फ़ौजी तानाशाही के साये में पाकिस्तान

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 23-11-2025
Pakistan under the shadow of military dictatorship
Pakistan under the shadow of military dictatorship

 

श्रीराम पवार

पाकिस्तान में वहां के फ़ौजी तानाशाह ने सारे इख़्तियार अपने हाथ में ले लिए हैं। अब वहां की अदालतें  भी उनके इशारे पर चलेंगी। फ़ौज के प्रमुख जनरल आसिम मुनीर ने बिना कोई ख़ून-ख़राबा किए यह सब बड़ी आसानी से कर दिखाया है। मज़हबी कट्टरपंथ की तरफ़ झुकाव रखने वाले एक जनरल के हाथ में ऐसी बे-लगाम ताक़त आना सिर्फ़ पाकिस्तान का अंदरूनी मसला नहीं है, बल्कि यह पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए ख़तरा बन सकता है।

पाकिस्तान में एक बदलाव बड़ी खामोशी से हो रहा है। जनरल ज़िया-उल-हक़ से लेकर जनरल मुशर्रफ़ तक, जो काम बड़े-बड़े फ़ौजी तानाशाह नहीं कर पाए, वह मौजूदा आर्मी चीफ़ आसिम मुनीर ने कर दिखाया है।

उन्होंने सीधे तख़्तापलट किए बिना ही सत्ता की लगाम अपने हाथ में रखने का पक्का इंतज़ाम कर लिया है। पाकिस्तान के संविधान में होने वाली 27वे संशोधन से मुनीर का क़द प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति से भी बड़ा हो जाएगा।

चुनी हुई सरकार का काम सिर्फ़ मुनीर के फ़ैसलों पर 'हां' में 'हां' मिलाना रह जाएगा। जनरल ज़िया के दौर में फ़ौज का जो इस्लामीकरण शुरू हुआ था, मुनीर अब उसे आख़िरी मुक़ाम तक लेकर जाएंगे। इसका असर पाकिस्तान की विदेश नीति और भारत के साथ रिश्तों पर भी पड़ेगा।

संविधान का मज़ाक़

पाकिस्तान में संविधान की धज्जियां उड़ाना कोई नई बात नहीं है। वहां पहला संविधान बनने में ही 1956 तक का वक़्त लग गया। फिर 1958 में मार्शल लॉ लगाकर उसे भी रोक दिया गया। इसे लागू करने वाले इस्कंदर मिर्ज़ा एक सिविलियन नेता थे, जिन्होंने जनरल अयूब ख़ान को साथ लिया। लेकिन अयूब ने मिर्ज़ा को ही हटाकर सत्ता हथिया ली। वहीं से पाकिस्तान में फ़ौज का जब चाहे सत्ता संभालने का रिवाज़ शुरू हुआ। अयूब ने ख़ुद को 'फ़ील्ड मार्शल' घोषित किया। 1969 में याह्या ख़ान नए तानाशाह बने और उन्होंने अयूब के संविधान को रद्दी की टोकरी में डाल दिया।

1971 की जंग में भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी और याह्या का राज ख़त्म हुआ। सत्ता ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के हाथ आई, जिन्होंने 1973 में एक नया संविधान बनाया। उसके बाद संविधान को पूरा ख़त्म करने के बजाय, उसमें अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ बदलाव करने का सिलसिला शुरू हुआ। 27वें संशोधन के साथ यह अपनी हद पार कर चुका है।

अयूब ख़ान को फ़ील्ड मार्शल बनने के लिए सरकार गिरानी पड़ी थी, लेकिन मुनीर ने सरकार को कागज़ पर क़ायम रखते हुए बड़ी चालाकी से सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए हैं। उन्होंने मुशर्रफ़ को भी पीछे छोड़ दिया है और यह पक्का कर लिया है कि सत्ता जाने के बाद उन पर मुक़दमे चलने की नौबत ही न आए।

एक ही हाथ में सारी ताक़त

पाकिस्तान में फ़ील्ड मार्शल मुनीर को बे-पनाह ताक़त देने वाले इस संशोधन को फ़ौज का 'बिना ख़ून बहाए किया गया तख़्तापलट' माना जा रहा है। यह बदलाव इतनी जल्दबाज़ी में लाया गया कि जब मसौदे को कैबिनेट की मंज़ूरी चाहिए थी, तो प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ विदेश में थे। उन्होंने वहीं से वीडियो कॉन्फ्रेंस के ज़रिए मीटिंग में हिस्सा लेकर मंज़ूरी की रस्म पूरी की।

जब यह बिल सीनेट में पास हुआ, तो इमरान ख़ान की पार्टी को छोड़कर बाकी सभी पार्टियों ने चुपचाप सर झुका लिया। जब यह क़ानून लागू होगा, तो मुनीर के पास असीमित अधिकार होंगे और जम्हूरियत का 'चेक्स एंड बैलेंस' का उसूल ख़त्म हो जाएगा।

भारत और पाकिस्तान को अंग्रज़ों से एक जैसा फ़ौजी विरसा (विरासत) मिला था। लेकिन भारत ने फ़ौज पर लोकतांत्रिक सरकार का कंट्रोल बनाए रखा, जबकि पाकिस्तान में फ़ौज ने यह डर बैठाकर कि ‘देश का वजूद सिर्फ़ फ़ौज पर टिका है’, पूरी व्यवस्था पर क़ब्ज़ा कर लिया। अब पाकिस्तान में आर्मी चीफ़ का मतलब एक पेशेवर सैनिक नहीं रहा। कभी थोड़ी-बहुत पेशेवर रही पाकिस्तानी फ़ौज अब तेज़ी से मज़हबी रंग में रंग रही है।

