कवि हरिवंश राय बच्चन की जयंती: बैर बढ़ाते मंदिर-मस्ज़िद, मेल कराती मधुशाला

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  onikamaheshwari | Date 23-11-2022
Birth anniversary of poet Harivansh Rai Bachchan: बैर बढ़ाते मंदिर-मस्ज़िद, मेल कराती मधुशाला - ज़ाहिद ख़ान
Birth anniversary of poet Harivansh Rai Bachchan: बैर बढ़ाते मंदिर-मस्ज़िद, मेल कराती मधुशाला - ज़ाहिद ख़ान

 

ज़ाहिद ख़ान

‘‘जीवित है तू आज मरा सा, पर मेरी यह अभिलाषा/चिता निकट भी पहुंच सकूं, अपने पैरों-पैरों चलकर.’’ यह पंक्तियां दर्शाती हैं कि हरिवंश राय बच्चन किस जिजीविषा, जीवटता के कवि-गीतकार थे.छायावाद के बाद जब प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हो गई और कविता में नित्य नए-नए प्रयोग हो रहे थे, वो हरिवंश राय बच्चन ही थे, जिन्होंने किसी भी धारा में न बहते हुए अपनी एक जुदा राह बनाई.

निःसंदेह बच्चन हालावाद के प्रवर्तक थे.हाला को जीवन का प्रतीक बनाकर, उन्होंने अपनी कविताओं में जो जीवन दर्शन दिया, वह पाठकों के सामने मधुशाला के रूप में आया. बच्चन की कविताओं में हाला जीवन की कटुताओं, विषमताओं, कुंठाओं तथा अतृप्तियों के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप आई.हाला जीवन के विक्षोभ को प्रकट करने का साधन और रूढ़िवादियों, सम्प्रदाय वादियों एवं धर्म के ठेकेदारों पर चोट करने का उनका प्रमुख अस्त्र बन गई.हरिवंश राय बच्चन की कविताओं में शराब कहीं जीवन, कहीं मस्ती, कहीं मादकता और अद्वैतवाद का पर्याय बनकर प्रस्तुत की गई. ‘‘घृणा का देते हैं उपदेश यहां धर्म के ठेकेदार/खुला है सबके हित, सब काल हमारी मधुशाला का द्वार.’’

27 नवम्बर, 1907 को इलाहाबाद से सटे प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गांव बाबूपट्टी में जन्मे हरिवंश राय बच्चन पर उमर ख़य्याम की रुबाईयांं और सूफ़ी मत का असर शुरू से ही था। सूफ़ियों के जीवन दर्शन का तो शराब एक अंग थी.हालांकि, लौकिक प्रेम के समान उसे भी ‘शराबे मा'रिफ़त’ के रूप में अलौकिक बना दिया गया था.‘‘बैर बढ़ाते मंदिर-मस्ज़िद, मेल कराती मधुशाला.’’ बच्चन की रचनाओं में जीवन के प्रति अनुराग है, न कि शराब पीने की हिमायत। सच बात तो यह है कि उनकी रचनाओं में हाला, प्रतीकात्मक रूप में आकर आध्यात्मिक रहस्यों के पर्दों को खोलती है.‘‘मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूं, मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूं/जिसको सुनकर जरा झूम चुके लहराएं, मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूं.’’ ‘

मधुशाला’ का सबसे पहले प्रकाशन साल 1933 में उस समय की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ के हीरक अंक में हुआ था.तब से लेकर आज तक इसके देश और दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुवाद आ चुके हैं.किताब के कई संस्करण निकल चुके हैं, लेकिन मधुशाला का पाठकों के दिल-ओ-दिमाग पर छाया ख़ुमार आज भी तारी है.बच्चन और मधुशाला एक-दूसरे के पर्याय हैं.

हरिवंश राय बच्चन ने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू.बी. यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएचडी पूरी की.अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कई साल अध्यापन किया.भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में वे हिन्दी विशेषज्ञ रहे.बच्चन की साहित्यिक उपलब्धियों को देखते हुए, सरकार ने उन्हें राज्य सभा का मनोनीत सदस्य बनाया.नई पीढ़ी इस बात को भी शायद ही जानती होगी कि हरिवंश राय बच्चन अपने अध्ययन काल में ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ से भी जुड़े रहे.क्रांतिकारी भगत सिंह के प्रभाव से वो एथेस्ट बने, तो कविता और जीवन में भी उसका प्रभाव रहा.

