शायर मख़दूम मोहिउद्दीन का जन्मदिवस: वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 04-02-2023
 शायर मख़दूम मोहिउद्दीन का जन्मदिवस: वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी
शायर मख़दूम मोहिउद्दीन का जन्मदिवस: वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी

 

ज़ाहिद ख़ान

इंक़लाबी शायर मख़दूम मोहिउद्दीन का शुमार मुल्क में उन शख़्सियात में होता है, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी अवाम की लड़ाई लड़ने में गुज़ार दी. सुर्ख परचम के तले उन्होंने आज़ादी की तहरीक में हिस्सेदारी की और आज़ादी के बाद भी उनका संघर्ष असेंबली व उसके बाहर लोकतांत्रिक लड़ाईयों से लगातार जुड़ा रहा. आज़ादी की तहरीक के दौरान उन्होंने न सिर्फ़ साम्राज्यवादी अंग्रेज़ी हुकूमत से जमकर टक्कर ली, बल्कि अवाम को सामंतशाही के ख़िलाफ़ भी बेदार किया.

मख़दूम एक साथ कई मोर्चों पर काम कर सकते थे. किसान आंदोलन, ट्रेड यूनियन, पार्टी और लेखक संगठन के संगठनात्मक कार्य सभी में वे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते. इन्हीं मसरूफ़ियत के दौरान उनकी शायरी परवाज़ चढ़ी. अदब और समाजी बदलाव के लिए संघर्षरत नौजवानों में मख़दूम की शायरी आज भी नई जान फूंकती है.

हयात ले के चलो, क़ायनात ले के चलो

चलो तो ज़माने को अपने साथ ले के चलो.

अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक वे जन संघर्षों से जुड़े रहे. सच बात तो यह है कि उनकी ज़्यादातर शायरी इन्हीं जन संघर्षों के बीच पैदा हुई थी. मख़दूम ने जागीरदार और किसान, सरमायेदार-मज़दूर, आका-ग़ुलाम और शोषक—शोषित की कशमकश और संघर्ष को अपनी नज़्मों में ढाला. उन्हें अपनी आवाज़ दी.

मुल्क में यह वह दौर था, जब किसान और मज़दूर इकट्ठे होकर अपने हुक़ूक़ मनवाने के लिए एक साथ खड़े हुए थे. मख़दूम की क़ौमी नज़्मों का कोई सानी नहीं था. जलसों में कोरस की शक्ल में जब उनकी नज़्में गाई जातीं, तो एक समां बंध जाता. हज़ारों लोग आंदोलित हो उठते. मख़दूम की एक नहीं, ऐसी कई नज़्में हैं, जो अवाम में समान रूप से मक़बूल हैं.

वो हिन्दी नौजवां यानी अलम्बरदार-ए-आज़ादी

वतन का पासबां वो तेग-ए-जौहर दार-ए-आज़ादी.

(नज़्म—‘आज़ादी-ए-वतन’)

और ‘‘ये जंग है, जंग-ए-आज़ादी के लिए’’ इन नज़्मों ने तो उन्हें हिन्दुस्तानी अवाम का महबूब और मक़बूल शायर बना दिया. आज भी कहीं मज़दूरों का कोई जलसा हो और उसमें ‘‘ये जंग है, जंग-ए-आज़ादी के लिए’’ नज़्म को गाया न जाए, ऐसा शायद ही होता है. इस इंक़लाबी नज़्म की जरा सी बानगी,

लो सुर्ख़ सबेरा आता है आज़ादी का, आज़ादी का

गुलनार तराना गाता है आज़ादी का, आज़ादी का

देखो परचम लहराता है आज़ादी का, आज़ादी का.

