संगीतकार नौैशाद जिनके संगीत में मिट्टी की सुगंध, तो ज़िंदगी की शक्ल थी

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 24-12-2021
मोहम्मद रफी के साथ नौशाद (फोटोः सोशल मीडिया)
मोहम्मद रफी के साथ नौशाद (फोटोः सोशल मीडिया)

 

आवाज विशेष । संगीतकार नौशाद का जन्मदिन

-ज़ाहिद ख़ान

नौशाद, हिंदी सिनेमा के ऐसे जगमगाते सितारे हैं, जो अपने संगीत से आज भी दिलों को मुनव्वर करते हैं. अपने नाम के ही मुताबिक नौशाद का संगीत सुनकर, उनके चाहने वालों को एक अजीब सी ख़ुशी, मसर्रत मिलती है. दिल झूम उठता है. हिंदी सिनेमा की शुरुआत को हुए, एक सदी से ज़्यादा गुज़र गया, लेकिन कोई दूसरा नौशाद नहीं आया.

नग़मा-ओ-शेर की जो सौगात उन्होंने पेश की, कोई दूसरा उसे दोहरा नहीं पाया. साल 1940 में आई ‘प्रेम नगर’ वह फ़िल्म थी, जिसमें नौशाद ने सफलता का पहली बार स्वाद चखा. इस फ़िल्म के ज़्यादातर गाने हिट हुए. ख़ास तौर पर गीत ‘फ़न के तार मिला जा, अपने हाथों को’. ‘प्रेम नगर’ की कामयाबी ने फ़िल्म इंडस्ट्री में नौशाद को स्थापित कर दिया. फिर आई उनकी फ़िल्म ‘स्टेशन मास्टर’, जो टिकिट ख़िड़की पर बेहद कामयाब साबित हुई. नौशाद की यह पहली फ़िल्म थी, जिसने सिनेमाघरों में सिल्वर जुबली मनाई.

‘स्टेशन मास्टर’ की सफलता ने नौशाद के लिए बड़े बैनर की फ़िल्मों का रास्ता खोल दिया. एआर कारदार जिन्होंने नौशाद को यह कहकर, ‘‘तुम अभी बच्चे हो, पहले तज़ुर्बा हासिल करो.’’ अपने स्टुडियो से बाहर निकाल दिया था, ख़ुद उन्होंने अपनी फ़िल्म ‘नई दुनिया’ के संगीत के लिए नौशाद को बुलाया. उम्मीद के मुताबिक फ़िल्म ‘नई दुनिया’ और उसका संगीत दोनों ही कामयाब रहे. इसके बाद नौशाद ने कारदार प्रोडक्शन की ज़्यादातर फ़िल्मों शारदा, ‘दुलारी’, ‘नमस्ते’, ‘कानून’, ‘संजोग’, ‘जीवन’, ‘सन्यासी’, ‘नाटक’, ‘दर्द’, ‘शाहजहां’, ‘दिल्लगी’, ‘क़ीमत’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘दास्तान’, ‘जादू’ में अपना संगीत दिया. उनके लाजवाब संगीत की वजह से ये फ़िल्में सुपरहिट रहीं. इस दरमियान उनकी फ़िल्म ‘रतन’ (साल 1944, निर्देशक-एम. सादिक), ‘मेला’ (साल 1949, निर्देशक-एस.यू. सन्नी) और ‘बैजू बावरा’ (साल 1952, निर्देशक विजय भट्ट) आईं, जिनके गानों ने पूरे मुल्क में धूम मचा दी. यह तीनों ही फ़िल्में म्यूजिकल हिट थीं.

‘रतन’ की कामयाबी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह फ़िल्म सिर्फ पचहत्तर हज़ार रुपए में बनी थी. लेकिन इसके निर्माता जैमिनी दीवान को इस फ़िल्म के रिकॉर्डों की बिक्री से सिर्फ एक साल में साढ़े तीन लाख रुपए मिले थे. गाने भी एक से बढ़कर एक दिलफ़रेब ‘अंखियां मिलाके जिया भरमाके’, ‘अंगड़ाई तेरी है बहाना’, ‘मिलके बिछड़ गईं अंखियां’, ‘परदेशी बालमा’. वहीं ‘बैजू बावरा’ के गीत आज भी जब बजते हैं, तो सुनने वाले मदहोश हो जाते हैं. उन पर एक नशा सा तारी हो जाता है. ‘अकेली मत जइयो राधे’, ‘बचपन की मोहब्बत को दिल’, ‘ओ दुनिया के रखवाले’, ‘मोहे भूल गए सांवरिया’ आदि गानों के कम्पोज में नौशाद ने कमाल कर दिखाया है.

