हिंदुस्तानी तहज़ीब और अदबी रिवायत को साथ लेकर चलने वाले उर्दू आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 30-09-2022
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी

 

ज़ाहिद ख़ान

समूचे दक्षिण एशिया की उर्दू-हिंदी अदबी दुनिया में शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का नाम किसी तआरुफ़ का मोहताज़ नहीं. उनका नाम बड़े ही इज़्ज़त-ओ-एहतराम के साथ लिया जाता है. आधुनिक उर्दू आलोचना में किया गया फ़ारूक़ी का काम संगे मील है. उर्दू में जदीदयत के अदबी रवैये को बढ़ावा देने में जिन शख़्सियतों के नाम आते हैं, उनमें भी शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का नाम सबसे अव्वल नंबर पर शुमार किया जाता है.

बुनियादी तौर पर अंग्रेजी अदब के स्टूडेंट रहे फ़ारूक़ी ने 19वीं सदी के उर्दू अदब और उसकी रिवायत को ठीक से समझने के लिए पहले तनक़ीद के फ़न में अपनी पैठ बनाई और फिर अफ़साना निगार बने. उर्दू तनक़ीद को वे नई ऊंचाईयों पर ले गए.

तनक़ीद के बारे में उनका ख़याल था,‘‘तनक़ीद का पहला काम अदब के बारे में बुनियादी सवाल उठाना है.’’ इसी नुक्ता-ए-नज़र के चलते उन्होंने तनक़ीद के क्षेत्र में बेमिसाल कारनामे अंज़ाम दिए.  गोयाकि आलोचना, शायरी, अफ़साने, दास्तान, छंदशास्त्र और कोश निर्माण में तारीख़ी कारनामें अंज़ाम देने वाले शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने एक उपन्यास ‘कई चाँद थे सरे आसमां’ लिखा. यह उपन्यास कई ज़बानों में अनुवाद हुआ. ‘द मिरर ऑफ़ ब्यूटी’, उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद है.

अपने पहले ही उपन्यास में उन्होंने जिस रंग-ओ-ज़मीन का इस्तेमाल किया, वह बेमिसाल था. 18वीं-19वीं सदी यानी इन दो सदियों में हमारे मुल्क में हिंद-इस्लामी दुनिया क्या थी ? उस दौर की तहज़ीब, अदबी समाज कैसा था ? अंग्रेजी हुक्मरानों और उनकी हुकूमत की वजह से समाज में क्या-क्या तब्दीलियां आ रही थीं ? किस तरह से मुग़लिया सल्तनत का जवाल हुआ और ईस्ट इंडिया कंपनी का हिंदुस्तान पर शिक़ंजा बढ़ा ? इस एक किताब में पूरी तरह समा गया है.

बहादुरशाह जफ़र, मलिका जीनत महल, नवाब शम्सुद्दीन अहमद, मिर्जा ग़ालिब, उस्ताद जौक, नवाब मिर्जा खाँ ‘दाग’, इमाम बख़्स सहबाई, मिर्जा फत्हुलमुल्क, एहतामुद्दोला, महादाजी सिंधिया, जेम्स स्किनर उर्फ सिकंदर साहब, मिर्जा मुग़ल बहादुर, साइमन फ्रेजर, मिर्जा इस्फंदयार बेग, वसीम जाफ़र, विलियम फ्रेजर, टॉमस बेकन, फैनी पार्क्स, टॉमस मैटकाफ और वजीर ख़ानम जैसे बहुतेरे हक़ीक़ी एतिहासिक किरदारों की वजह से यह किताब एक इतिहास भी है. जो बिल्कुल अलहदा और जुदा अंदाज़ में लिखा गया है.

‘कई चाँद थे सरे आसमां’ 18वीं सदी के राजपूताने से शुरू होकर, साल 1856 यानी डेढ़ सदी का लंबा सफ़र तय करता है. जिसमें कई तवारीख़ें, वाक्यात और सैकड़ों किरदार आवाजाही करते हैं. लेकिन यह उपन्यास ख़ास तौर पर छोटी बेगम उर्फ वजीर बेगम उर्फ वजीर ख़ानम उर्फ शौकत महल की ज़िंदगी पर मब्नी है. जिसमें कई और दास्तानें, उपकथाएं जुड़ती चली जाती हैं. इन दास्तानों में ग़ज़ब की किस्सागोई है.

