हिलाल अहमद
भारत और पाकिस्तान के बीच हालिया सशस्त्र संघर्ष एक अहम वैचारिक टकराव को उजागर करता है. पाकिस्तान की सत्ता व्यवस्था अभी भी यूरोप-केंद्रित राष्ट्र-राज्य की पुरानी अवधारणा पर अड़ी हुई है, जो एक धर्म (इस्लाम), एक संस्कृति (मुस्लिम), और एक भाषा (उर्दू) पर आधारित है.
इस बुनियादी सिद्धांत को बनाए रखने और उचित ठहराने के लिए पाकिस्तान के शासक वर्ग अनिवार्य रूप से मोहम्मद अली जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत पर निर्भर रहते हैं. यही विचार उन्हें भारत को एक ‘हिंदू राष्ट्र-राज्य’ के रूप में दिखाने में मदद करता है, जबकि वे बांग्लादेश के अस्तित्व को नजरअंदाज कर देते हैं — जो पाकिस्तान की कहानी में एक ‘अनचाही दरार’ है.
भारत, इसके ठीक विपरीत, एक दोहरी चुनौती पेश करता है. भारतीय संविधान यूरोपीय राष्ट्र-राज्य की अवधारणा को नहीं मानता; यह भारत की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता को राजनीतिक ताकत के रूप में स्वीकार करता है.
इसलिए यह संघर्ष सिर्फ दो परमाणु शक्तियों के बीच का युद्ध नहीं है, बल्कि यह एक वैचारिक संघर्ष है, जो लगभग आठ दशकों से चला आ रहा है.
अब आइए इस संघर्ष की घटनाक्रम को समझते हैं. पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर ने पहलगाम हमले से पहले भारत-विरोधी एक बेहद भड़काऊ भाषण दिया.
उन्होंने स्पष्ट किया कि पाकिस्तान का भारत विरोध, जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत से प्रेरित है. मुनीर ने कहा कि हिंदू और मुसलमानों के बीच बुनियादी मतभेद ही पाकिस्तान की वैचारिक नींव हैं, और इसीलिए मुस्लिम पाकिस्तान, कश्मीर में इस्लाम के नाम पर चल रही सशस्त्र लड़ाई का समर्थन करता रहेगा ताकि ‘हिंदू भारत’ को हराया जा सके.
पहलगाम नरसंहार इसी वैचारिक स्थिति का सीधा परिणाम था। इस आतंकी हमले की तीन विशेषताएं थीं, जो इसे अभूतपूर्व बनाती हैं:
सॉफ्ट टारगेट: आतंकियों ने गैर-मुस्लिम आम पर्यटकों को निशाना बनाया. इनकी मौजूदगी से पाकिस्तान-समर्थित आतंकी नेटवर्क को चुनौती मिली, क्योंकि हालिया चुनावों में कश्मीरी जनता की भागीदारी ने यह स्पष्ट कर दिया कि कश्मीरी मुस्लिम भारत के लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं. आतंकियों ने यह दिखाने की कोशिश की कि उनकी पकड़ अब भी है — और निर्दोष पर्यटक आसान लक्ष्य थे.
सांप्रदायिक रंग: हमले के दौरान आतंकियों ने पीड़ितों से उनका धर्म पूछा और कुछ को कलिमा पढ़ने के लिए मजबूर किया. इससे हमले को 'मुसलमान बनाम हिंदू' की वैचारिक रेखा में ढालने की कोशिश की गई, जैसा कि मुनीर ने अपने भाषण में भी कहा था.
हिंसा का प्रदर्शन: आतंकियों को पता था कि यह हिंसा रिकॉर्ड की जाएगी और फैलायी जाएगी. वे चाहते थे कि यह डरावनी तस्वीरें, वीडियो, मीम्स आदि के ज़रिए यह संदेश दिया जाए कि हिंदू और मुस्लिम एक स्थायी युद्ध में हैं — द्विराष्ट्र सिद्धांत की पुनरावृत्ति.
