मलिक असगर हाशमी
अब जब कि धर्मेंद्र 89 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं, बॉलीवुड की यादों का दरवाज़ा जैसे अचानक खुल गया है। सोशल मीडिया से लेकर फिल्म इंडस्ट्री तक, हर कोई ‘ही-मैन’ के साथ अपने रिश्तों को टटोल रहा है। कोई उन्हें अपना आदर्श बता रहा है, कोई ‘माचो मैन’ कहकर याद कर रहा है। लेकिन इन तमाम परिभाषाओं के बीच एक रिश्ता ऐसा भी था, जो सब पर भारी पड़ता है-धर्मेंद्र और दिलीप कुमार का रिश्ता। खून का कोई नाता नहीं था, लेकिन मोहब्बत, आदर और अपनापन ऐसा कि जैसे दोनों किसी पुराने ख़ानदान की विरासत हों।
धर्मेंद्र, दिलीप कुमार को देखते ही भावुक हो जाते थे। उनके गले लग जाना उनकी सहज प्रतिक्रिया थी,जैसे उस व्यक्ति में उन्हें अपने सपनों का स्वरूप दिखता हो। बार-बार वे स्वीकारते थे कि वे फिल्मों में आए ही इसलिए क्योंकि यूसुफ़ ख़ान स्क्रीन पर जादू बिखेरते थे। उधर दिलीप साहब अपने अंदाज़ में कहते,“जब भगवान से मिलूंगा तो शिकायत करूंगा कि उन्होंने मुझे धर्मेंद्र जैसा खूबसूरत क्यों नहीं बनाया।” अभिनय के शहंशाह का यह बयान धर्मेंद्र के लिए किसी पुरस्कार से कम नहीं था।
सपना शुरू हुआ आईने से
13 वर्षीय शर्मीला-सा लड़का जब 1948 की फिल्म शहीद देखकर लौटा, तो उस पर जादू-सा छा गया। उस फिल्म में दिलीप कुमार और कामिनी कौशल थे। बाद में जब कामिनी कौशल का निधन हुआ, तो धर्मेंद्र ने लिखा,“मेरी पहली फिल्म शहीद की हीरोइन।” कई मीडिया संस्थानों ने उसे गलत समझा, लेकिन दरअसल वह पहली फिल्म उन्हाेंने बतौर दर्शक देखी थी।
वहीं से धर्मेंद्र ने तय कर लिया कि उन्हें वही बनना है-दिलीप कुमार जैसा। आइने के सामने खड़े होकर वे रोज़ यह अभ्यास किया करते थे। नौकरी भी लग गई, लेकिन रातों में एक्टिंग का अभ्यास जारी रहता था। उन्हें लगता था कि वे उन्हीं सितारों की दुनिया का हिस्सा हैं—बस रास्ता पाना बाक़ी है।
वह घटना,जहां शुरुआत हुई शर्म से और खत्म हुई दोस्ती पर
मुंबई के शुरुआती दिनों में उनके मन में दिलीप साहब से मिलने की तीव्र इच्छा थी। पंजाब के ग्रामीण माहौल से आए धर्मेंद्र को आदत थी कि घरों के दरवाजे कभी बंद नहीं होते। इसी आदत के चलते जब वे पहली बार पाली हिल स्थित दिलीप कुमार के घर पहुंचे और गेट पर कोई नहीं मिला, तो वे सीधे अंदर चले गए। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वे एक कमरे में जा पहुंचे, जहां दिलीप कुमार गहरी नींद में थे।
अचानक नींद खुली और सामने एक अनजान युवा—दिलीप साहब चौंक गए। धर्मेंद्र डर से भागते हुए नीचे आए, सड़क पर निकले और एक कैफे में जाकर लस्सी पीने लगे। खुद को कोसते रहे—“कैसी बेवकूफी कर दी… बिना पूछे कैसे चला गया?”