लेखक ने उपन्यास में गोयाकि उस दौर की ऐसी मंज़रकशी की है कि पूरा माहौल ज़िंदा हो गया है. तिस पर उर्दू ज़ुबान की लज्जत, मुहावरेदार बोलते संवाद और फारसी-रेख़्ता शायरी का दिलकश अंदाजे बयां. पूरी किताब पढ़कर, दिल-ओ-दिमाग पर एक अज़ब सी क़ैफ़ियत तारी हो जाती है.

कहने को बाहरी तौर पर उपन्यास ‘कई चाँद थे सरे आसमां’ हिंद इस्लामी तहज़ीब और उस दौर के अदबी समाज के कई पैकर पेश करता है. लेकिन अपनी रूह में यह स्त्री मुक्ति का उपन्यास है. उपन्यास के अहम किरदार वजीर ख़ानम के मार्फ़त उपन्यासकार शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने जो स्त्री विमर्श की तजवीज़ पेश की है, वह लाज़वाब है.

हमारे मुल्क में कोई सोच भी नहीं सकता कि उस सामंती दौर में जब औरत को ख़ानगी (बिना शादी के बीबी की तरह रखना) बनाकर रखना और मुताअ (सीमित अवधि की शादी) करना आम था, औरत को नाम लेवा की आज़ादी थी, मर्द औरत के साथ अपने संबधों को लेकर कोई बंधन या जिम्मेदारी मंज़ूर करने से बचता था, तब औरत के अंदर ऐसी चेतना या आग होगी.

‘कई चाँद थे सरे आसमां’ लेखक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का अज़ीम शाहकार है. उपन्यास जब आया, समूचे उपमहाद्वीप के पाठकों ने इसे ठीक उसी तरह से हाथों-हाथ लिया, जिस तरह से कभी मिर्जा हादी रुसवा के ऐतिहासिक उपन्यास ‘उमराव जान’, काजी अब्दुस्सत्तार के ‘दारा शिकोह’ और कुर्रतुल-ऐन-हैदर के उपन्यास ‘आग का दरिया’ को लिया था.

ज़ाहिर है इसकी एक बड़ी वजह उपमहाद्वीप का सांझा इतिहास भी है. शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने ऐतिहासिक तथ्यों के सहारे न सिर्फ उस दौर के किरदारों को पुनर्जीवित किया है, बल्कि उन्हें पुनर्व्याख्यायित भी किया है. इसके पीछे फ़ारूक़ी का गहन अनुसंधान साफ झलकता है.

उपन्यास में जिस तरह से बारीक से बारीक ब्यौरे नुमायां हुए हैं, गोयाकि यह सब बिना लेखकीय जुनून और जी तोड़ मेहनत के मुमकिन नहीं था. मसलन गुजरात के सीदियों से मुताल्लिक, राजपूताने की रेख़ाकारी, कश्मीर की चित्रकला,कश्मीरी कालीन के नक्शे और उसकी पेचीदा तालीम, मुहर्रम के नौहे, अवध और दिल्ली की गंगा-जमुनी तहज़ीब, मुग़लिया सल्तनत की शानो-शौकत, शायरों-फ़नकारों की ज़िंदगी और उस दौर की तमाम छोटी-बड़ी बातें. जिन्हें हम इतिहास की तमाम किताबें पढ़कर भी नहीं जान सकते.

एक लिहाज़ से कहें, तो शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी अपने अंदर सैकड़ों साल की तहज़ीब और इल्म समेटे हुए थे. जो इस उपन्यास में उभरकर सामने आया है. फ़ारूक़ी ने वजीर ख़ानम के किरदार के जरिए स्त्री मुक्ति, स्त्री नियति को विश्लेषित किया है. वह हमारे लिए ज्यादा मानीख़ेज है. फ़ारूक़ी औरत की ज़िंदगी पर मर्सिया नहीं पढ़ते, बल्कि उन्होंने अपनी नायिका को प्रतिरोध की मूर्ति बनाया है.

‘कई चाँद थे सरे आसमां’ सबसे पहले उर्दू में प्रकाशित हुआ. जिसका पहला संस्करण ‘पेंगुईन बुक्स, इंडिया’ ने साल 2006 में निकाला और पाकिस्तान में भी यह उपन्यास ‘शहरजाद प्रकाशन’ से प्रकाशित हो मक़बूल हो चुका है.

