खुमार बाराबंकवीः न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 15-09-2021
खुमार बाराबांकवी
खुमार बाराबांकवी

 

आवाज विशेष । शायर-गीतकार खुमार बाराबंकवी का जन्मदिवस     

ज़ाहिद ख़ान

ख़ुमार बाराबंकवी का शुमार मुल्क के उन आलातरीन शायरों में होता है, जिनकी शानदार शायरी का ख़ुमार एक लंबे अरसे के बाद भी नहीं उतरा है. एक दौर था जब उनकी शायरी का ख़ुमार, उनके चाहने वालों के सर चढ़कर बोलता था. जिन लोगों ने मुशायरों में उन्हें रू-ब-रू देखा-सुना है या उनके पुराने यूट्यूब वीडियो देखे हैं, वे जानते हैं कि वे किस आला दर्जे के शायर थे. मुल्क की आज़ादी के ठीक पहले और उसके बाद जिन शायरों ने मुशायरे को आलमी तौर पर मक़बूल किया, उसमें भी ख़ुमार बाराबंकवी का नाम अव्वल नंबर पर लिया जाता है.

मुशायरों की तो वे ज़ीनत थे और उन्हें आबरु-ए-ग़ज़ल तक कहा जाता था. 15 सितंबर, 1919 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में पैदा हुए ख़ुमार बाराबंकवी का असल नाम मोहम्मद हैदर ख़ान था. घर में शेर-ओ-सुख़न का माहौल था. उनके वालिद डॉक्टर ग़ुलाम मोहम्मद ‘बहर’ के तख़ल्लुस से शायरी करते थे, तो उनके चचा ’क़रार बराबंकवी’ भी नामी शायर थे. ज़ाहिर है कि घर के अदबी माहौल का असर हैदर खान पर पड़ा. पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ बचपन से ही वे शायरी करने लगे. क़रार बराबंकवी ने उनके शुरुआती शेरों में उन्हें इस्लाह दी. साल 1938 में महज़ उन्नीस साल की उम्र में मोहम्मद हैदर ख़ान ने ख़ुमार बाराबंकवी के नाम से बरेली में अपना पहला मुशायरा पढ़ा. मुशायरे में जब उन्होंने अपना पहला शे’र ‘वाक़िफ नहीं तुम अपनी निगाहों के असर से/इस राज़ को पूछो किसी बर्बाद नज़र से.’ पढ़ा, तो इस शे’र को स्टेज पर बैठे शायरों के साथ-साथ सामयीन की भी भरपूर दाद मिली. ये तो महज एक शुरुआत भर थी, बाद में मुशायरों में उन्हें जो शोहरत मिली, उसे उर्दू अदब की दुनिया से वाकिफ़ सब लोग जानते हैं. ’ख़ुमार’ उनका तख़ल्लुस था. जिसके हिंदी मायने ’नशा’ होता है और उन्होंने अपने इस नाम को हमेशा चरितार्थ किया.

उस दौर में रिवायत थी, हर शायर अपने नाम या तख़ल्लुस के साथ अपने शहर का नाम भी जोड़ लेते थे. लिहाज़ा मोहम्मद हैदर ख़ान का पूरा नाम हुआ, ख़ुमार बाराबंकवी. फिर आगे वे इसी नाम से पूरे देश-दुनिया में जाने-पहचाने गए.

ख़ुमार बाराबंकवी मुशायरों में अपनी ग़ज़लें तहत की बजाए तरन्नुम में पढ़ते थे. जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी से लेकर मजरूह सुल्तानपुरी तक उस दौर के ज़्यादातर शायर, मुशायरों के अंदर तरन्नुम में ही अपनी ग़ज़लें पढ़ा करते थे. यह एक आम रिवाज था, जो सामयीन को भी काफ़ी पसंद आता था. ख़ुमार बाराबंकवी भी उसी रहगुज़र पर चले. उनकी आवाज और तरन्नुम ग़ज़ब का था. जिस पर ग़ज़ल पढ़ने का उनका एक जुदा अंदाज़, हर मिसरे के बाद आदाब कहने की उनकी दिलफ़रेब अदा, उन्हें दूसरे शायरों से अलग करती थी. शुरुआती दौर में ख़ुमार बाराबंकवी ने अपने दौर के सभी बड़े शायरों के साथ मंच साझा किया. जिगर मुरादाबादी और मजरूह सुल्तानपुरी के साथ जब वे मुशायरों में अपनी ग़ज़लें पढ़ते, तो एक समां बंध जाता था. अपने कलाम से वे लोगों को अपना दीवाना बना लेते थे. इश्क-मोहब्बत, माशूक के साथ मिलन-जुदाई के नाजुक एहसास में डूबी ख़ुमार बाराबंकवी की ग़ज़लें सामयीन पर गहरा जादू सा करती थीं. ख़ुमार बाराबंकवी का समूचा कलाम यदि देखें, तो वे अपनी ग़ज़लों में अरबी, फारसी के कठिन अल्फ़ाज़ों का न के बराबर इस्तेमाल करते थे. उनकी ग़ज़लों के ऐसे कई शे’र मिल जाएंगे, जो अपनी सादा ज़बान की वजह से ही लोगों में मशहूर हुए और आज भी उतने ही मक़बूल हैं. ‘न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है/दिया जल रहा है हवा चल रही है.’, ‘कोई धोका न खा जाए मेरी तरह/ऐसे खुल के न सबसे मिला कीजिए.’ इस तरह के अशआर आसानी से सामयीन के कानों से होते हुए, उनकी रूह तक उतर जाते हैं.