इस नज़्म से जब एक साथ हज़ारों आवाजें समवेत होती हैं, तो सभा गूंज उठती है. प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक, लेखक, संगठनकर्ता सज्जाद ज़हीर तो मख़दूम की नज़्मों और दिलकश आवाज़ पर जैसे फ़िदा ही थे. अपनी किताब ‘रौशनाई’ में इस नज़्म की तारीफ़ में वे लिखते हैं,‘‘यह तराना, हर उस गिरोह और मजमें में आज़ादी चाहने वाले संगठित अवाम के बढ़ते हुए क़दमों की आहट, उनके दिलों की पुर—जोश धड़कन और उनके गुलनार भविष्य की रंगीनी पैदा करता था, जहां ये तराना उस ज़माने में गाया जाता था.’’

4फरवरी, साल 1908में तेलंगाना इलाके के छोटे से गांव अन्डोल में पैदा हुए, अबू सईद मोहम्मद मख़दूम मोहिउद्दीन क़ुद्री उर्फ़ मख़दूम के सिर से महज़ चार साल की उम्र में ही वालिद का साया उठ गया था. उनके चाचा ने उन्हें पाला पोसा. बचपन से ही संघर्ष का जो पाठ उन्होंने पढ़ा, वह ज़िंदगी भर उनके काम आया.

पढ़ाई पूरी करने के बाद मख़दूम नौकरी की ख़ातिर काफ़ी परेशान हुए. बड़ी मुश्किलों के बाद, हैदराबाद के सिटी कॉलेज में उर्दू पढ़ाने के लिए उनकी नियुक्ति हुई. नौकरी ज़िंदगी की ज़रूरत थी, लेकिन उनका दिल आंदोलन और शायरी में ही ज़्यादा रमता था. ग़ुलाम वतन में उनका दिल आज़ादी के लिए तड़पता. किसानों और मज़दूरों के दुःख-दर्द उनसे देखे नहीं जाते थे.

ग़ुलाम हिन्दुस्तान में सामंती निज़ाम की बदतरीन विकृतियां हैदराबाद रियासत में मौजूद थीं. मख़दूम के सामने हालात बड़े दुश्वार थे और इन्हीं हालातों में से उन्हें अपना रास्ता बनाना था.

प्रगतिशील लेखक संघ में आने के बाद, मख़दूम की सोच में निखार आया. उनकी कलम से साम्राज्यवाद विरोधी नज़्म ‘आज़ादी-ए-वतन’ व सामंतवाद विरोधी ‘हवेली’, ‘मौत के गीत’ जैसी कई क्रांतिकारी रचनायें निकलीं. मख़दूम के बग़ावती ज़ेहन ने आगे चलकर, उन्हें आंदोलनों की राह पर ला खड़ा किया. साल 1939में दूसरी आलमी जंग छिड़ने के बाद मुल्क में मज़दूर वर्ग के आंदोलनों में काफ़ी तेज़ी आई.

मख़दूम भी ट्रेड यूनियन आंदोलन में शामिल हो गए. मज़दूरों के बीच काम करने के लिए उन्होंने सिटी कॉलेज की नौकरी से इस्तीफ़ा तक दे दिया. वे पूरी तरह से ट्रेड यूनियन की तहरीक से जुड़ गए. हैदराबाद की दर्जनों मज़दूर यूनियन की रहनुमाई मख़दूम एक साथ किया करते थे. आगे चलकर वे सौ से ज़्यादा यूनियनों के संस्थापक अध्यक्ष बने.

आलमी जंग का जब आग़ाज़ हुआ, तो मुल्क की अवामी तहरीकों पर भी हमला हुआ. इन हमलों से तहरीक कमज़ोर होने की बजाए और भी ज़्यादा मज़बूत होकर उभरी. साम्राजी तबाहकारी, हिंसा और अत्याचार के माहौल की फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और मख़दूम ने अपनी नज़्मों में बड़े पुर—असर अंदाज़ में अक्कासी की. साम्राजी जंग के दौर में मुश्किल से आधा दर्जन ऐसी नज़्में कही गई होंगी, जिनसे जंग की असल हक़ीक़त वाजेह होती हैं और उनमें भी आधी से ज़्यादा मख़दूम की हैं. मसलन ‘जुल्फ़-ए-चलीपा’, ‘सिपाही’, ‘जंग’, 'मशरिक़' और ‘अंधेरा’. ‘सिपाही’ नज़्म में वे जंग पर तन्क़ीद करते हुए लिखते हैं,