उर्दू अदब में ‘कई चाँद थे सरे आसमां’ की अहमियत और मक़बूलियत को देखते हुए ही पाकिस्तानी हुकूमत ने शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी को उर्दू अदब की ख़िदमत के लिए अपने यहां के सबसे बड़े अदबी सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज़’ से नवाज़ा. हिंदी में यह उपन्यास अलबत्ता कुछ देरी से आया.

जहां तक उपन्यास की भाषा का सवाल है, चाहे किरदारों के संवाद हों, या कोई आख्यान किसी पुराने किरदार की ज़बान से बयान किया जा रहा है, तो इस संवाद के आख्यान में वही लफ़्ज़ बरते गए हैं, जो उस दौर में प्रचलित थे. उपन्यासकार ने यहां भी किसी तरह का कोई समझौता नहीं किया है.

फ़ारूक़ी ने भाषा के लालित्य पर खास तौर से ध्यान दिया है. चूंकि उपन्यास के कई किरदार शाईर या शाईर मिजाज़ हैं, लिहाजा गद्य में शायरी का अच्छा खासा दखल है. मगर यह शेरो-शायरी विषय में कहीं रुकावट नहीं बनती. बल्कि इससे गद्य में और भी प्रवाह आ जाता है.

‘कई चाँद थे सरे आसमां’ हमारे बीते दौर का अनमोल सरमाया है, जिसे शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने किताब के तौर पर हमेशा के लिए महफ़ूज कर दिया है. इस उपन्यास को पढ़कर यदि ओरहान पामुक, विलियम डेलरिम्पल जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखक भी फ़ारूक़ी के लेखन के मुरीद हो गए, तो उसके पीछे कुछ तो बात है.

‘कई चाँद थे सरे आसमां’ उपन्यास के अलावा शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की दीगर अहम किताबें ‘शेर, गैर शेर, और नस्र’, ‘उर्दू का इब्तिदाई ज़माना’, ‘गंजे-सोख़ता’, ‘सब्ज अंदर सब्ज’, ‘चार सिम्त का दरिया’, ‘आसमां मेहराब’, ‘सवार और दूसरे अफ़साने’ (फिक्शन), ‘ग़ालिब अफ़साने की हिमायत में’, ‘दास्ताने अमीर हमजा का अध्ययन’ और ‘जदीदियत कल और आज’ हैं.

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने उर्दू के मशहूर शायर मीर तक़ी ‘मीर’ की शख़्यियत और उनके कलाम पर एक शानदार आलोचना भी लिखी, जो ‘शेर-शोर अंगेज’ के नाम से चार भागों में शाया हुई. इसी किताब पर उन्हें साल 1996 में ‘सरस्वती सम्मान’ मिला. शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का एक अहम कारनामा दास्तानगोई के खत्म होते फ़न को दोबारा ज़िंदा करना था.

16वीं सदी में मुल्क में विकसित हुई दास्तानगोई की रिवायत, एक बार फिर उन्हीं की कोशिशों और जुनून से जदीद तेवर के साथ वजूद में आई. बीते कुछ सालों से वे उर्दू से उर्दू की एक ऐसी डिक्शनरी तैयार करने में जुटे थे, जिसमें शायरी और दास्तानों में शामिल तमाम कठिन लफ़्ज़ के आसान मायने हों. ताकि आम पाठक भी इनसे अच्छी तरह से वाकिफ़ हो सकें.

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने पत्रकारिता भी की. उर्दू के मक़बूल रिसाले ‘शब ख़ून’ के वे चार दहाईयों तक एडिटर रहे. कई सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किए गए. ‘असर लख़नवी उर्दू अंतरराष्ट्रीय अवार्ड’, दिल्ली अकादमी का ‘बहादुरशाह जफर सम्मान’, ‘पद्म श्री’ के अलावा समालोचना ‘तनक़ीदे अफ़कार’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार (उर्दू) से नवाज़ा गया. हिंदुस्तानी तहज़ीब और अदबी रिवायत को हमेशा साथ लेकर चलने वाले इस आला अदीब ने पिछले साल 25 दिसंबर, 2020 को इस फ़ानी दुनिया से विदाई ले ली.