बनारस में गंगा क्यों हो गई हरी

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 04-06-2021
बनारस की गंगा में जम गई काई (फोटोः फेसबुक)
बनारस की गंगा में जम गई काई (फोटोः फेसबुक)

 

कवर स्टोरी । पर्यावरण

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

बनारस में विभिन्न घाटों पर गंगा का रंग हरा हो गया है. गंगाजल के रंग में परिवर्तन स्थानीय लोगों और पर्यावरण से जुड़े लोगों के लिए और भी अधिक चिंता का एक प्रमुख कारण बन गया है.

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में मालवीय गंगा अनुसंधान केंद्र के अध्यक्ष और गंगा पर अनेक शोध कर चुके डॉ बी.डी त्रिपाठी के अनुसार, ''नदी की हरी-भरी उपस्थिति माइक्रोसिस्टिस शैवाल के कारण हो सकती है.''लेकिन वह साथ में जोड़ते हैं, ''शैवाल बहते पानी में भी पाए जा सकते हैं. लेकिन यह आमतौर पर गंगा में नहीं देखा जाता है. लेकिन जहां भी पानी रुक जाता है और पोषक तत्वों की स्थिति बन जाती है, माइक्रोसिस्टिस बढ़ने लगते हैं. इसकी विशेषता यह है कि यह तालाबों और नहरों के पानी में ही उगता है.''

कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार, ''शैवाल वाला पानी जहरीला भी हो सकता है और इसकी जांच की जानी चाहिए कि क्या हरा रंग अधिक समय तक बना रहता है.''

बहती रहे गंगाः काशी में बालाजी घाट में गंगा


पर्यावरण प्रदूषण वैज्ञानिक डॉ. कृपा राम कहते हैं, “गंगा में पानी में पोषक तत्वों की वृद्धि के कारण शैवाल दिखाई देते हैं.” उन्होंने बारिश को भी गंगा के पानी के रंग बदलने का एक कारण बताया है.

हालांकि, कुछ लोग कहते हैं कि बनारस में गंगा में पानी का रंग बदलने के पीछे वहां बन रही एक नहर है. बनारस के एक वरिष्ठ पत्रकार और किताब ‘उड़ता बनारस’ के लेखक सुरेश प्रताप सिंह ने लिखा, “गंगा की धारा में जमी काई का विस्तार अब लगभग दो किलोमीटर के दायरे में दशाश्वमेध से पंचगंगा घाट तक हो गया है. पंचगंगा घाट पर हरी काई की मोटी पर्त जम गई है, जबकि दशाश्वमेध घाट पर भी हल्की काई की पर्त देखी जा सकती है. तेज हवा के कारण काई इधर-उधर गंगा में फैलती जा रही है.”

सिंह अपने पोस्ट में आगे लिखते हैं, “पानी में काई वहीं लगती है, जहां पानी का ठहराव हो. गांवों में गड़ही और तालाब में अक्सर काई जमा हो जाती है. गंदे और सड़ते पानी में काई स्वत: वायुमंडल के असर से पैदा हो जाती है. इसका सीधा मतलब यह है कि जलधारा के अवरोध के कारण गंगा का पानी सड़ गया है.”

बनारस में गंगा के पानी में पैदा हुए काई को वैज्ञानिक मैदानी इलाके के उर्वरकों से जोड़ते हैं


सिंह अपने पोस्ट में लिखते हैं कि जिन घाटों के सामने काई लगी थी, उसके हटने के कारण पानी का रंग काला हो गया है. यह कालापन गंगा में बढ़ते प्रदूषण का परिणाम है. उल्लेखनीय है कि मीरघाट, ललिताघाट, जलासेन और मणिकर्णिका श्मशान के सामने गंगा की धारा को प्लास्टिक में भरी बालू की लाखों बेरियों और मुक्तिधाम के हजारों ट्रैक्टर मलबे से पाट दिया गया है, जिससे गंगा का बहाव रुक गया है.

सिंह संकटमोचन मंदिर के महंत प्रोफेसर विश्वम्भर नाथ मिश्र को उद्धृत करते हुए लिखते हैं, “गंगा में फेंके गए बालू व मलबे के कारण बहाव रुक गया है, जिसका परिणाम है कि गंगा में हरी काई जम गई है.”

अब पानी का बहाव गंगा में फेंके मलबे से रुका है या दूसरे पाट की तरफ बन रहे बालू की नहर से (जानकार बताते हैं कि उस ओर हो रही नदी के पाट में करीबन 25 मीटर चौड़ा और 3 मीटर गहरा नहर खोदा जा रहा है. बीसेक जेसीबी लगे हैं. पर कोई जिम्मेदारी नहीं ले रहा है कि खुदाई किस कारण हो रही है और कौन करवा रहा है) भी पानी का बहाव कुछ हिस्सों में रुक गया है और काई पैदा हो गई है.

लेकिन वैज्ञानिक इसकी अन्य वजहें भी बताते हैं. वैज्ञानिक डॉ. कृपा राम कहते हैं,“वर्षा के कारण, ये शैवाल उपजाऊ भूमि से नदी में प्रवाहित होते हैं. पर्याप्त पोषक तत्व प्राप्त करने के बाद, वे प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया शुरू करते हैं. यदि पानी लंबे समय तक स्थिर रहता है, तो केवल सूर्य की किरणें ही प्रकाश संश्लेषण को सक्षम करते हुए गहराई तक जा सकती हैं.”

वह समझाते हैं, फॉस्फेट, सल्फर और नाइट्रेट ऐसे पोषक तत्व हैं जो शैवाल को बढ़ने में मदद करते हैं. पोषक तत्व कृषि भूमि और सीवेज से भी आ सकते हैं.

गंगा नदी की यह बड़ी समस्या रही है कि पूरे हरित क्रांति की पट्टी में रासायनिक उर्वरकों का बेतहाशा इस्तेमाल होता आया है और उर्वरक की सारी मात्रा फसलों के इस्तेमाल में नहीं आता. बारिश के साथ अतिरिक्त रसायन बहकर सहायक नदियों के जरिए गंगा में ही आकर जमा होता है. ऐसे में, पानी जहां रुकता है शैवालों का विकास तेजी से होता है.

वैज्ञानिकों का यही कहना है कि फिलहाल चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है और आम तौर पर मार्च और मई के बीच होती है. चूंकि पानी जहरीला हो जाता है, इसमें नहाने से त्वचा रोग हो सकते हैं और इसे पीने से लीवर को नुकसान हो सकता है.