सरहद के उस पार: खुतबे में इमाम की मौत पर मंथन की जरूरत क्यों ?

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 29-04-2023
सरहद के उस पार: खुतबे में इमाम की मौत पर मंथन की जरूरत क्यों ?
सरहद के उस पार: खुतबे में इमाम की मौत पर मंथन की जरूरत क्यों ?

 

मलिक असगर हाशमी

मोरक्को के उमर इब्न अल-खत्ताब मस्जिद के इमाम की पिछले शुक्रवार को खुतबे के दौरान मौत हो गई. इससे संबंधित एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है. इस वीडियो में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है कि खुतबा यानी नमाज से पहले की तकरीर देते समय इमाम साहब आगे पीछे झूल रहे हैं.फिर ज्यादा तबियत बिगड़ने के बाद उन्हें एक व्यक्ति  मिम्बर यानी उस मंच पर बैठा देता है जिसपर खड़े होकर वह खुतबा दे रहे थे. फिर देखते ही देखते उनकी मौत हो जाती है. वीडियो में स्पष्ट दिख रहा है कि प्राण-पखेड़ू निकलने से पहले इमाम साहब आसमान की ओर उंगली उठा कर  कलमा पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.

इस पूरे घटनाक्रम का वीडियो इतने करीब से बनाया गया है कि इसमें इमाम साहब की आवाज बखूबी सुनी जा सकती है. यहां तक कि इमाम साहब जब कलमा पढ़ने की कोशिश करते हैं, वह आवाज भी इसमें कैद हो गई है.
 
 
वीडियो बनाते समय कई बार कैमरे को जूम किया गया. यानी यह वीडियो एक इमाम के मौत की पूरी रिकॉर्डिंग है. इससे पहले भी इस तरह का वीडियो किसी मुस्लिम देश के इमाम के प्राण त्यागने का वायरल हो चुका है.
 
ऐसी घटनाओं के साथ ही यह सवाल भी पैदा होता है कि क्या वीडियो बनाने वाले को पूरा यकीन था कि इमाम साहब की खुतबे के दौरान मौत होने वाली है ? या यह महज इत्तेफाक था ! इसी से जुड़ा एक अहम सवाल यह है कि जब पत्रकारों द्वारा घटना के शिकार किसी व्यक्ति को समय पर प्राथमिक उपचार देने की बजाए वीडियो बनाने पर लताड़ा जाता है तो क्या ऐसे सवाल उन लोगों से नहीं पूछे जाने चाहिए जिन्होंने इमाम साहब की अंतिम सांस लेते वीडियो बनाया है ?
 
मोरक्को के उमर इब्न अल-खत्ताब मस्जिद के इमाम के खुतबे का जो वीडियो वायरल हो रहा है, उसमें साफ झलकता है कि उनकी तबीयत बेहद खराब है. वह खुतबा देते समय आगे पीछे झूल रहे थे.
 
उनकी आवाज भी लड़खड़ा रही थी. बावजूद इसके नमाजियां से भरे मस्जिद में  किसी शख्स ने भी कतार से उठकर उनकी स्थिति जानने और तत्काल प्राथमिक उपचार दिलाने की पहल नहीं की.
 
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चिंताजनक बात यह है कि इस अहम मसले पर चिंतन-मनन करने की जगह ‘ इमाम की मौत को इस्लामिक नजरिए से आइडियल’ मानकर इंडिया में वह वीडियो ‘माशाअल्लाह’ लिखकर व्हाट्सएप पर वायरल किया जा रहा है.
 
इन सवालों को लेकर लेखक ने कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवियों से उनकी राय जाननी चाही तो लभगभग सभी ने असली मुद्दे पर जवाब देने की बजा इस तर्क के साथ संतुष्ट करने की कोशिश की कि खुतबे में वीडियो बनाना गुनाह नहीं है. किसी ने कहा, वीडियो कोई बच्चा बना रहा होगा. एक ने कहा, इमाम साहब अच्छे सुर में खुतबा पढ़ रहे होंगे इसलिए कोई उन्हें रिकाॅर्ड कर रहा होगा.
 
