंकवाद विरोधी सहयोग बढ़ाया, लेकिन पाकिस्तान पर दबाव सीमित ही रहा.

अमेरिका अब भारत को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के खिलाफ एक प्रमुख साझेदार के रूप में देख रहा है, लेकिन पाकिस्तान की खुलकर आलोचना करना आज भी नहीं चाहता. अब भी वह दोनों देशों के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है.

वैश्विक भूमिका

फिलहाल ज्यादा बड़ा मसला ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के कारण पैदा हुए हालात का है. पर्यवेक्षक मानते हैं कि पर्दे के पीछे क्षेत्रीय शक्तियों के साथ मिलकर अमेरिकी मध्यस्थों ने युद्ध के कगार पर खड़ी एटमी ताकतों को हाथ खींचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

तीन दिन की लड़ाई के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि कई देश लड़ाई को रुकवाने की कोशिश कर रहे थे, पर कम से कम तीन देश, अमेरिका, ब्रिटेन और सऊदी अरब, इसमें सबसे आगे थे. अमेरिकी विदेशमंत्री मार्को रूबियो का 9मई को पाकिस्तानी सेना प्रमुख आसिम मुनीर को किया गया फोन कॉल ‘संभवतः निर्णायक बिंदु था.’

भारतीय नज़रिया

चालू लड़ाई के दो अलग-अलग पक्ष हैं. एक भारत का दूसरा पाकिस्तान का. सवाल है कि क्या अमेरिका ने दोनों पक्षों की बातों को समझा है? भारत का ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पहलगाम के हत्याकांड के जवाब में है. उसका निशाना है आतंकवाद.

भारतीय पर्यवेक्षक मानते हैं कि अमेरिकी मीडिया और राजनीति में ‘आतंकवाद’ को भारतीय नज़रिए से नहीं देखा जाता. वे इसे ‘हिंदू-मुस्लिम’ टकराव के नज़रिए से देखते हैं. इसके अलावा कश्मीर की समस्या के समाधान के जिन रास्तों को वे उचित मानते हैं, वे हमारे दृष्टिकोण से अनुचित हैं.

ब्लैकमेल

पाकिस्तान में विशेषज्ञों का कहना है कि जब तनाव बढ़ा तो पाकिस्तान ने नेशनल कमांड अथॉरिटी (एनसीए) की बैठक बुलाने का संकेत देकर अपनी एटमी ताकत की याद दिलाई. पाकिस्तान की नेशनल कमांड अथॉरिटी का देश के परमाणु हथियारों पर नियंत्रण होता है.

इसका मतलब है कि पाकिस्तान एटमी ब्लैकमेल करना चाहता है. भारत उस ब्लैकमेल के दबाव में नहीं है, इसीलिए युद्धविराम होने के बावजूद भारत ने कहा है कि पाकिस्तान कोई ज़ुर्रत करेगा, तो हम भरपूर जवाब देंगे. वर्तमान शांति को इसीलिए स्थायी नहीं मान लेना चाहिए.

भारत जागा

भारत ने स्पष्ट कहा है कि हम आतंकी ठिकानों पर हमले करेंगे, चाहे वे कहीं भी हों. लाहौर से सरगोधा, चकवाल से जैकबाबाद तक एक दर्जन से ज्यादा  ठिकानों पर हमले करके भारत ने अपनी ताकत को भी रेखांकित कर दिया है.

भारत ने सिंधु जल संधि को स्थगित रखते हुए अपने पास उपलब्ध साधनों का विस्तार किया है, साथ ही यह भी कहा है कि आतंकवाद के हरेक कारनामे को अब ‘युद्ध की कार्रवाई’ माना जाएगा और सेना उसका उचित जवाब देगी.

2014से लेकर अब तक भारत ने कम से कम पांच सैन्य संकट देखे हैं—पाकिस्तान के साथ 2016, 2019और अब। 2017और 2020में चीन के साथ। इस समय देश के विभिन्न वर्गों, समुदायों और राजनीतिक दलों के बीच एकता देखने को मिल रही है. यह एकता भारत की ताकत है.

दिल्ली के मित्र, चाहे वे वाशिंगटन डीसी में हों या मॉस्को, बर्लिन या रियाद में, निश्चित रूप से जानते हैं कि पाकिस्तान के साथ जुड़ाव की शर्तों पर भारत का एक स्पष्ट रुख है. वह यह कि पहलगाम में हुई भयावह राष्ट्रीय त्रासदी के बाद भारत जागा है.

ब्रिटेन के साथ एफटीए

एक तरफ ऑपरेशन सिंदूर की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी, वहीं 6मई को, भारत और यूके ने एक ऐतिहासिक मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) किया है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐतिहासिक मील का पत्थर बताया है. यह समझौता भारत को सभी औद्योगिक वस्तुओं तक शून्य-शुल्क पहुँच प्रदान करेगा.

इसके अलावा 99.3 प्रतिशत से अधिक पशु उत्पादों, 99.8प्रतिशत वनस्पति/तेल उत्पादों और 99.7प्रतिशत प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों पर आयात शुल्क को समाप्त करेगा. वर्तमान में, यूके मुख्य रूप से चीन (12प्रतिशत, 99अरब डॉलर बिलियन के बराबर), अमेरिका (11प्रतिशत, 92अरब डॉलर के बराबर) और जर्मनी (9प्रतिशत, 76.2अरब डॉलर के बराबर) जैसे देशों से 815.5अरब डॉलर के सामान का आयात करता है.

भारत यूके का 12वां सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, लेकिन देश में आयातित वस्तुओं में इसकी हिस्सेदारी मात्र 1.8प्रतिशत (15.3अरब डॉलर) है. इस समझौते के बाद परिस्थितियाँ तेजी से बदलेंगी. यह छलांग कैसे लगेगी, इसके बारे में हमें अब सोचना है.

कुछ इससे मिलता-जुलता समझौता इस साल अमेरिका से भी होने वाला है. दुर्भाग्य है कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी आर्थिक-समझौते के आसार नहीं बन रहे हैं, जबकि सबसे बेहतरीन संभावनाएँ हमारे आसपास ही हैं.

(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)

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