आधुनिक कला की दुनिया में सैयद हैदर रज़ा का शुमार बावक़ार हस्तियों में होता है. उन्होंने भारतीय चित्रकला को अंतरराष्ट्रीय पहचान दी. रज़ा ने अपने एब्सट्रेक्ट आर्ट यानी अमूर्त कला के ज़रिए दुनिया भर में अपना एक मुक़ाम बनाया. बिंदु, त्रिकोण, पंचतत्व और पुरुष-प्रकृति जैसे भारतीय दर्शन को उन्होंने न सिर्फ़ अनोखी अभिव्यक्ति दी, बल्कि इंडियन मॉडर्न आर्ट को अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर सम्मानजनक स्थान दिलाया.
सैयद हैदर रज़ा चित्रकला के क्षेत्र में अपनी खुद की गढ़ी यूनिक लैंग्वेज और अपनी अलग स्टाइल के लिए जाने जाते हैं. वे अपनी बिंदु शैली के लिए दुनिया में मशहूर हुए. उनके काम में बिंदु जितनी बार आता है, कोई न कोई नया आशय, नयी आभा लेकर आता है. बाद में उन्होंने इस शैली को पंचतत्व से जोड़ दिया, उसमें चटख रंगों को भरा. रज़ा, बिंदु को अस्तित्व और रचना का केन्द्र मानने थे. बिंदु से शुरुआत कर, उन्होंने अपनी विषयगत कृतियों में नए प्रयोग किए, जो त्रिभुज के इर्द-गिर्द थे.
हैरिंगबोन त्रिकोण, नीली रौशनी से सजी उनकी तस्वीरें अनूठे तज़रबात का दीदार कराती हैं. इस शैली ने उन्हें नाम, पैसा, शोहरत और न जाने कितने सम्मान दिलाए. खु़द, रजा की इसके बारे में कैफ़ियत थी, ‘‘मेरा काम, मेरे अंदर की अनुभूति है. इसमें प्रकृति के रहस्य शामिल होते हैं. जिसे मैं कलर, लाइन, स्पेस और लाइट द्वारा ज़ाहिर करता हूं.’’
"मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के छोटे से गांव बावरिया में 22 फरवरी, 1922 को जन्मे सैयद हैदर रज़ा की पहली एकल प्रदर्शनी साल 1946 में बॉम्बे आर्ट सोसाइटी में प्रदर्शित हुई. उनका पहला ही काम कला पारखि़यों और आर्ट क्रिटिक दोनों को ही पसंद आया. यहां तक कि बॉम्बे आर्ट सोसाइटी ने उन्हें सिल्वर मेडल से सम्मानित किया. उसके एक साल बाद 1948 में वे गोल्ड मेडल से सम्मानित हुए. उस वक्त उनकी उम्र महज़ 25 साल थी. इस अवार्ड को पाने वाले वे सबसे कम उम्र के चित्रकार थे."
सैयद हैदर रज़ा की कला में क्रांतिकारी बदलाव, ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप’ (पैग) से जुड़ने के बाद हुआ. वे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के संस्थापक मेंबरों में से एक थे. इस ग्रुप में फ्रांसिस न्यूटन सूजा, कृष्णा जी हावला जी आरा, मकबूल फ़िदा हुसेन, हरि अम्बादास गाडे, सदानन्द बाकरे, बी.एस. गायतोंडे और अकबर पद्मसी जैसे कलाकार शामिल थे. जिन्होंने आगे चलकर, कला की दुनिया में देश का बड़ा नाम किया.
आज हम भारतीय चित्रकला का जो आधुनिक स्वरूप देख रहे हैं, उसमें ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप’ और उससे जुड़े कलाकारों जिसमें सैयद हैदर रज़ा भी शामिल हैं, का बड़ा योगदान है.
सैयद हैदर रज़ा साहब 1948 में कश्मीर गये. इसी यात्रा में उन्होंने ‘सिटीस्केप’ (1946) और ‘बारामूला इन रूइन्स’ (1948) जैसी कई यथार्थवादी पेंटिंग बनाईं. कश्मीर की इस यात्रा में उनकी मुलाकात मशहूर फ्रेंच फोटोग्राफर हेनरी कार्तिए-ब्रेसाँ से हुई.
हेनरी कार्तिए-ब्रेसाँ ने रजा की पेंटिंग देखने के बाद टिप्पणी करते हुए कहा, ‘‘तुम प्रतिभाशाली हो, लेकिन प्रतिभाशाली युवा चित्रकारों को लेकर मैं संदेहशील हूँ. तुम्हारे चित्रों में रंग है, भावना है, लेकिन रचना नहीं है. तुम्हें मालूम होना चाहिए कि चित्र इमारत की ही तरह बनाया जाता है-आधार, नींव, दीवारें, बीम, छत और तब जाकर वह टिकता है. मैं कहूँगा कि तुम सेज़ाँ का काम ध्यान से देखो.’’
