चुभे तो बताना

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 08-03-2023
होली स्पेशलः चुभे तो बताना
होली स्पेशलः चुभे तो बताना

 

ठर्रा विद ठाकुर

होली का दिन है तो छूट मिलनी चाहिए. लोग करन के साथ कॉफी पी सकते हैं तो ठाकुर के साथ ठर्रे में क्या बुराई है? पर पत्रकारिता के साथ लफड़ा यह है कि आदमी खुद को एटलस समझने लगता है. नक्शा नहीं, ग्रीक देवता एटलस. जिसने पूरी धरती का बोझ उठा रख है. पत्रकार को लगता है कि वह जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा हुआ है.

 
 
इसी जिम्मेदारी के तहत पिछले आठ साल से भारतीय अर्थव्यवस्था के डूब जाने की भविष्यवाणी करने वाले गंभीर अर्थशास्त्री सह पत्रकार ने कहाः देश डूब जाएगा.
 
 
 
जिम्मेदारियां समाज की, नैतिकता की. असल पत्रकार यह मानता है कि समाज और नैतिकता से भारी बोझ ईएमआई का होता है. लेकिन पत्रकारिता को नोबल प्रोफेशन मानने वाले इन्हीं जिम्मेदारियों के तहत झोला जैसा मूं लटका कर घूमते रहते हैं.
 
उदास होना, बातें न करना गंभीरता मानी जाती है. बौद्धिक दिखने के लिए लोग आम तौर पर फेसबुक वगैरह पर डीपी ऐसी सेट करते हैं, जिसमें वे सीधे कैमरे में नहीं देखते, वो फोटो खिंचवाते वक्त उस तरफ देखते हैं जिधर स्टूडियो में कंघा-शीशा वगैरह टंगा होता है. पहले मोटे फ्रेम का चश्मा पहनना बौद्धिकता की निशानी थी. चश्मा नहीं पहने तो क्या खाक हुए इंटेलेक्चुएल! धत्. एक लफूझन्ना बुद्धिजीवी ही चश्मा नहीं पहनता.
 
 
 
इस बीच अर्थशास्त्री सह पत्रकार ने अपनी फ्रेंचकट नुमा दाढ़ी के बीच फिर से भविष्यवाणी कीः देश डूब जाएगा.
 
 
 
लेकिन साहब, हर आम-ओ-खास के हाथ में मोबाइल क्या आया, हर कोई हर घंटे फोटो खेंच रहा है. डीपी बदल रहा है. जितनी तेजी से देश बदल रहा है, उससे ज्यादा तेजी से डीपी बदलती है. ऐसे में बहुत सारे गंभीर लोग, आउट डेटेड हो गए. कुछ पत्रकार भी एक्सपायरी डेट का शिकार हुए.
 
 
 
पत्रकारिता में भी ऐसा ही है. खबरों का बरतने का तरीका खोजा जाता है. पहले लोग पत्रकारिता करने में बहुत दौड़-भाग करते थे. कई लोग तो नदी-वदी तैरकर खबरें लाते थे. पत्रकारिता में दौड़ अब भी कायम है. पहले लोग दौड़-दौड़कर खबरे जुटाते थे, अब दौड़-दौड़कर खबरें बताते हैं.
 
 
 
दौड़ना पत्रकारिता का मुख्य लक्षण बन गया. इसका कोई एंटीडोट, कोई वैक्सीन नहीं बना. तेजप्रताप साइकिल चला रहे हैं, पत्रकार साथ में हांफते हुए बक रहा है, देखिए तेजप्रताप तो साइकिल चला रहे हैं. हांफता हुआ कैमरामैन साथ में दौड़ रहा है. तेजप्रताप आखिर लालू के पुत्र हैं. वह पत्रकार के मजे लेते हैं और पैडल तेज मार कर निकल जाते हैं.
 
 
 
पत्रकार बिसूरता रह जाता है. देखिए तेजप्रताप तेजी से साइकिल चला रहे हैं. कैमरा और पत्रकार वहीं रह जाते हैं. पता नहीं चलता कि पत्रकार शिकायत कर रहा है या खबर बता रहा है.
 
 
 
खबर के साथ लफड़ा है कि इसका नया होना बहुत जरूरी है. अब तेजप्रताप साइकिल चला रहे हैं इसमें नया क्या है? टीवी ने इसका तोड़ निकाला है. बजट का टाइम याद करिए, एक चैनल यह ताड़ गया था कि उनके लिहाज से बजट में कुछ नया नहीं होना है. इससे पहले वे लोग हाट-बाजार सबका सेट लगा चुके थे. इस बार पत्रकारों के मय मेहमान 200 फुट ऊपर पहुंचा दिया.
 
 
 
टीवी पर खबरों को मसीहाई अंदाज में बरतने वाले और रात को ऐन नौ बजे मादक सिसकारियां लेकर खबरे पढ़ने वाले पत्रकारिता के ओशो रजनीश को अपने दर्शकों की याद तब आई, जब उनको अपनी जमी-जमाई दुकान छोड़नी पड़ी.
 
