एक जरूरी विमर्श की शर्त

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 02-06-2025
a necessary condition for discussion
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har हरजिंदर

मुस्लिम आरक्षण का मामला फिर फंस गया. यह न सरकारी नौकरियों में आरक्षण का मामला है और न शिक्षा संस्थानों में अल्पसंख्यकों को अवसर देने का मामला. यह मामला कर्नाटक का है ,जहां एक करोड़ रुपये तक के सरकारी ठेकों में मुस्लिम समुदाय को चार फीसदी आरक्षण देने का प्रस्ताव  सरकार ने पास किया था. यह आरक्षण उन्हें कर्नाटक ट्रांसपिरेंसी इन पब्लिक प्रोक्योरमेंट एक्ट में संशोधन के जरिये दिया जाना था.

सरकार ने इसे अपने अफर्मेटिव एक्शन का नतीजा बताया था. बहुत सारे विशेषज्ञों ने इस संरचनात्मक सुधार माना था. कुछ ने इसकी तारीफ भी की था. यह कहा गया था कि एक ऐसा क्षेत्र जहां मुस्लिम समुदाय के लोगों की भागीदारी बहुत कम है, ऐसे तरीके अपना कर अच्छे परिणाम हासिल किए जा सकते हैं.

इसका विरोध भी काफी हुआ. भारतीय जनता पार्टी ने इसे हमेशा की तरह तुष्टिकरण की राजनीति बताया. तमाम नेताओं ने कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार के लिए और भी कईं तरह के विशेषण इस्तेमाल किए.

यह भी तय हो गया कि इस मसले पर अब सरकार को घेरने का सिलसिला जारी रहेगा. इसकी भूमिका राज्य विधानसभा चुनाव के समय  शुरू हो गई थी, जब मुस्लिम आरक्षण एक जितना है नहीं उससे कहीं ज्यादा बड़ा मुद्दा बन गया था.

उस दौर के भाषणों और बयानों की तल्खी आज भी अक्सर सोशल मीडिया पर शेयर की जाती है.इस सबसे बड़ी बात यह है कि विधानसभा में पारित यह संशोधन विधेयक जब राज्यपाल के पास पहंचा तो उन्होंने उसे सरकार को लौटा दिया.

राज्य सरकार ने इसे फिर राज्यपाल के पास भेजा. उन्होंने इसे फिर से लौटा दिया. यह जरूर है कि कर्नाटक के राज्यपाल से एक नहीं दो बार इसे लौटाया. तमिलनाडु के राज्यपाल की तरह नहीं किया जिन्होंने राज्य सरकार के कईं प्रस्तावों को न तो पास किया और न ही लौटाया.

अब कर्नाटक सरकार ने तय किया है कि इस विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा. आशंका  है कि वहां से भी शायद निराशा ही मिले.  अगर यह किसी तरह से पास हो गया तो इसकी भी पूरी आशंका है कि सरकार बदलते ही यह प्रावधान बदल जाए. जैसा कि कईं बार पहले हो भी चुका है.

मुस्लिम समुदाय या उसके कुछ तबकों को दिए जाने वाले आरक्षण का मामला थोड़ा टेढ़ा है. राजनीति ने उसे काफी जटिल बना दिया है. साथ ही उसमें कईं तरह की सांप्रदायिक तल्खी भी डाल दी है.

मुस्लिम समुदाय की कुछ ‘जातियों‘ को कईं राज्यों में अन्य पिछड़ी जातियों में शामिल किया गया है. उन्हें आरक्षण की सुविधा भी कुछ तक मिलती है. लेकिन हर जगह यह तलवार लटकी रहती है कि सरकार बदलते ही यह सुविधा कभी भी जा सकती है.

पसमांदा की बात करने वाले कुछ राजनीतिक दल भी आखिर में उन्हें सामाजिक न्याय देने के सवाल पर न सिर्फ पीछे हट जाते हैं, उस पर राजनीति भी शुरू कर देते हैं.

इस रोज-रोज की राजनीति और सरकार बदलते ही फैसले वापस हो जाने से निजात तभी मिल सकती है, अगर अल्पसंख्यक समुदाय और उनके तबकों को आरक्षण देने के लिए एक राष्ट्रीय आम सहमति बनाने की कोशिश की जाए.

यह तभी हो सकता है जब इसके लिए एक सकारात्मक विमर्श शुरू हो, जिसकी संभावना फिलहाल बहंत कम दिखती है. इस विमर्श की जरूरी शर्त है कि समाज में जो लगातार नफरत को माहौल बनाया जा रहा है, वह पूरी तरह से खत्म हो. वर्ना ऐसा विमर्श ही तनाव और नफरत बढ़ाने का कारण बन सकता है. फिलहाल तो इन दोनों ही चीजों के आसार नजर नहीं आ रहे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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