बहरहाल, इस छोटी सी टिप्पणी का सैयद हैदर रज़ा की जिंदगी और कला पर गहरा असर पड़ा. इस बीच उन्हें फ्रांस सरकार की फेलोशिप मिल गई. साल 1950 से 1953 के बीच उन्होंने ‘इकोल नेशनल सुपेरिया डेब्लू आर्ट्स’ से आधुनिक कला शैली और तकनीक का अध्ययन किया. कला के नए आयाम सीखे. पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पूरे यूरोप का भ्रमण किया. कई कला प्रदर्शनी भी कीं.
अपनी चित्रकला के शुरुआती दौर यानी 1940 से 50 के दशक में सैयद हैदर रज़ा ने बहुत सारे लैंडस्कैप बनाए. परिदृश्यों तथा शहर के चित्रणों से गुज़रते हुए उनकी चित्रकारी का झुकाव चित्रकला की अधिक अर्थपूर्ण भाषा, मस्तिष्क के चित्रण की ओर हो गया. आगे चलकर सातवे दशक में उन्होंने देश की परम्परागत कला संस्कृति का गहन अध्ययन किया.
देश के कई अंचलों जैसे गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र आदि का भ्रमण किया. अजंता-एलोरा की कलाकृतियों को गहराई से देखा. यह तजुर्बा उनके लिए नया सा था. जितना वे उसके नज़दीक गए, उन्हें देश की संस्कृति और कला से मुहब्बत हो गई. इन सब तज़रबात का ही नतीज़ा ‘बिंदु’ चित्र सीरिज की शुरुआत है. ‘बिंदु’ और रज़ा एक-दूसरे के पर्याय हो गए. यहां तक कि उनका सबसे मशहूर और पसंद किया जाने वाला काम बिंदु आधारित ही रहा है.
सैयद हैदर रज़ा के चित्र पूरी तरह से अमूर्त भी नहीं हैं. उनमें ज्यामितीय आकार मौजूद हैं. उनके चित्रों में आगे चलकर भारतीय दर्शन की झलक दिखाने के लिए त्रिकोण भी आया. जो स्त्री और पुरुष को परिभाषित करता है. बाद के सालों में उन्होंने भारतीय अध्यात्म पर भी काम किया. ‘कुंडलिनी नाग’ और ‘महाभारत’ जैसे विषयों पर चित्र बनाए.
सैयद हैदर रज़ा का आर्ट मीडियम ज़्यादातर तैल और ऐक्रेलिक मीडियम में है. उनमे रंगों का ज़्यादा इस्तेमाल किया गया है. सब्जेक्ट के तौर पर प्रकृति भू-दृश्य, ब्रह्माण्ड और दर्शन के चिह्न शामिल हैं. रज़ा तक़रीबन 60 साल तक पेरिस में रहे. फिर भी अपने देश से उनका नाता नहीं छूटा. वे आखि़र तक भारतीय नागरिक ही रहे. उन्होंने देश की नागरिकता नहीं छोड़ी. भारत से उन्हें बहुत प्यार था.
उन्होंने अपनी संस्कृति और पहचान को कभी भुलाया. ‘माँ मैं फिर लौट के आऊंगा’ शीर्षक चित्र में उन्होंने प्रतीकात्मक ढ़ंग से अपनी जन्मभूमि को याद किया है. दरअसल, सैयद हैदर रज़ा के चित्रों में भारतीयता का अंश-यहां की परंपरा, मिनिएचर चित्रों के प्रयोग और लोक आदिवासी जीवन के साथ घनिष्ठ और सार्थक संबंध होने के कारण ही दिखाई देता है.