एक के बाद एक मिली इन कामयाबियों ने नौशाद को हिन्दी सिनेमा का सिरमौर बना दिया. एक दौर था, जब बड़े बैनर और बड़े निर्देशकों की फ़िल्में उन्हीं के पास थीं. महान निर्देशक महबूब की फिल्म ‘अनमोल घड़ी’, ‘अंदाज़’, ‘अनोखी अदा’, ‘आन’, ‘अमर’ एवं ‘मदर इंडिया’ और के. आसिफ़ की शाहकार फ़िल्म ‘मुगल-ए-आजम का संगीत नौशाद ने ही दिया था. इन फ़िल्मों की कामयाबी में उनके संगीत का बड़ा योगदान है. आज भी इन फ़िल्मों के गाने एक अलग ही जादू जगाते हैं. ‘उड़नख़टोला’, ‘कोहिनूर’, ‘गंगा जमुना’, ‘मेरे महबूब’, ‘लीडर’, ‘राम और श्याम’, ‘आदमी’, ‘संघर्ष’ और ‘पाकीज़ा’ फ़िल्मों के गाने भी पूरे देश में मक़बूल हुए. उनके गाने गली-गली में बजते थे. फ़िल्म ‘रतन’ (साल-1944) से लेकर ‘पाकीज़ा’ (साल-1971) तक यानी पूरे सत्ताइस साल नौशाद का हिन्दी सिनेमा में सिक्का चला. जिसके लिए उन्हें कई सम्मानों और पुरस्कारों से नवाज़ा गया. फ़िल्मों में नौशाद के अनमोल, बेमिसाल योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’, ‘पद्मभूषण’ सम्मान और ‘दादा साहब फ़ाल्के पुरस्कार’ से सम्मानित किया.

नौशाद ने अपने संगीत में न सिर्फ भारतीय वाद्य यंत्रों ढोलक, तबला, बांसुरी, शहनाई, जलतरंग, सितार, का बख़ूबी इस्तेमाल किया, बल्कि पश्चिम के वाद्य यंत्रों पियानो, एकार्डियन, स्पेनिश गिटार, कोंगा और लोंगा आदि को भी उसी महारत से अपनाया. उनकी फ़िल्म ‘जादू’, ‘आन’ आदि में इन वाद्य यंत्रों के जादू का एहसास किया जा सकता है. नौशाद ऐसे पहले भारतीय संगीतकार थे, जो अपनी फ़िल्म के बैकग्राउंड म्यूजिक के सिलसिले में विलायत गए. यह फ़िल्म थी, महान निर्देशक महबूब की ‘आन’. इस फ़िल्म के संगीत की एक ख़ासियत और थी, जिसका कि ज़िक्र बेहद ज़रूरी है, इस फ़िल्म के संगीत में उन्होंने सौ वाद्य यंत्रों के ऑर्केस्टा का इस्तेमाल किया था.

आज फ़िल्मों के म्यूजिक और बैकग्राउंड म्यूजिक में साउंड मिक्सिंग का चलन आम है. लेकिन एक ज़माना था, जब हिंदी सिनेमा इस हुनर से वाकिफ़ नहीं था. वे नौशाद ही थे, जिन्होंने अपने संगीत में पहली बार साउंड मिक्सिंग का इस्तेमाल किया. नौशाद को लिखने का भी शौक था. उन्होंने कई फ़िल्मों की कहानियां लिखीं, लेकिन उनमें अपना नाम नहीं दिया. स्टोरी राइटर के तौर पर फ़िल्म में अज्म वाजिदपुरी का नाम जाता था. फिल्म ‘उड़नखटोला’, ‘मेला’, ‘बाबुल’, ‘पालकी’, ‘दीदार’, ‘शबाब’ और ‘तेरी पायल मेरे गीत’ की कहानी या कहानी आइडिया नौशाद का ही था.

नौशाद कहानीकार के साथ-साथ एक बेहतरीन शायर भी थे. ‘आठवां सुर’ नाम से उनका एक दीवान है, जिसमें उनकी ग़ज़लें और नज़्में संकलित हैं. नौशाद ने 1937 में लख़नऊ को अलविदा कह दिया था, लेकिन यह शहर उनकी यादों में हमेशा ज़िंदा रहा. अपनी एक ग़ज़ल में वह लख़नऊ को याद करते हुए कहते हैं, ‘‘वह गलियां वह मुहल्ले, सब बन गए कहानी/मैं भी था लख़नऊ का, यह बात है पुरानी.’’ नौशाद निहायत पारख़ी इंसान थे. होनहार लोगों को वे जल्द ही परख़ लेते थे. मोहम्मद रफ़ी, महेन्द्र कपूर, श्याम कुमार, सुरैया, उमा देवी ‘टुनटुन’ आदि अनेक महान गायक-गायिकाओं का हिंदी फ़िल्मों में आगाज़ कराने वाले नौशाद ही थे. फ़िल्म ‘पहले आप’ के एक गाने की सिर्फ़ एक लाईन गवा कर, उन्होंने फ़िल्मी दुनिया में मोहम्मद रफ़ी की इब्तिदा कराई थी. उसके बाद, तो रफ़ी ने उनके लिए एक के बाद एक अनेक नायाब गाने गाये. ‘ओ दुनिया के रखवाले सुन दर्द’, ‘मन तरपत हरि दर्शन को आज’ इन गानों में नौशाद और मोहम्मद रफ़ी की जुगलबंदी देखते ही बनती है.

