प्रमोद जोशी
हाल में जोहानेसबर्ग में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन से वैश्विक व्यवस्था के लिए कुछ महत्वपूर्ण संदेश निकले हैं. भारत की दृष्टि से इस सम्मेलन का दो कारणों से महत्व है.एक, भारत ग्लोबल साउथ के नेता के रूप में उभर रहा है, जिसमें अफ्रीका की बड़ी भूमिका है. 2023 में भारत की जी-20की अध्यक्षता के दौरान, अफ्रीकी संघ जी-20का सदस्य बनाने की घोषणा की गई थी. ग्लोबल साउथ में अफ्रीकी देशों की महत्वपूर्ण भूमिका है.
दूसरी तरफ अमेरिकी बहिष्कार के कारण यह सम्मेलन वैश्विक राजनीति का शिकार भी हो गया. कहना मुश्किल है कि आगे की राह कैसी होगी, क्योंकि जी-20का अगला मेजबान अमेरिका ही है, जिसका कोई प्रतिनिधि अध्यक्षता स्वीकार करने के लिए सम्मेलन में उपस्थित नहीं था.
‘खाली कुर्सी’ की अध्यक्षता
अजीब बात है कि वह देश, जिसे अध्यक्षता संभालनी है, सम्मेलन में आया ही नहीं. ऐसे दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा ने कहा कि हमें यह अध्यक्षता किसी ‘खाली कुर्सी’ को सौंपनी होगी.
दक्षिण अफ्रीका ने ट्रंप के स्थान पर कार्यभार सौंपने के लिए दूतावास के किसी अधिकारी को भेजने के अमेरिकी प्रस्ताव को प्रोटोकॉल का उल्लंघन बताते हुए अस्वीकार कर दिया. अब शायद किसी और तरीके से इस अध्यक्षता का हस्तांतरण होगा.
दक्षिण अफ्रीका को इस साल अमेरिका से एक के बाद एक अपमान का सामना करना पड़ा है. पहले वाशिंगटन स्थित उसके राजदूत को अवांछित घोषित कर दिया गया. फिर राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा को वाइट हाउस में बुलाकर ट्रंप ने धमकाया. यह भी कहा गया कि उनके देश को प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा.
ट्रंप का आरोप है कि दक्षिण अफ्रीका की विदेश-नीति विश्व व्यवस्था को बहुध्रुवीय बनाना चाहती है. बहरहाल दक्षिण अफ्रीका सीना तानकर ट्रंप के सामने खड़ा है. प्रकारांतर से यह धमकी दुनिया के सभी देशों के लिए है.
जी-20की भूमिका वैश्विक पूंजीवाद को स्थिर रखने और उसे बेहतर ढंग से प्रशासित करने की है. सवाल है कि क्या अमेरिकी राष्ट्रवाद और वैश्विक-पूँजीवाद के बीच आपसी टकराव है? क्या कोई वैकल्पिक आर्थिक-व्यवस्था दुनिया में उभर कर आने वाली है?
अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती
हालाँकि इस समूह का गठन विश्व-व्यवस्था के संकटों का समाधान खोजना था, पर लगता है कि यह बदलती वैश्विक राजनीति का शिकार हो गया है. आने वाले समय की एक बड़ी चुनौती है एकध्रुवीयता. क्या अमेरिकी वर्चस्व खत्म होगा? इसकी शुरुआत डॉलर के क्षरण से होने लगी है.
यह सब अस्थायी झटका भी हो सकता है, लेकिन अमेरिका जैसे प्रभावशाली देश की गाड़ी को उलटना अक्सर मुश्किल होता है, जैसा ट्रंप की सत्ता के अनुभव से पता चलता है.पर जोहानेसबर्ग में शेष पश्चिमी देशों की उपस्थिति ट्रंप की रणनीति के छिद्रों को भी दर्शा रही है. क्या अमेरिका हमेशा ट्रंप के रास्ते पर चलेगा? क्या ट्रंप का नज़रिया ही अमेरिकी नज़रिया है? इसका जवाब समय देगा.
गहरी होती खाई
‘पश्चिम और शेष विश्व’ के बीच गहरी होती खाई ने खतरे का बिगुल इस सम्मेलन में बजा दिया. यह खासतौर अमेरिका और ‘ग्लोबल साउथ’ का मामला है, जिसमें भारत की बड़ी भूमिका है. पर भारत अभी तक दोनों वैश्विक-ध्रुवों के बीच अपनी स्थिति को बनाए हुए है.