उन्होंने कहा कि पत्रकारिता पर खतरा है. काहे कि नौकरी बदलने से उनकी पत्रकारिता में खतरा आ जाता. पर, जिन दर्शकों को वह टीवी नहीं देखने का उपदेश देते थे उन्हीं से चैनल सब्सक्राइब करने और चंदा देने का आग्रह करते हैं. पहले दर्शक उनका आदेशपाल था, अब वह दर्शकों की लल्लो-चप्पो करते हैं.  करोड़ो कूटने वाले पत्रकार को चंदे की क्या जरूरत पड़ गई है यह शोध का विषय है.
 
 
 
पहले, पत्रकारिता में साख यानी क्रेडिबिलिटी की बहुत डिमांड थी. अब इसकी कोई जरूरत नहीं. अब लिपिस्टिक लगाए मेल एंकर्स चाहिए होते हैं. तमतमाए-गुस्साए चेहरे वाले एंकर ज्यादा पसंद किए जाते हैं. गुस्सा हमारा राष्ट्रीय भाव बन गया है. आक्रामता भरी रिपोर्टिंग का मतलब हो गया है कि आप कैमरे के सामने एकाध लोगों को थप्पड़ जरूर जड़ दें.
 
 
 
आप सही और सच लिखेंगे, पर आप क्रेडिबल नहीं हैं क्योंकि आप अभी छोटे संस्थान हैं. लोग नोट में चिप वाली खबरें दिखा कर भी क्रेडिबल बने रह जाते हैं. उनकी पत्रकारिता चिप वाली खबरों के बाद गोल्डन से प्लैटिनम और फिर डायमंड में बदल जाती है. इसके बाद का कोई और दुर्लभ रत्न या धातु मेरी नजर में नहीं है, शायद इनकी निगाह में हो.
 
 
 
पत्रकारिता की साख पर खतरा होने का भय उन लोगों में बहुत अधिक है, जिन्होंने कभी स्वर्ग की सीढ़ी, साईं बाबा के आंसू जैसी खबरें टीवी पर चला कर खबरों को स्वर्गवासी बना दिया.
 
 
 
बहरहाल, होली के मौके पर छौने पत्रकारों के लिए पढ़ना लिखना बेकार की कवायद घोषित कर दी गई है. अब पत्रकार बनने के लिए पहला टेस्ट होता हैः कितनी जोर से और कितनी देर तक चीख सकते हो? अचानक हिस्टीरिया का दौरा पड़े ऐसा एक्टिंग कर सकते हो?
 
किसी भी गेस्ट की बेइज्जती कर सकते हो? अगर कोई गेस्ट गुस्सा कर लात-घूंसा चला दे तो आत्मरक्षा के क्या उपाय हैं तुम्हारे पास? लेपल बचाते हुए उतारकर किनारे रखना होता है वह महंगा आइटम है. फील्ड में रिपोर्टिंग के लिए पहली शर्त है कि तेज भाग सकते हैं या नहीं. कैमरामैन को इसके लिए ट्रेनिंग दी जाती है कि एक दौड़ता हुआ आदमी अगर अपनी रिपोर्ट पेश करे तो आप उसको बिना फोकस से बाहर किए रिकॉर्ड कर सकते हैं या नहीं.
 
 
 
खबरों में नाटकीयता कम न हो इसके लिए टीवी वालों ने एक प्रतिनिधिमंडल एनएसडी वालों के पास भेजा है कि क्या वे भविष्य के पत्रकारों को मेलोड्रामा की ट्रेनिंग देंगे. इसके साथ ही रेख्ता वालों के पास भी प्रस्ताव भेजा गया है कि वैसे तो अधकचरी तुकबंदी अभी टीवी की पट्टियों में चल ही रही है. कार्यक्रमों में तुक मिलाकर नाम चल रहे हैं. अब रेख्ता वालों से ट्रेनिंग होगा, तो काफिया और दुरुस्त हो जाएगा. लेकिन, समस्या यह है कि इसके लिए टीवी वालों को पढ़ना पढ़ेगा. यह काम तो उन्होंने बरसों से किया नहीं.
 
 
 
संगीत इनके पास पहले से है. एक चैनल पर खबर देखने का फायदा यह है कि आप संगीत सुनने और खबर देखने का नाटक एक साथ कर सकते हैं. खबर के नाम पर जो तेज-तेज संगीत बजता है, उस पर आप चाहें तो नाच भी सकते हैं.
 
 
 
पत्रकारिता की कथित मुख्यधारा में जो प्रवाह है उसमें असल में ठर्रा ही बह रहा है. सुनिए न क्या कह गए हैं काका हाथरसीः
 
 
 
ठेला हो या जीप हो, अथवा मोटरकार

ठर्रा पीकर छोड़ दो, अस्सी की रफ़्तार

अस्सी की रफ़्तार, नशे में पुण्य कमाओ

जो आगे आ जाये, स्वर्ग उसको पहुंचाओ