कितने सहमे हुए हैं नज़ारे

कैसे डर-डर के चलते हैं तारे

क्या जवानी का ख़ूं हो रहा है

सूखे हैं आंचलों के किनारे

जाने वाले सिपाही से पूछो

वो कहां जा रहा है ?’’

वहीं अपनी ‘जंग’ नज़्म में मख़दूम ने कहा,

निकले दहान—ए तोप से बरबादियों के राग

बाग—ए जहां में फैल गई दोज़ख़ों की आग.

‘जंग’ नज़्म हालांकि, उनकी पहली सियासी नज़्म थी, फिर भी यह नज़्म फासिज़्म के ख़िलाफ़ उर्दू शायरी की पहली सदा-ए—एहतिजाज बनी. इस नज़्म के बाद उर्दू अदब में और भी ऐसी कई नज़्में लिखी गईं. मुल्क की आज़ादी की तहरीक के दौरान अंगेज़ी हुकूमत का विरोध करने के ज़ुर्म में मख़दूम कई मर्तबा ज़ेल भी गए, पर उनके तेवर नहीं बदले.

तमाम संघर्षों के बाद आख़िरकार, हमारा मुल्क आज़ाद हुआ. आज़ादी के बाद भी मख़दूम का संघर्ष ख़त्म नहीं हुआ. आंध्रा में जब तेलंगाना के लिए किसान आंदोलन शुरू हुआ, तो मख़दूम फिर केन्द्रीय भूमिका में आ गए. तेलंगाना के सशस्त्र संघर्ष में उन्होंने प्रत्यक्ष भागीदारी की. आंध्रा और तेलंगाना में किसानों की बेदारी के लिए मख़दूम ने जमकर काम किया. 'तेलंगाना', 'बागी', 'जां बाजान—ए कययूर' और 'तेलंगाना' जैसी नज़्मों में उन्होंने तेलंगाना की खुलकर तरफ़दारी की.

बाद में मख़दूम चुनाव भी लड़े और कम्युनिस्ट पार्टी के टिकिट से असेम्बली भी पहुंचे. अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक वे पार्टी की नेतृत्वकारी इकाइयों में बने रहे. मेहनतकशों के लिए उनका दिल धड़कता था. मज़दूर यूनियन ऐटक के ज़रिए वे मज़दूरों के अधिकारों के लिए हमेशा संघर्षरत रहे. मख़दूम ने अकेले इंक़लाब की ही नज़्में नहीं लिखीं, मुहब्बत में डूबी हुई उनकी नज़्मों का भी कोई जवाब नहीं. मसलन

ज़िंदगी लुत्फ़ भी है ज़िंदगी आज़ार भी है

साज़-ओ-आहंग भी ज़ंजीर की झंकार भी है

ज़िंदगी दीद भी है हसरत-ए-दीदार भी है

ज़हर भी आब-ए-हयात-ए-लब-ओ-रुख़्सार भी है

ज़िंदगी ख़ार भी है ज़िंदगी दार भी है

आज की रात न जा.

(नज़्म—'आज की रात न जा')

रात भर दीदा-ए-नमनाक में लहराते रहे

साँस की तरह से आप आते रहे जाते रहे

मेरे महबूब मिरी नींद उड़ाने वाले

मेरे मस्जूद मिरी रूह पे छाने वाले

आ भी जा, ताकि मिरे सज्दों का अरमाँ निकले

आ भी जा, ताकि तिरे क़दमों पे मिरी जाँ निकले.