नौशाद को इस बात का भी श्रेय हासिल है कि क्लासिकल म्यूजिक के अज़ीम फ़नकार डी. वी. पलुस्कर और अमीर ख़ान ने उनके लिए ‘बैजू बावरा’ और बड़े गुलाम अली साहब ने ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में गाने गाए थे. वरना, ये महान कलाकार फ़िल्मों से दूर ही रहे. शकील बदायूंनी, ख़ुमार बाराबंकवी और मजरूह सुल्तानपुरी जैसे बेहतरीन गीतकारों को भी पहली बार मौका नौशाद ने ही दिया था. जिसमें शकील बदायुनी के साथ उनकी जोड़ी ख़ूब जमी. इन दोनों ने मिलकर हिन्दुस्तानी अवाम को अनेक सुपर हिट गाने दिए. नौशाद और शकील बदायुनी की जोड़ी, किसी भी फ़िल्म की कामयाबी की जमानत होती थी. ‘दुलारी’, ‘दिल दिया दर्द लिया’, ‘आदमी’, ‘राम और श्याम’, ‘पालकी’, ‘उड़नख़टोला’, ‘मदर इंडिया’, ‘मुग़ल-ए-आज़म’, ‘गंगा जमुना’, ‘बाबुल’, ‘दास्तान’, ‘अमर’, ‘दीदार’, ‘आन’, ‘बैजू बावरा’, ‘कोहिनूर’ आदि सदाबहार फ़िल्मों के गीत-संगीत शकील और नौशाद के ही हैं.

क्लासिकल संगीत पहली बार फ़िल्मों में आया, तो उसका भी श्रेय नौशाद को ही है. ख़ास तौर पर उन्हें ‘राग केदार’ बहुत पसंद था. उनकी ज्यादातर फ़िल्मों में एक गाना ‘राग केदार’ पर ज़रूर होता था. नौशाद ने अपने गीतों में लोक संगीत का काफ़ी इस्तेमाल किया. ख़ास तौर से उत्तर भारत के लोक संगीत का. इस संगीत से उन्हें बेहद प्यार था. खुद नौशाद का इस बारे में कहना था, ‘‘हमारे संगीत की अपनी परंपराएं हैं. ये परंपराएं सैकड़ों वर्षों की तपस्या, रियाज़ से बनी हैं. इसमें हमारी मिट्टी की सुगंध है, हमारी ज़िंदगी की शक्ल है.’’

फ़िल्म ‘गंगा जमुना’ के सारे गीत भोजपुरी बोली में थे. शकील बदायुनी के इन गीतों को नौशाद ने लोक धुनों में ढाला था. फिल्म ‘गंगा जमुना’ के ‘दगाबाज तोरी बतियां’, ‘ढूंढ़ो-ढ़ूंढ़ो रे साजना’, ‘नैन लड़ जइहें तो मनवा मा’ और ‘मदर इंडिया’ के ‘पी के आज प्यारी दुल्हनिया चली’, ‘ओ गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांक रे’, ‘होली आई रे’, ‘दुख भरे दिन बीते रे भइया’, ‘नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे ढ़ूंढ़ू रे सांवरिया’ जैसे गाने लोक धुनों में होने के बावजूद ऑल इंडिया सुपर हिट रहे थे. नौशाद ने तकरीबन नब्बे फ़िल्मों की अंजुमन को अपने संगीत से सजाया. जिसमें से पांच फ़िल्मों ने प्लेटिनम जुबली यानी यह फिल्में देश के कुछ सिनेमाघरों में पचहत्तर हफ़्तें तक चलीं. दस गोल्डन जुबली, तो छब्बीस ने सिल्वर जुबली मनाई.

हिंदी फ़िल्मों में ऐसी शानदार कामयाबी बहुत कम संगीतकारों को हासिल हुई है. अपनी ज़िंदगानी में ही वे शोहरत की बुलंदियों को छू चुके थे. 5 मई, 2006 को नौशाद ने इस फ़ानी दुनिया से अपनी रुख़सती ली. महान गायक के.एल. सहगल की मौत पर उन्हें अपनी खिराजे अक़ीदत पेश करते हुए, नौशाद ने एक शे’र कहा था,‘‘संगीत के माहिर तो बहुत आए हैं, लेकिन/दुनिया में कोई दूसरा सहगल नहीं आया.’’ उसमें सिर्फ़ नाम का रद्दोबदल करते हुए, क्या यह बात उन पर भी सटीक नहीं बैठती?