ज़िंदगी भर के लिए फ़ील्ड मार्शल

मुनीर का कार्यकाल 27 नवंबर को ख़त्म होने वाला था। उससे पहले ही उन्होंने ख़ुद को फ़ील्ड मार्शल बना लिया। पाक सिस्टम में यह पद ही नहीं था, लेकिन 27वें संशोधन के ज़रिए मुनीर इसे क़ानूनी शक्ल दे देंगे। इस बदलाव से तीनों सेनाओं के लिए एक ‘यूनिफाइड कमांड’ बनेगी, जिसका पूरा कंट्रोल ‘चीफ़ ऑफ़ डिफेंस फ़ोर्सेज’ (CDF) के तौर पर मुनीर के पास होगा।

तीनों सेनाओं के प्रमुख के तौर पर राष्ट्रपति के अधिकार अब आर्मी चीफ़ के पास चले जाएंगे। मुनीर ता-उम्र ‘फ़ील्ड मार्शल’ रहेंगे। उन पर जीते-जी कभी कोई फ़ौजदारी मुक़दमा नहीं चलाया जा सकेगा। अगर उन्हें हटाना हो, तो संसद में दो-तिहाई बहुमत की ज़रूरत होगी, जो नामुमकिन है।

इसका मतलब यह है कि आर्मी चीफ़ अब संवैधानिक तौर पर पाकिस्तान का सबसे ताक़तवर पद बन रहा है। अनुच्छेद 243 में बदलाव करके मुनीर ने फ़ौज के सारे अधिकार, अफ़सरों की नियुक्तियां और तनख़्वाह के फ़ैसले अपने हाथ में ले लिए हैं। मुनीर वह सपना पूरा कर रहे हैं जो पाकिस्तान के कई जनरलों ने देखा था।

यहां तक कि परमाणु हथियारों का कंट्रोल भी अब 'नेशनल स्ट्रैटेजिक कमांड' के ज़रिए मुनीर के पास आने वाला है।

अदालतों पर शिकंजा और भारत के लिए चिंता

इस बदलाव का असर न्यायपालिका पर भी पड़ेगा। पाकिस्तान में कभी-कभी जजों ने रीढ़ की हड्डी दिखाई है, लेकिन नए बदलावों से यह रास्ता भी बंद किया जा रहा है।

एक अलग 'संवैधानिक अदालत' बनेगी, जिसके जजों की नियुक्ति सरकार की सलाह पर होगी—यानी परोक्ष रूप से आर्मी चीफ़ के इशारे पर।दुनिया और ख़ासकर भारत के लिए यह बदलाव बहुत अहम है। पहले माना जाता था कि आर्थिक रूप से बर्बाद हो रहा पाकिस्तान भारत से बातचीत करेगा, लेकिन मुनीर के आने के बाद यह सुर बदल गया है।

अमेरिका के फ्लोरिडा में पाकिस्तानी नागरिकों से बात करते हुए उन्होंने धमकी भरे लहजे में कहा था, "हम एक परमाणु ताक़त हैं। अगर हमें लगा कि हम डूब रहे हैं, तो हम आधी दुनिया को साथ लेकर डूबेंगे।" भले ही कोई पाक की धमकियों को गंभीरता से न ले, लेकिन एक फ़ौजी अफ़सर का खुलेआम परमाणु हथियारों पर बोलना ख़तरे की घंटी है।

बढ़ता मज़हबी उन्माद

मुनीर, मुशर्रफ़ की तरह मुहाजिर नहीं, बल्कि पंजाबी हैं। पंजाबी मुसलमानों का पाकिस्तान पर पहले से ही दबदबा है। मुनीर उन पुराने जनरलों से अलग हैं जो निजी ज़िंदगी में पश्चिमी तौर-तरीक़ों को मानते थे। मुनीर 'हाफ़िज़-ए-क़ुरान' हैं और उनकी पढ़ाई मदरसे में हुई है।

उनके लिए मज़हब सिर्फ़ सत्ता पाने का ज़रिया नहीं, बल्कि दुनिया को देखने का नज़रिया है। फ़ौज का इस्लामीकरण करने की उनकी कोशिश साफ़ है। उनकी शब्दावली भी मध्ययुगीन है—वे 'फ़ितना' और 'ख़्वारिज' (बाग़ी) जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।

तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान को 'फ़ितना अल ख़्वारिज' और बलूचिस्तान के बाग़ियों को 'फ़ितना-अल-हिंदुस्तान' कहा जा रहा है। इसका मक़सद फ़ौजी संघर्ष को 'धर्मयुद्ध' का रूप देना है।

उनके इसी बर्ताव की वजह से उन्हें अक्सर 'जिहादी जनरल' कहा जाता है। ऐसे मुनीर के हाथों में जब पाकिस्तान की सारी डोर होगी, जो अमेरिका से लेकर चीन और सऊदी अरब तक की नीतियां तय कर रहे हैं, तो यह भारत के लिए चिंता की बात है। एक ऐसा जनरल जो धर्मांधता की तरफ़ झुका हो और जिसके पास निरंकुश सत्ता हो, वह पूरे क्षेत्र की शांति के लिए ख़तरा बन सकता है।