‘धर्मयुग’ पत्रिका में आठवें दशक में प्रकाशित हुए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था, ‘‘मेरी पैदाइश मुस्लिम परिवार में हुई, पिता जी कट्टर न थे. धर्म के बारे में उनके पाक और उदार विचार रहे हैं. हम स्कूल से आ कर रोज रामायण के दोहे-चौपाइयां पढ़ते थे. घर में जो तहज़ीब मिली है, उस पर नाज़ है. और मुझे नाज़ है अपने शिक्षकों पर. जिन्होंने मुझे शुद्ध हिन्दू पृष्ठभूमि की पहचान दिलायी. हिंदी भाषा के प्रति भी प्रेम उकसाया. धर्म को एक रेडीमेड चीज मानकर उसे स्वीकार करना नहीं, केवल उसकी रूढ़ियां, रीति-रिवाज धर्म नहीं है. यही हमें घर में सिखाया गया. दूसरे मज़हब अच्छे नहीं हैं, यह भी नहीं कहा गया. तीनों धर्मों मुस्लिम, हिन्दू और ईसाई से मुझे समय-समय पर शक्ति मिलती है. मैं मस्जिद, मंदिर या गिरिजाघर तीनों से शक्तियां पाता हूं.“
सैयद हैदर रज़ा देश के उन गिने चुने चित्रकारों में से एक थे, जिनकी पेंटिंग लंदन या न्यूयॉर्क के अंतर्राष्ट्रीय नीलामघरों में करोड़ों में बिकती थीं. उनकी 1983 में बनी सात फीट लंबी पेंटिंग ‘सौराष्ट्र’, क्रिस्टी नीलामघर में 16 करोड़ से ज्यादा में बिकी थी. वहीं 1973 में बनी एक दूसरी पेंटिंग साल 2014 में 18 करोड़ से ज़्यादा में बिकी. उनके निधन के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा. पिछले दिनों उनकी एक पेंटिंग 29 करोड़ रुपये में बिकी थी.
चित्रकला में बेमिसाल काम के लिए सैयद हैदर रज़ा कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किए गए. देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मानों में से एक पद्मश्री, पद्मभूषण और पद्म विभूषण से वे सम्मानित किए गए. साल 1956 में उन्हें ‘प्रिक्स डे ला क्रिटिक पुरस्कार’ से नवाज़ा गया. यह किसी गैर फ्रांसीसी को मिलने वाला पहला पुरस्कार था. यही नहीं रज़ा को फ्रांस का ही ‘लीज़न ऑफ ऑनर’ भी मिला. यह फ्रांस का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है. एसएच. रज़ा आला दर्जे के चित्रकार होने के साथ-साथ एक अच्छे लेखक भी थे. ‘रज़ा, ए लाइफ इन आर्ट’, ‘एस. एच. रजा’, ‘मंडला : सेड हैदर रज़ा’ आदि उनकी अहम किताबें हैं. ‘आत्मा का ताप’ सैयद हैदर रज़ा की आत्मकथा है.
सैयद हैदर रज़ा ने भले ही अपनी ज़िन्दगी का ज़्यादातर वक़्त पेरिस में बिताया हो, लेकिन उनके दिल में देश और देशवासी ही बसे रहते थे. ख़ास तौर से नौजवानों के लिए वे काफ़ी कुछ सोचते थे. उनका भविष्य संवारने के लिए, रज़ा के पास कई योजनाएं थीं. भारतीय युवाओं को कला में प्रोत्साहन देने के लिए, उन्होंने अपने जीते जी ‘रज़ा फाउंडेशन’ की स्थापना की थी. जो भारतीय कला और हिंदी साहित्य को बढ़ावा देने के लिए अनेक योजनाएं चला रहा है. सैयद हैदर रज़ा को भारतीय कला पर हमेशा नाज़ रहा. भारतीय कला के बारे में उनका ख़याल था, ‘‘यह विश्व स्तर की है; कि उसकी आधुनिकता पश्चिमी कला का एक संस्करण नहीं है और उसके कारक और मूल तत्व बिलकुल अलग और अनोखे हैं.’’ सैयद हैदर रज़ा जब तक हयात रहे, कला की सृजना करते रहे. नब्बे साल की उम्र पूरी करने के बाद भी तक़रीबन हर रोज वे कैनवास पर रंग भरते थे.
23 जुलाई, 1916 को उन्होंने इस दुनिया से अपनी विदाई ली. सैयद हैदर रज़ा की आखि़री ख़्वाहिश के मुताबिक उनका अंतिम संस्कार मध्य प्रदेश के मंडला में किया गया. वहीं अपनी पूरी जायदाद वे रज़ा फाउंडेशन को सौंप गये. कवि और कला मर्मज्ञ अशोक वाजपेयी ने सैयद हैदर रज़ा के निधन के बाद, अपने एक श्रद्धांजलि लेख में उनकी शख़्सियत के एक अहम पहलू का बख़ान करते हुए लिखा है, ‘‘उनका किसी कर्मकांड में रत्ती भर विश्वास नहीं था. पर वे गहरी आस्था के आधुनिक थे, उस आधुनिकता का एक विकल्प जिसमें अनास्था केन्द्रीय है. उनका विराट् में भरोसा था और एक स्तर पर उनकी कला, विराट् के स्पंदन को अपनी रंगकाया में निरंतर समाहित करती रही है. यह स्पंदन ही उन्हें जीवन में बेहद उदारचरित बनाता था.’’