जगजीत सिंह: होठों से छू लो तुम, मेरे गीत अमर कर दो

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 10-10-2022
जगजीत सिंह (फोटः सोशल मीडिया)
जगजीत सिंह (फोटः सोशल मीडिया)

 

ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह की पुण्यतिथि

ज़ाहिद ख़ान

‘‘वे अपने अंदाज़ के वाहिद फ़नकार थे. अब उनकी टक़्क़र का कोई दूसरा फ़नकार नहीं होगा... बतौर कलाकार उन्होंने ग़ज़ल गायकी को लोगों की जुबान तक पहुंचा दिया. उनकी आवाज़ में एक बेस था, एक मिठास थी, जो सिर्फ़ अभ्यास से हासिल नहीं हो सकती.’’ जगजीत सिंह और उनकी जादुई आवाज़, ग़ज़ल गायकी पर ये ख़याल हैं, गुलाम अली के जो खु़द इस फ़न के आला उस्ताद हैं.

जब एक आला उस्ताद अपने समकालीन पर इस तरह की टिप्पणी करता है, तो उसके एक अलग ही मायने होते हैं. वेलवेट वॉयस यानी मखमली आवाज़ के मालिक और ग़ज़ल गायकी का एक अनोखा अंदाज़ जगजीत सिंह को ख़ास बनाता था. उन्होंने अपनी पुर-सोज आवाज़ में जो भी गाया, उसे अमर कर दिया.

देश-दुनिया में लाखों लोग जगजीत सिंह की ग़ज़ल गायकी के मुरीद थे और आज भी उनका यह जादू कम नहीं हुआ है. उनकी एक नहीं, बल्कि कई ऐसी फ़िल्मी-गैर फ़िल्मी ग़ज़लें हैं जो उनके चाहने वालों के हर दम लबों पर रहती हैं.

‘होठों से छू लो तुम मेरा..’ (फ़िल्म-‘प्रेमगीत’), ‘तुम इतना जो मुस्करा रहे हो’, ‘झुकी-झुकी सी नज़र’ (फ़िल्म-‘अर्थ’), ‘तुमको देखा तो ये ख़याल आया’ (फ़िल्म-‘साथ-साथ’),  ‘चिट्ठी न कोई संदेश, जाने वो..’ वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी’, ‘मैं रोया परदेश में भीगा मां का प्यार’, ‘सरकती जाए है रुख से नक़ाब आहिस्ता’, ‘होश वालों को ख़बर क्या’, ‘झूम के जब रिंदों ने पिला दी’, और ‘हुजूर आपका भी एहतिराम करता चलूं’ जगजीत सिंह की गायी यह कुछ ऐसी नायाब ग़ज़लें है, जो बीते पांच दशकों से लोगों को अपना दीवाना बनाए हुए हैं.

उनकी मक़बूलियत जरा सी भी कम नहीं हुई है. उन्होंने हर दौर और हर उम्र के लोगों के दिलों पर अपनी गायकी के गहरे अक्स छोड़े हैं. मुल्क में ऐसी मक़बूलियत बहुत कम ग़ज़ल गायकों के हिस्से आई है. जगजीत सिंह जैसा कोई दूसरा नहीं. सिर्फ़ हिंद उपमहाद्वीप में ही नहीं, पूरी दुनिया में उनकी ग़ज़लों के चाहने वाले हैं.

8 फरवरी, 1941को राजस्थान के श्रीगंगानगर में जन्मे जगजीत सिंह को उनके वालिद आइएएस अफ़सर बनाना चाहते थे, मगर जगजीत को बचपन से ही मौसिक़ी से मुहब्बत थी.

पंडित छन्नूलाल शर्मा और उस्ताद जमाल ख़ान से उन्होंने शास्त्रीय संगीत की बारीकियां सीखीं. राग-रागनियों पर काबू पाया. उर्दू ज़बान सीखी. ताकि गायकी में तलफ़्फु़ज साफ़-साफ़ निकले. जब नवीं क्लास में थे, तब उन्होंने पहली बार मंच पर गाया. उसके बाद ये सिलसिला शुरू हो गया.

पढ़ाई के साथ-साथ जगजीत सिंह का संगीत का सफ़र चलता रहा. मंजिल-ए-माबूद उनकी एक ही थी, गायन में अपना एक अलग मुक़ाम बनाना. अपने इस ख़्वाब की ताबीर के वास्ते बीती सदी में साठ के दशक में वे मायानगरी मुंबई पहुंचे. मुंबई पहुंचना आसान है, मगर यहां किसी भी मैदान में पैर जमाना उतना ही मुश्किल. ख़ास तौर पर जब आप फ़िल्मों में या संगीत में खु़द को आज़माना चाहते हो.