बच्चन अपनी एक कविता में कहते हैं,‘‘दूर स्थित स्वर्गों की छाया में विश्व गया है बहलाया/हम क्यों उन पर विश्वास करें, जब देख नहीं कोई आया/अब तो इस पृथ्वी पर ही, सुख स्वर्ग बसाने हम आए.’’ उन्होंने अपनी रचनाओं में सदैव धार्मिक जकड़बंदियों और कठमुल्लापन की मुख़ालफ़त की.‘‘पंडित, मोमिन, पादरियों के फंदों को जो काट चुका/कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला.’’ यही नहीं वे अपनी रचनाओं में धार्मिक रूढ़ियों, कर्मकांडों, आडंबरों का भी विरोध करते हैं.‘‘और चिता पर जाए उड़ेला, पात्र न घृत का पर प्याला/घट बंधे अंगूर लता में, मय न जल हो पर हाला/प्राण प्रिय यदि श्राद्ध करो तुम, मेरा तो ऐसा करना/पीने वालों को बुलवाकर, खुलवा देना मधुशाला.’’’

हरिवंश राय बच्चन की कविताओं ने सैकड़ों नौजवानों के जीवन समर में आत्मबल दिया है.भाषागत बिंबवाद, कल्पना की उड़ान के बरक्स सरल-सहज, सीधी भाषा शैली में अपनी बात कहने के कारण बच्चन नौजवानों में बहुत लोकप्रिय हुए.छायावादी कवियों ने उस समय लाक्षणिक वक्रता से भाषा को दुरूह बना दिया था. बच्चन ने संस्कृत की तत्समता पर निर्भर न रहकर, तद्भव बहुल आम जन की बोलचाल वाली हिंदी का प्रयोग अपने काव्य में किया.वे बोलचाल की भाषा और लय को कविता के केन्द्र में लाए.आधुनिक कविता की भाषा को तद्भवमुखी बनाने में बच्चन का अमिट योगदान है.

आधुनिक गीति काव्य में हरिवंश राय बच्चन प्रथम अध्याय हैं.उनके गीतों में अनुभूति और कल्पना का अद्भुत संयोग है. उनके गीतों के प्राणतत्व में संगीत, वेदना और करूणा है.वहीं भाषा और भाव, शब्द और स्वर, छंद और लय, अनुभूति और अभिव्यक्ति का उचित संयोग उनकी सहज प्रमाणिक विशिष्टता है.

‘मधुबाला’, ‘मधुकलश’, ‘निशा निमंत्रण’, ‘मिलन यामिनी’, ‘आकुल अंतर’, ‘एकांत संगीत’, ‘सतरंगिनी’, ‘विकल विश्व’, ‘खादी के फूल’, ‘सूत की माला’, ‘मिलन’, ‘दो चट्टानें’, ‘आरती और अंगारे’ इत्यादि बच्चन की मुख्य कृतियां हैं.कविता संग्रह ‘दो चट्टानें’ के लिए उन्हें साल 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इसी साल उन्हें ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ तथा एफ्रो-एशियाई सम्मेलन के ‘कमल पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया.साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में हरिवंश राय बच्चन के उल्लेखनीय कार्यों के लिए भारत सरकार ने साल 1976 में उन्हें अपने तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया.

‘‘इस पार तुम हो, मधु है, उस पार ना जाने क्या होगा.’’ और ‘‘कहां मनुष्य है कि जो उम्मीद छोड़कर जिया/इसलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो.’’ जैसे गीतों ने हरिवंश राय बच्चन को जन-जन का चहेता कवि बना दिया.चार दशक तक वे कवि सम्मेलन मंचों की प्रमुख और गरिमामय आवाज बने रहे.कवि सम्मेलन मंच की लोकप्रियता बढ़ाने में बच्चन का प्रमुख योगदान है.

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उन्होंने हिंदी में वाचिक परम्परा को स्थापित किया.हरिवंश राय बच्चन के काव्य संग्रहों की तरह उनकी आत्मकथा, जो कि चार खंडों ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान तक’ शीर्षक से प्रकाशित हुई, उसने भी लोकप्रियता के कई कीर्तिमान बनाए.‘दशद्वार से सोपान तक’ को साहित्यकार धर्मवीर भारती ने हिंदी के हजार वर्षों के इतिहास में ऐसी पहली घटना बताया, जब अपने बारे में इतनी बेबाकी, साहस और सद्भावना से कहा हो.बच्चन की इस बेमिसाल आत्मकथा के लिये उन्हें साहित्य का प्रतिष्ठित ‘सरस्वती सम्मान’ भी मिला. हरिवंश राय बच्चन एक लंबा जीवन जिए.18 जनवरी, 2003 को 95 साल की उम्र में उन्होंने इस दुनिया से विदाई ली.

हिंदी साहित्य में हरिवंश राय बच्चन के अविस्मरणीय योगदान के लिए साहित्य प्रेमी उन्हें हमेशा याद करेंगे.उनके जाने से वाक़ई जीवन के गीतों की मधुशाला जैसे सूनी हो गई, ‘‘शून्य तुम्हारी घड़ियां कुछ भी, यदि यह गुंजित कर पाईं/जन्म सफल समझेगी अपना, जग में मेरी मधुशाला.’’