भारतीय प्रतिक्रिया, विशेषकर मुस्लिम समुदाय की, इससे बिल्कुल अलग रही. कश्मीर के आम लोग, धार्मिक नेता, राजनीतिक वर्ग और नागरिक समाज संगठनों ने पहलगाम हमले की कड़ी निंदा की.
कश्मीरी मुसलमानों ने साफ किया कि वे पाकिस्तान या किसी तथाकथित ‘जिहादी’ समूह से कोई संबंध नहीं चाहते. स्थानीय कश्मीरी युवक सैयद आदिल हुसैन शाह की शहादत को पाकिस्तान-प्रेरित आतंकवाद के खिलाफ कश्मीर की असल आवाज के रूप में पेश किया गया.
कश्मीर के बाहर भारतीय मुस्लिमों की प्रतिक्रिया भी यही थी. हमले के बाद जुमे की नमाज में देशभर की मस्जिदों से इसकी आलोचना की गई, लोग काले बैंड पहनकर आतंकवाद के विरोध में शामिल हुए.
मुस्लिम धार्मिक संगठन, नागरिक समाज के प्रमुख नेता और AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी सहित राजनीतिक हस्तियों ने भी पहलगाम हमले की निंदा की और सरकार से पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कदम उठाने की मांग की.
इस व्यापक प्रतिक्रिया को महज़ रणनीतिक बचाव के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह एक गहरा बोध दर्शाता है — आज की पीढ़ी के भारतीय मुसलमानों का पाकिस्तान या द्विराष्ट्र सिद्धांत से कोई भावनात्मक, राजनीतिक या मानसिक लगाव नहीं है.
CSDS-लोकनीति के सर्वे वर्षों से दिखा रहे हैं कि एक भी भारतीय मुस्लिम पाकिस्तान जाकर बसना नहीं चाहता. जिनके रिश्तेदार पाकिस्तान में हैं, उनके अनुभव भी सकारात्मक नहीं हैं.
वहां भारतीय मुसलमानों के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया होता है. बावजूद इसके, भारत में मुस्लिम समुदाय पर हमेशा पाकिस्तानपरस्त होने का आरोप लगाया जाता है. पहलगाम हमला उनके लिए अपने भारतीय मुस्लिम अस्तित्व की स्पष्टता और स्वतंत्र पहचान को सामने लाने का मौका बन गया.
भारत सरकार की आधिकारिक प्रतिक्रिया भी इस जनभावना को समझती दिखी. ‘ऑपरेशन सिंदूर’, केवल एक सैन्य कार्रवाई नहीं, बल्कि एक गहरा प्रतीकात्मक संदेश भी है। दो बातें खास हैं:
‘सिंदूर’ का प्रतीक: आतंकियों ने गैर-मुस्लिम पुरुषों को मारकर उनकी पत्नियों, परिवारों और समुदायों को संदेश देने की कोशिश की. इस ‘मुस्लिम मर्दानगी’ की कल्पना को ‘सिंदूर’ जैसे प्रतीक से चुनौती दी गई — जो जीवन, प्रेम और सांस्कृतिक आस्था का प्रतीक है. आप इससे सहमत हों या असहमत, लेकिन यह संदेश स्पष्ट है कि निर्दोषों की हत्या को किसी भी बहाने से वीरता नहीं माना जा सकता.
महिला सैन्य अधिकारियों की भूमिका: इस ऑपरेशन की जानकारी प्रेस को कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह ने दी. यह निर्णय न केवल लैंगिक समानता का प्रतीक था, बल्कि यह भी दिखाता है कि भारत एक ऐसा देश है, जहां हर धर्म और हर वर्ग के लोग — मुसलमानों सहित — बराबरी और सम्मान के साथ शामिल हैं.
निष्कर्षतः, पाकिस्तान वैचारिक रूप से पहले ही हार चुका है, क्योंकि भारत ने कभी भी ‘हिंदू पाकिस्तान’ बनने की दिशा नहीं अपनाई.
– हिलाल अहमद, एसोसिएट प्रोफेसर, CSDS, नई दिल्ली