बहरहाल, अपने ख़्वाब को पूरा करने के लिए जगजीत सिंह को काफ़ी जद्दोजहद करनी पड़ी. उन्होंने प्राइवेट पार्टियों और होटलों में फ़िल्मी नग़मों, ग़ज़लों का गायन किया. फ़िल्म संगीतकारों और म्यूजिक कंपनियों के चक्कर लगाए, पर बात नहीं बनी. आखि़रकार, साल 1976में चित्रा सिंह के साथ आई ‘अनफॉरगेटेबल’ वह एलबम थी, जिसने उन्होंने बुलंदियों पर पहुंचा दिया.

इस एलबम में ‘बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी’, ‘सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब’ और ‘दोस्त बन-बनके मिले हैं मुझे मिटाने वाले’ समेत दस ग़ज़लें थीं और सभी खू़ब मक़बूल हुईं. इस कामयाबी के बाद जगजीत सिंह ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. आगे चलकर चित्रा सिंह, जगजीत सिंह की ज़िंदगी की हमसफ़र बनीं और उनकी कई ग़ज़ल एलबम साथ आईं. सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के साथ आया उनका एक गैरफ़िल्मी एलबम ‘सजदा’ भी काफ़ी पसंद किया गया. 

ग़ज़ल एलबम, स्टेज शो की तरह जगजीत सिंह को फ़िल्मों में भी कामयाबी मिली. ‘अविष्कार’, ‘साथ-साथ’, ‘अर्थ’, ‘प्रेमगीत’ वे फ़िल्में हैं, जिनकी ग़ज़लें खूब पसंद की गईं. साल 1982वह साल था, जिसमें ‘साथ-साथ’ और ‘अर्थ’ फ़िल्में आईं. जगजीत सिंह की ग़ज़लों का करिश्मा था कि ये दोनों फ़िल्में सुपरहिट हुईं.

उन्होंने कुछ हिंदी और पंजाबी फ़िल्मों में संगीत भी दिया. फ़िल्म ‘अर्थ’ में जगजीत सिंह को ब्रेक देने वाले निर्देशक महेश भट्ट ने जगजीत सिंह की गायकी के बारे में कहा है, ‘‘उनके संगीत में जो विविधता है, उसमें पूरा हिंदुस्तान बोलता है. बिना भारत की संस्कृति को जाने कोई भी इस तरह से ग़ज़लें नहीं गा सकता.’’ महेश भट्ट की इस बात में सच्चाई भी है.

जगजीत सिंह की गायकी में एक अज़ब सी मुग्ध करती रवानगी थी. एक कशिश, जो हर एक के दिल को छूती थी. उन्हें मंत्रमुग्ध कर देती थी. जगजीत सिंह ने सारी दुनिया में स्टेज शो, लाइव ग़ज़ल कंसर्ट किए. जो बेहद कामयाब रहे. लाइव कंसर्ट में जब वे आंखें बंद कर, हारमोनियम पर पानी की तरह उंगलियां चलाते हुए ग़ज़ल गाते, तो सामयीन भी उनके साथ-साथ गुनगुनाते. इन प्रोग्रामों में जगजीत सिंह एक के बाद एक ग़ज़ल गाते रहते और सामयीन की न तो फ़रमाइश ख़त्म होती और न ही उनकी प्यास बुझती.

जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायकी में नये-नये प्रयोग किए. तानपुरा, सारंगी, सितार, संतूर, तबला, ढोलक जैसे देशी वाद्ययंत्रों के साथ-साथ उन्होंने ग़ज़ल गायकी में गिटार, वायलिन जैसे विदेशी साज का इस्तेमाल किया.

उनके इन प्रयोगों पर कई बार शुद्धतावादियों ने ऐतराज भी किए. उन पर उंगलियां उठाईं. लेकिन वे इनसे जरा सा भी न घबराए. अपने गायन पर उन्हें इतना एतबार था कि उन्होंने कभी किसी की परवाह नहीं की. राग-रागनियों के अलावा जगजीत सिंह को संगीत के वाद्ययंत्रों की भी अच्छी समझ थी. वे उन्हें बहुत बढ़िया बजा लिया करते थे. किसी भी ग़ज़ल का म्यूजिक कंपोजिशन वे चुटकियों में कर लेते थे.

ग़ज़ल गायकी में जगजीत सिंह का एक जो बड़ा योगदान है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता. उनसे पहले ग़ज़ल रईसों की बांदी बनी हुई थी, आम अवाम से उसका कोई सीधा-सीधा तअल्लुक नहीं था. जगजीत सिंह, ग़ज़ल को आम आदमी तक ले गए. उन्होंने ग़ज़ल को इस अंदाज़ में गाया कि वह उसे अपनी सी लगी. इसके साथ ही उन्होंने ग़ज़लों का इस तरह इंतिख़ाब किया जिसमें उर्दू के आसान लफ़्ज़ हों, जो हर एक को समझ में आ जाएं. दरअसल, यही उनकी कामयाबी का मूल मंत्र था.  