(नज़्म—इंतिज़ार)

 

मुहब्बत के ऐसे नरम एहसास और गहरे जज़्बात मख़दूम की कई ग़ज़लों और नज़्मों में दिखाई देते हैं. इन एहसास और जज़्बात से ही ग़ज़ल, ग़ज़ल कहलाती है. मख़दूम मोहिउद्दीन ने न सिर्फ़ आज़ादी की तहरीक में हिस्सेदारी की, बल्कि अपने तंई साहित्यिक और सांस्कृतिक दुनिया को भी आबाद किया. अवामी थियेटर में मख़दूम के इंक़लाबी नग़्में गाए जाते थे.

किसान और मज़दूरों के बीच जब इंक़लाबी मुशायरे होते, तो मख़दूम उसमे पेश-पेश होते. अली सरदार जाफ़री, जोश मलीहाबादी, मजाज़, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी के साथ मख़दूम अपनी नज़्मों से लोगों में एक नया जोश फूंक देते थे. उनकी अवामी मसरूफ़ियत ज़्यादा थीं, लिहाज़ा अदबी काम कम ही हो पाता था. बावजूद इसके उन्होंने जितना भी लिखा, वह अदबी शाहकार है.

अपनी किताब ‘गुल-ए तर’ की भूमिका में ख़ुद मख़दूम लिखते हैं, ’’‘गुल-ए तर’ की नज़्में, ग़ज़लें इंतिहाई मसरूफ़ियतों में लिखी गई हैं. यूं महसूस होता है कि मैं लिखने पर मजबूर किया जा रहा हूं. समाजी तक़ाज़े पुर—इसरार तरीक़े पर शे’र लिखवाते रहे हैं. ज़िंदगी ’हर लम्हा नया तूर, नई बर्क़-ए—तज्जली’ है और मुझे यूं महसूस होता है कि मैंने कुछ लिखा ही नहीं.’’ उर्दू अदब को अपने कलाम से इतना आबाद करने के बाद भी, मख़दूम जैसी सादगी और सरलता कितने शायरों में मिलती हैं ?   

 ‘सुर्ख़ सबेरा’, ‘गुल—ए तर’ और ‘बिसात—ए रक्स’ मख़दूम के कलाम के मजमुए हैं, जिसमें उनकी नज़्म व ग़ज़लें संकलित हैं. ‘बिसात—ए रक्स’ के लिए उन्हें साल 1969 में उर्दू साहित्य एकेडमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया. मख़दूम की मशहूर नज़्में फ़िल्मों में भी इस्तेमाल हुईं, जिन्हें आज भी उनके चाहने वाले गुनगुनाते हैं.

मसलन ‘आपकी याद आती रही रात भर’ (फ़िल्म—गमन), ‘फिर छिड़ी रात बात फूलों की’ (फ़िल्म—बाज़ार), ‘एक चमेली के मंडवे तले’ (फ़िल्म—चा चा चा) और 'जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहा जा रहा है' (फ़िल्म—उसने कहा था). मेहनतकशों के शोषण और पीड़ा को अपनी नज़्मों में आवाज़ देने वाले अवामी शायर मख़दूम मोहिउद्दीन ने 25 अगस्त, 1969 को महज़ 61 साल की उम्र में इस दुनिया से अपनी रुख़्सती ली.

मशहूर जर्नलिस्ट, फ़िल्मकार और अफ़साना निगार ख़्वाजा अहमद अब्बास ने मख़दूम की शानदार शख़्सियत को बयां करते हुए क्या ख़ूब कहा है,‘‘मख़दूम एक धधकती ज्वाला थे और ओस की ठण्डी बूँदें भी, वे क्रांति के आवाहक थे और पायल की झंकार भी. वे कर्म थे, वे प्रज्ञा थे, वे क्रांतिकारी छापामार की बंदूक थे और संगीतकार का सितार भी, वे बारूद की गंध थे और चमेली की महक भी.’’