उन्हें पता नहीं था कि यही गलती आगे जाकर उनके जीवन की सबसे सुंदर दोस्ती की बुनियाद बनेगी।
छह साल बाद वे फिल्मफेयर–यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स के टैलेंट कॉन्टेस्ट में आए और जीत गए। मेकअप रूम में उनकी मुलाकात एक लड़की से हुई, जो निकलकर दिलीप साहब की बहन फरीदा थीं। धर्मेंद्र ने उनसे विनती की कि वे उन्हें दिलीप साहब से मिलवा दें। अगले ही दिन फोन आया—“कल 48, पाली हिल घर आ जाइए।”
धर्मेंद्र पूरे सम्मान के साथ पहुंचे। दरवाज़ा दिलीप कुमार ने खुद खोला। दोनों लॉन में बैठे, दिलीप साहब ने अपने शुरुआती संघर्ष सुनाए, बॉलीवुड की धड़कनों की बातें साझा कीं। धर्मेंद्र चुपचाप उनकी हर बात को जैसे मन में दर्ज करते रहे—जैसे कोई शिष्य अपने गुरु की बातें आत्मसात करता है।
जब वे लौटने लगे, तो दिलीप साहब उन्हें अपने कमरे में ले गए और अलमारी खोलकर एक ऊनी स्वेटर निकाला।“बेटा, ठंड लग जाएगी… इसे पहन लो।”और उन्हें गले लगाकर दरवाज़े तक छोड़ने आए।यहीं से रिश्ते ने आकार लिया—जिसमें औपचारिकता नहीं, सिर्फ दिल था।

सायरा बानो की यादों में दर्ज वह शुरुआत
सायरा बानो ने सालों बाद बताया,“उस पहली मुलाकात में दिलीप साहब ने धर्मेंद्र से बड़े भाई की तरह बात की। धर्मेंद्र उनकी सादगी, उनके व्यवहार के मुरीद हो गए। और वह स्वेटर जो उन्होंने दिया… वहीं से दोनों के मिलना-जुलना शुरू हुआ।”
उसके बाद धर्मेंद्र बिना अपॉइंटमेंट के भी अक्सर घर पहुंच जाते। घरवाले भी उन्हें बेटे जैसा मानने लगे। दिलीप साहब से उनकी बातें सिर्फ फिल्मों तक सीमित नहीं रहीं-जीवन, परिवार, संघर्ष और इंसानियत तक फैल गईं।धर्मेंद्र स्वीकारते थे कि दिलीप साहब उनके लिए सिर्फ आदर्श नहीं थे,वे वह ज़मीन थे, जिस पर खड़े होकर वह खुद को पहचानते थे।
जब 1997 में धर्मेंद्र को फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड मिला, तो मंच पर वह वक्त भी आया जब दिलीप साहब ने कहा,“भगवान ने इन्हें फुर्सत से बनाया है। कभी-कभी सोचता हूं कि मेरी शक्ल ऐसी क्यों नहीं थी।”दर्शकों की तालियाँ, मंच की रोशनी और दो महान कलाकारों का गले लगना—वह क्षण आज भी बॉलीवुड के इतिहास में सोने के अक्षरों में दर्ज है।

‘बेताब’ की रात,जब बाप-बेटे के लिए मिला आशीर्वाद
सनी देओल की पहली फिल्म बेताब रिलीज़ होने वाली थी। उससे एक रात पहले धर्मेंद्र बेटा सनी की कई तस्वीरें लेकर दिलीप साहब के घर पहुंचे। उन्होंने बताया कि अमृता सिंह नसीर भाई और बेगम पारा की रिश्तेदार हैं।दिलीप साहब मुस्कुराए,
“बहुत अच्छा… सनी बहुत आगे जाएगा। उसे मेरा आशीर्वाद।”लॉन्चिंग पर उन्होंने सनी को सीने से लगाया। वह आशीर्वाद सच साबित हुआ—बेताब सुपरहिट हुई और सनी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
दो दिग्गज एक फ्रेम में,फिल्म ‘परी’
धर्मेंद्र और दिलीप कुमार ने 1966 में फिल्म परी में साथ काम किया। पर्दे पर दोनों की शालीनता, संवादों की गंभीरता और उनके व्यक्तित्व का मेल दर्शकों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं था।
अब जब धर्मेंद्र नहीं हैं…
दिलीप साहब पहले ही इस दुनिया से जा चुके थे। अब धर्मेंद्र के जाने से वह युग भी विदा हो गया, जहां दोस्ती दिल से बनती थी, जहां स्टारडम रिश्तों पर भारी नहीं पड़ता था, और जहां एक स्वेटर किसी जीवन की सबसे खूबसूरत शुरुआत बन सकता था।
धर्मेंद्र के लिखे शब्द आज बेहद अर्थपूर्ण लगते हैं,“आजकल ग़म-ए-दौरां से दूर, ग़म-ए-दुनिया से दूर…अपने ही नशे में झूमता हूं।”
आज यह नशा-यह प्रेम, यह दोस्ती—दोनों दोस्तों को फिर से एक जगह मिला चुका है। Bollywood का ‘ही-मैन’ अब अपने सबसे प्यारे दोस्त दिलीप कुमार के पास पहुँच चुका है—जहाँ न रोशनी की चकाचौंध है, न कैमरे की हलचल, सिर्फ एक अनंत दोस्ती का सुकून है।