दक्षिण अफ्रीका के बाद अमेरिका अब किन शर्तों पर इसकी अध्यक्षता संभालेगा, यह अस्पष्ट है. कम से कम जी-20के साझा उद्देश्यों पर संदेह पैदा हो गया है. अमेरिका ने संकेत भी दिया है कि जब वह समूह की अध्यक्षता संभालेगा, तो इसे ‘मूलभूत रूप से’ नई शक्ल देगा।
अमेरिका इसे कैसा नया रूप देगा? क्या इसका विभाजन होगा और एक नया समूह उभरेगा? इस बीच, ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन जैसे प्रतिस्पर्धी गुट तेजी से अपनी स्थिति मजबूत कर रहे हैं.

भारत की भूमिका
सम्मेलन की राजनीति पर विचार करने के साथ इसमें भारत की भूमिका पर भी ध्यान देना होगा, जो अब जी-20का महत्वपूर्ण सदस्य है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्मेलन के पहले दिन विश्व के विकास के उद्देश्य से छह नई पहलों का प्रस्ताव रखा.
इनमें वैश्विक पारंपरिक ज्ञान भंडार की स्थापना, अफ्रीका में कौशल-विकास कार्यक्रम, वैश्विक स्वास्थ्य सेवा दल, नशीली पदार्थों और आतंकवाद के गठजोड़ का मुकाबला करने की पहल, ओपन सैटेलाइट डेटा पार्टनरशिप और महत्वपूर्ण खनिज परिपत्र पहल शामिल हैं. भारत की दिलचस्पी विकासशील देशों के साथ अपनी अंतरिक्ष-तकनीक को साझा करने में भी है.
जलवायु परिवर्तन को कृषि और वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा बताते हुए, उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े खाद्य सुरक्षा और पोषण कार्यक्रम, दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना और व्यापक फसल बीमा के माध्यम से इन चुनौतियों का समाधान करने के भारत के प्रयासों को रेखांकित किया.
प्रधानमंत्री मोदी ने तीन दिन की अपनी यात्रा के दौरान छठे आईबीएसए (भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका) शिखर सम्मेलन में भी भाग लिया. उन्होंने जापान की नई प्रधानमंत्री साने ताकाइची सहित अन्य नेताओं के साथ द्विपक्षीय बैठकें भी कीं.
सम्मेलन के दौरान शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज़ और कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी की मुलाकात के बाद यह घोषणा की गई. यह साझेदारी महत्वपूर्ण है, क्योंकि कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ‘फाइव आईज़’ खुफिया नेटवर्क का हिस्सा हैं और अमेरिका, ब्रिटेन और न्यूजीलैंड के साथ अत्याधुनिक तकनीक और सूचना तक उनकी पहुँच है.
वैश्विक असमंजस
लगता है कि दुनिया समाधानों से दूर भाग रही है. इसी दौरान ब्राज़ील में हुए संयुक्त राष्ट्र के कांफ्रेंस ऑफ द पार्टीज़ (कॉप30) में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं का समाधान फिर नहीं हो पाया. अमेरिका की कोशिशों से यूक्रेन में युद्ध समाप्त करने की कोशिशें भी सफल नहीं हो रही हैं.
यह पहला मौका था, जब जी-20शिखर सम्मेलन अफ्रीकी महाद्वीप में आयोजित किया गया. राष्ट्रपति ट्रंप ने आखिरी समय में घोषणा की कि अमेरिका इस शिखर सम्मेलन का बहिष्कार करेगा. पहले उन्होंने उपराष्ट्रपति वेंस को इसमें शामिल होने के लिए नामित किया था.
वस्तुतः ट्रंप बुरी तरह से अपने देश की आंतरिक राजनीति में उलझने के कारण वैश्विक-प्रश्नों पर फैसले कर रहे हैं. उन्हें पता था कि इस सम्मेलन में उनका राजनीतिक-एजेंडा काम करने वाला नहीं है
ट्रंप की राजनीति
दस महीने पहले ट्रंप ने पदभार ग्रहण करने के बाद से ही दशकों से चली आ रही वैश्विक आर्थिक संरचना और अंतरराष्ट्रीय सहयोग प्रणालियों को तहस-नहस करना शुरू कर दिया है, जिससे दुनिया भर में अराजकता और वित्तीय उथल-पुथल है.
जी-20को वैश्विक महाशक्तियों का समूह माना जाता है. 19संप्रभु राष्ट्रों और दो आर्थिक समूहों (यूरोपीय संघ और अफ्रीकी संघ) से मिलकर बना यह समूह वास्तव में 21देशों का समूह है. 2023में अफ्रीकी संघ के स्थायी सदस्य के रूप में शामिल होने पर इसके 21सदस्य हो गए.