ख़ुमार बाराबंकवी थोड़े से ही अरसे में पूरे मुल्क में मशहूर हो गये. मुशायरें में उन्हें और उनकी शायरी को तवज्जोह दी जाने लगी. यह वह दौर था, जब जिगर मुरादाबादी और ख़ुमार बाराबंकवी का किसी भी मुशायरे में होना, मुशायरे की कामयाबी की गारंटी माना जाता था. लोग इन्हें ही मुशायरे में सुनने आया करते थे. मुशायरों से उनकी यह शोहरत, फिल्मी दुनिया तक जा पहुंची. साल 1945 में एक मुशायरे के सिलसिले में ख़ुमार बाराबंकवी का मुंबई जाना हुआ. मुशायरे की इस महफ़िल में मशहूर निर्देशक ए. आर. कारदार और मौसिकार नौशाद भी मौजूद थे. इन दोनों ने जब ख़ुमार के कलाम को सुना, तो बेहद मुतासिर हुए और इन्हें फिल्म ‘शाहजहां’ के लिए साइन कर लिया. ‘शाहजहां’, मजरूह सुल्तानपुरी की भी इत्तेफ़ाक से पहली फिल्म थी. डायरेक्टर और मौसिकार को एक और गीतकार की तलाश थी, जो ख़ुमार बाराबंकवी पर जाकर ख़त्म हुई. इस तरह ख़ुमार बाराबंकवी का फ़िल्मी सफ़र शुरू हुआ. साल 1946 में आई ‘शाहजहां’ अपने गीत-संगीत की वजह से उस दौर में बड़ी हिट फ़िल्म साबित हुई. इस फ़िल्म के ये नग़मे ‘चाह बरबाद करेगी’ और ‘ये दिल-ए-बेकरार झूम कोई आया है’ को ख़ुमार बाराबंकवी ने ही लिखा था. इस फिल्म के बाद ‘रूपलेखा’, हलचल’, ‘ज़वाब’, ‘दरवाजा’, ‘जरा बच के’ ‘बारादरी’, ‘दिल की बस्ती’, ‘आधी रात’, ‘मेहरबानी’, ‘मेहंदी’, ‘महफ़िल’, ‘शहजादा’, ‘क़ातिल’, ‘साज और आवाज़’ और ‘लव एंड गॉड’ वगैरह फ़िल्मों में उन्होंने गीत लिखे. जिसमें से अनेक गाने बेहद मक़बूल हुए. ख़ास तौर से फिल्म ‘बारादरी’ के इन गानों ने ‘भुला नहीं देना, ज़माना ख़राब है’, ‘तस्वीर बनाता हूं तस्वीर नहीं बनती’, ’दर्द भरा दिल भर-भर आए’, ‘मुहब्बत की बस इतनी दास्ताँ है’ और ’आई बैरन बयार, कियो सोलह सिंगार’ ने तो जैसे धूम ही मचा दी थी. इनके अलावा ‘तुम हो जाओ हमारे, हम हो जायें तुम्हारे’ (फ़िल्म रूपलेखा), ‘लूट लिया मेरा क़रार फिर दिले बेकरार ने’ (फिल्म हलचल), ’अपने किये पे कोई परेशान हो गया’ (फ़िल्म मेहंदी), ‘सो जा तू मेरे राज दुलारे’, ‘आज गम कल खुशी है’ (फिल्म ज़वाब) ’एक दिल और तलबगार है बहुत’, ’दिल की महफ़िल सजी है चले आइए’, ’साज हो तुम आवाज़ हूँ मैं’ (फिल्म साज और आवाज़) आदि गीत भी अपनी बेजोड़ शायरी की वजह से पूरे देश में खूब लोकप्रिय हुए.