ग़ालिब, मीर तक़ी मीर, फ़िराक़ गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी, अली सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी, कैफ़ भोपाली जैसे उस्ताद शायरों के अलावा उन्होंने सुदर्शन फ़ाकिर, बशीर बद्र, निदा फ़ाज़ली, कतील शिफ़ाई, बेकल उत्साही, अमीर मिनाई, मदनपाल, जावेद अख़्तर की ग़ज़लों को गाकर उनमें रूह बख़्शी. दिल की गहराईयों से इन ग़ज़लों को गाया.

फ़िल्म निर्देशक-नग़मा निगार गुलज़ार ने ग़ालिब की ज़िंदगी पर बने अपने महत्वाकांक्षी सीरियल ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ में जगजीत सिंह को संगीत और गायन का मौक़ा दिया. जब दूरदर्शन पर यह सीरियल प्रसारित हुआ, तो इसने कमाल कर दिखाया. जगजीत सिंह ने ग़ालिब के कलाम को इस अंदाज़ में गाया कि वह आज भी माइलस्टोन है.

एक वक़्त ऐसा भी आया, जब जगजीत सिंह अपने बेटे के हादसे में हुई मौत से बिल्कुल टूट गए थे. उन्होंने अपने आप को तन्हा कर लिया था, लेकिन बाद में फिर वापिस लौटे. इस मर्तबा उनकी गायकी में एक अज़ब दर्द था. जगजीत की गायकी में जहां दर्द का रिश्ता जुड़ा, तो उनकी पसंद के दायरे में सूफ़ी कलाम, सबद और भजन भी आ गए. टूटे दिल से उन्होंने जो ग़ज़लें गाईं, उन्हें भी प्रशंसकों ने खूब पसंद किया.

जगजीत सिंह ने अपनी गायकी से ग़ज़ल गायन की पूरी दिशा बदल कर रख दी. उन्होंने ग़ज़ल को न सिर्फ़ मुल्क में बल्कि सारी दुनिया में ऊंचे मुक़ाम पर पहुंचाया. उनकी जिंदगानी में ही 80से ज़्यादा ग़ज़ल एलबम आए और सभी बेहद मक़बूल हुए.

‘अनफॉरगेटेबल’ के अलावा ‘जाम उठा’, ‘डिजायर’, ‘कहकशां’, ‘ए जर्नी’, ‘अर्ली हिट्स’, ‘इनसाइट’, ‘दर्द-ए-जिगर’, ‘स्टोलन मोमेंट्स’, ‘बियांड टाइम्स’, ‘समवन समव्हेर’, ‘होप’, ‘मिराज’ और ‘प्यार न टूटे’ वगैरह वे ग़ज़ल एलबम हैं, जिनकी रिकार्ड तोड़ बिक्री हुई. जगजीत सिंह यारबाश थे. दोस्तों की हर मुमक़िन मदद करते थे. अपने समकालीन और नई पीढ़ी के ग़ज़ल गायकों को उन्होंने हमेशा बढ़ावा दिया.

उन्हें संगीत के साथ-साथ घोड़ों की रेस देखने का भी दीवानगी की हद तक शौक था. तमाम मसरूफ़ियत के बावजूद वे रेसकोर्स में घुड़दौड़ देखने के लिए वक़्त निकाल लेते थे.

अपने शानदार ग़ज़ल गायन से जगजीत सिंह को दुनिया भर के लोगों का बेइंतिहा प्यार मिला. कई मान-सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़े गए. साल 2003 में वे देश के तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्म भूषण’ सम्मान से नवाजे़ गए.

सियासत में भी जगजीत सिंह को चाहने वाले थे. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की कविताओं को जहां उन्होंने अपनी आवाज़ दी, तो पार्लियामेंट के सेंट्रल हॉल में भी उन्हें एक मर्तबा ग़ज़ल गायन के लिए इनवाइट किया गया.

10 अक्टूबर, 2011 को जगजीत सिंह ग़ज़ल की महफ़िल से हमेशा के लिए रुख़्सत हो गए और उनके साथ गुज़र गया ग़ज़ल गायकी का एक सुनहरा दौर. कहने को ग़ज़ल आज भी गायी जा रही है, लेकिन जगजीत सिंह के बिना ग़ज़ल की यह महफ़िल कुछ उदास सी है. उनके जाने से भले ही, अब महफ़िलें न सजें, मगर उनकी आवाज़ हमेशा फ़िज़ा में गूंजती रहेगी, ‘तुम ये कैसे जुदा हो गए, हर तरफ हर जगह हो गए.’