रोटेशनल अध्यक्षता के आधार पर यह समूह तीन देशों की प्रणाली में कार्य करता है. जोहानेसबर्ग सम्मेलन में इस लिहाज से एक पूर्व मेजबान (ब्राज़ील), एक वर्तमान मेजबान (दक्षिण अफ्रीका) और एक अगले मेजबान (अमेरिका) को उपस्थित होना चाहिए, पर ऐसा हुआ नहीं.
ट्रंप को झिड़की
बहरहाल जोहानेसबर्ग में जलवायु संकट और अन्य वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए शनिवार को एक घोषणापत्र पारित किया गया. इसे अमेरिकी इनपुट के बिना तैयार किया गया था, जिसे वाइट हाउस के एक अधिकारी ने ‘शर्मनाक’ कदम बताया.
जलवायु परिवर्तन का ज़िक्र अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के लिए एक झिड़की है, जो इस वैज्ञानिक सहमति पर संदेह करते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग मानवीय गतिविधियों के कारण होती है. अमेरिकी अधिकारियों ने संकेत दिया था कि वे घोषणापत्र में इसके किसी भी संदर्भ का विरोध करेंगे.
सम्मेलन में यूक्रेन का मामूली ज़िक्र हुआ, गाज़ा शांति योजना या पश्चिम एशिया में संघर्ष का ज़िक्र नहीं हुआ, और आतंकवाद पर एक बात कही गई—उसके हर रूप और अभिव्यक्ति की निंदा.
अलबत्ता इसमें कहा गया है कि सभी देशों को ‘किसी भी राज्य की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता या राजनीतिक स्वतंत्रता के खिलाफ क्षेत्रीय दादागीरी की धमकियों या बल-प्रयोग से बचना चाहिए.’ इस बात को यूक्रेन, पश्चिम एशिया और हिंद-प्रशांत के साथ परोक्ष रूप में जोड़ा जा सकता है, जहाँ रूस, इसराइल और चीन का व्यवहार आक्रामक है.

सहयोग का मंच
जी-20की स्थापना 1999के एशियाई वित्तीय संकट के जवाब में की गई थी, ताकि दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को एक साथ लाकर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग और वित्तीय स्थिरता पर चर्चा, समन्वय और उसे बढ़ावा दिया जा सके.
समय के साथ, इसके एजेंडे का विस्तार हुआ और इसमें सामाजिक और पर्यावरणीय चुनौतियाँ, सतत विकास, जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य, व्यापार और शासन शामिल हो गए, जिनका उद्देश्य सामूहिक नीति समन्वय और सहयोग के माध्यम से एक सुस्थिर और समृद्ध वैश्विक अर्थव्यवस्था का निर्माण करना है.
इस साल सितंबर के अंत में संयुक्त राष्ट्र महासभा में डॉनल्ड ट्रंप के संबोधन ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों को निम्नतर स्तर पर पहुँचा दिया. ट्रंप ने सामूहिक प्रयासों से दुनिया की समस्याओं के समाधान-प्रयासों के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन जैसे उन मुद्दों पर भी तीखा हमला बोला जो अमीर और गरीब दोनों देशों के बीच समान रूप से जुड़े हुए हैं.
बहुपक्षीय संस्थाओं में, जहाँ सर्वसम्मत निर्णयों को लागू किया जाता है, भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण टूट पैदा हुई, तो केवल जी-20की ही नहीं संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की उपलब्धियाँ भी बेकार हो जाएँगी.
1990 के दशक के अंत में जब इसकी स्थापना हुई थी, तब अमेरिका एक निर्विवाद वैश्विक शक्ति था. उस समय नव-उदारवाद ने, जिसमें वित्तीय और व्यापारिक उदारीकरण शामिल था, वैश्विक एकीकरण की शर्तें तय कीं.
उस समय, अमेरिकी प्रभुत्व को वैचारिक रूप से बहुत कम चुनौती का सामना करना पड़ा, हालाँकि वैश्वीकरण के नकारात्मक परिणाम भी बार-बार सामने आ रहे थे. जी-20इन संकटों का सामना करने के लिए तैयार हो रहा था, पर आज भी उसकी संरचना स्पष्ट नहीं है. अभी तक उसका स्थायी सचिवालय भी नहीं है.
2008 का वित्तीय संकट, जिसकी शुरुआत अमेरिका से ही हुई थी, महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ. उस वक्त चीन एक नए शक्ति-केंद्र के रूप में उभर रहा था, उसके तुरंत बाद ब्रिक्स समूह का उदय हुआ, और नव-उदारवाद को लेकर वैचारिक सहमति क्षीण होने लगी.
सच यह भी है कि विकसित देश जी-7 को ही अपना समूह मानते हैं. ऐसे में जी-20 का क्या होगा, यह अब अमेरिकी अध्याय से स्पष्ट होगा.
(लेखक दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे हैं)