यहां सवाल वीडियो बनाने का नहीं है. असली सवाल मानवता का है. कोई इंसान दर्जों व्यक्तियों के सामने अपने प्राण त्याग रहा हो और सारे तमाशबीन बने बैठ  देखते रहें, यह तो सही नहीं है. 
 
मस्जिद प्रबंधन से भी सवाल पूछना चाहिए कि जब इमाम की तबियत इतनी ज्यादा खराब थी तो उसे अस्पताल भेजने की बजाए नमाज पढ़ाने की इजाजत क्यों दी गई ? क्या यह किसी को जानबूझकर मारने जैसा नहीं है ?
 
अगर मस्जिद प्रबंधन यह कहता है कि उसे इस बात का इल्म नहीं कि इमाम साहब की तबियत खराब चल रही है, तो यह और भी गंभीर है. मस्जिद का ‘स्टाफ’ गंभीर रोग का शिकार है और प्रबंधन को इसका पता ही नहीं ?
 
हार्ट अटैक पहली बार आए या दूसरी अथवा तीसरी बार. अस्वस्थ व्यक्ति को ही आता है. पिछले साल भारत के दो युवा टीवी कलाकारों सिद्धार्थ शुक्ला और ‘भाभी जी घर पर हैं’ फेम दीपेश भान की दिल का दौरान पड़ने से मौत हो गई थी.
 
इसी तरह इस साल निर्माता,निर्देशक और अभिनेता सतीश कौशिक हृदयाघात से चल बसे. कौशिक के बारे में बताया गया कि उन्हें पहले से इस तरह की शिकायत थी. यानी वह पहले से दिल के रोगी थे.
 
जबकि दोनों युवा कलाकारों की मृत्यु की वजह जरूरत से ज्यादा एक्सरसाइज करना बताया गया है. इन तीन नामचीन शख्यियतों का उदारण यहां यह समझाने के लिए दिया गया है कि बिना किसी कारण के दिल का दौरा पड़ने से मौत नहीं हो सकती.
 
मोरक्को के उमर इब्न अल-खत्ताब मस्जिद के इमाम साहब उम्रदराज दिख रहे हैं, इसलिए उनकी मौत की वजह बहुत हद तक बीमारी रही होगी. अत्याधिक एक्सरसाइज कतई नहीं हो सकती. बावजूद इसके उनकी मौत पर मंथन नहीं किया जा रहा है.
 
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कुछ इस्लामिक देशों को छोड़ दें तो ज्यादातर मुल्कों के मस्जिद के इमामों और मुअज्जिनों को नाम मात्र की तनख्वाह मिलती है. भारत में इमामों की यह शिकायत आम है. यदि थोड़े पैसे किसी को मिलेंगे तो ‘नंगा खाएगा क्या, निचोड़ेगा क्या ?’
 
मोरक्को के उमर इब्न अल-खत्ताब मस्जिद के इमाम यदि पैसे से संपन्न होते तो शायद नमाज पढ़ाने की जगह अस्पताल जाकर इलाज कराने को तरजीह देते.हालांकि, इस्लामिक विद्वान प्रो. अख्तरुल वासे इन तमाम संभावनाओं को खारिज करते हुए कहते हैं कि 1895 में ही तस्वीर खींचने पर रोक के खिलाफ फतवा आ चुका है.
 
इसलिए इस्लामिक नजरिए से मस्जिद में तस्वीर, वीडियो बनाने पर कोई रोक नहीं. उनका यह भी कहना है कि इमाम साहब की तबीयत खराब है. यह उन्हें बताना चाहिए था. नमाज पढ़ने वालों को कैसे पता चलेगा कि उनकी तबियत बिगड़ रही है, इसलिए उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करवाते.
 
वासे साहब की इन दलीलों के बावजूद तमाम हालातों पर मंथन और मस्जिद जैसी जगह पर संवेदनशीलता दिखना तो बनता ही है और इसकी उम्मीद भी की जाती है.