फिल्मों में इतनी मक़बूलियत के बावजूद ख़ुमार बाराबंकवी को फ़िल्मी दुनिया और उसका माहौल ज्यादा रास नहीं आया. जल्द ही उन्होंने फिल्मों से किनारा कर लिया और पूरी तरह से फिर मुशायरों की दुनिया में आबाद हो गए. ख़ुमार बाराबंकवी बुनियादी तौर पर ग़ज़लगो थे. जिनकी ग़ज़लगोई का कोई सानी नहीं था. उन्होंने नज़्में न के बराबर लिखीं. मुल्क में जब तरक़्क़ीपसंद तहरीक अपने उरूज पर थी और ज़्यादातर बड़े शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, जोश मलीहाबादी, फ़िराक़ गोरखपुरी, मख़दूम नज़्में लिख रहे थे, तब भी ख़ुमार बाराबंकवी ने ग़ज़ल का दामन नहीं छोड़ा. हसरत मोहानी, जिगर मुरादाबादी और मजरूह सुल्तानपुरी की तरह उनका अक़ीदा ग़ज़ल में ही बरकरार रहा. अपने शानदार अशआर से उन्होंने ग़ज़ल को अज़्मत बख़्शी. वे मुशायरे में शायरी इस अंदाज में पढ़ते, जैसे सामयीन से गुफ़्तगू कर रहे हों. अपनी शायरी और ख़ूबसूरत तरन्नुम से ख़ुमार बाराबंकवी मुशायरे को नई ऊंचाईयों पर पहुंचा देते थे. सामयीन उन्हें घंटों सुनते, मगर उनका दिल नहीं भरता. इस तरह की मक़बूलियत बहुत कम शायरों को हासिल हुई है.

ख़ुमार बाराबंकवी की एक नहीं, कई ऐसी ग़ज़लें हैं, जो आज भी उसी तरह से गुनगुनाई जाती हैं. उनकी मशहूर ग़ज़लों के कुछ अशआर हैं, ‘तेरे दर से जब उठके जाना पड़ेगा/ख़ुद अपना जनाज़ा उठाना पड़ेगा/....‘ख़ुमार’ उनके घर जा रहे हो तो जाओ/मगर रास्ते मैं ज़माना पड़ेगा.’, ‘वही फिर मुझे याद आने लगे हैं/जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं/....क़यामत यक़ीनन क़रीब आ गयी है/‘ख़ुमार’ अब तो मस्ज़िद जाने लगे हैं.’, ‘बुझ गया दिल हयात बाक़ी है/छुप गया चाँद रात बाक़ी है/....न वो दिल है न वो शबाब ‘ख़ुमार’/किस लिए अब हयात बाक़ी है.’ मुशायरों और फिल्मों में मशरूफ़ियत के चलते ख़ुमार बाराबंकवी ने अपनी किताबों पर ज़्यादा तवज्जोह नहीं दी. बावजूद इसके उनकी ज़िंदगी में ही चार किताबें ‘शब-ए-ताब’, ‘हदीस-ए-दीगरां’, ‘आतिश-ए-तर’ और ‘रक्स-ए-मय’ शाया हो गईं थीं. इन किताबों को भले ही कोई बड़ा अदबी अवार्ड न मिला हो, पर अवाम में ये ख़ूब मक़बूल हैं. कई यूनीवर्सिटी के सिलेबस में ख़ुमार बाराबंकवी की किताबें पढ़ाई जाती हैं. जहां तक उन्हें मिले इनाम-ओ-इक़राम का सवाल है, तो उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी, जिगर मुरादाबादी उर्दू अवार्ड, उर्दू सेंटर कीनिया, अकादमी नवाये मीर उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद, मल्टी कल्चरल सेंटर ओसो कनाडा, अदबी संगम न्यूयार्क वगैरह सम्मान से वे नवाज़े गए. अपनी ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त में ख़ुमार बाराबंकवी काफी तकलीफ़ में रहे. माली तौर पर भी और जिस्मानी तौर पर भी. लंबी बीमारी के बाद 19 फरवरी, 1999 को उन्होंने इस जहान-ए-फ़ानी को यह कहकर अलविदा कह दिया, ‘अल्लाह जाने मौत कहाँ मर गई ‘ख़ुमार’/अब मुझ को ज़िंदगी की ज़रूरत नहीं रही.’