अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व उनकी कविताओं से झलकता है

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 25-12-2021
भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी
भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी

 

डॉ. साकेत सहाय

आधुनिक भारतीय राजनीति के सर्वमान्य व्यक्तित्व के रूप में ख्यात कवि-ह्रदय भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी के संवेदनशील और ह्रदयस्पर्शी भाव उनकी कविताओं के रूप में निरंतर प्रकट होते रहे. वाजपेयी जी की कविताओं में स्वाभिमान, राष्ट्र प्रेम, कल्याण, उत्सर्ग, त्याग, न्याय, समानता, आस्था एवं समर्पण के भाव प्रबल रहे. एक राजनीतिज्ञ के लिए जितना व्यावहारिक होना ज़रूरी है, एक कवि होने के लिए उतना ही भावनात्मक होना भी आवश्यक है. यह सुखद संयोग रहा कि वे आजीवन दोनों ही संयोग से फलित होकर एक विशिष्ट व्यक्तित्व बने रहे. जीवन बोध पर उनकी एक कविता सदैव पाठकों को प्रेरित करती रहेगी-

बाधाएँ आती हैं आएँ

घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,

पांवों के नीचे अंगारे,

सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,

निज हाथों में हँसते-हँसते,

आग लगाकर जलना होगा.

कदम मिलाकर चलना होगा.

 

हास्य-रुदन मेंतूफानों में,

अमर असंख्यक बलिदानों में,

उद्यानों में, वीरानों में,

अपमानों में,सम्मानों में,

उन्नत मस्तिष्क,उभरा सीना,

पीड़ाओं में पलना होगा.

कदम मिलाकर चलना होगा.

 

भारतीय दर्शन और प्रकृति चेतना ने कवि-कर्म को दृश्य और दृष्टि दोनों क्षेत्रों में आंदोलित किया है. आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर ‘अज्ञेय’ कहते हैं, “काव्य सबसे पहले शब्द है और सबसे अंत में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है. सारे कवि-धर्म इसी परिभाषा से नि:सृत होते हैं.”काव्य की इस परिभाषा को यदि देखें तो भारतीय राजनीति के शिखर पुरुष कवि ह्रदय वाजपेयी जी द्वारा रचित कविताओं में स्थित समस्त भाव जगत, धर्म, नैतिकता एवं प्रेम से आबद्ध हैं. उनकी कविता हिरोशिमा की पीड़ाको देखिए

किसी रात को

मेरी नींद अचानक उचट जाती है,

आँख खुल जाती है,

मैं सोचने लगता हूँ कि

जिन वैज्ञानिकों ने अणु-अस्त्रों का

आविष्कार किया था:

वे हिरोशिमा-नागासाकी के

भीषण नरसंहार के समाचार सुनकर,

रात को सोए कैसे होंगे?

 

दाँत में  फँसा तिनका,

आँख की किरकिरी,

पाँव में चुभा काँटा,

आँखों की नींद,

मन का चैन उड़ा देते हैं.

 

सगे-संबंधी की मृत्यु,

किसी प्रिय का न रहना,

परिचित का उठ जाना,

यहाँ तक कि पालतू पशु का भी विछोह

ह्रदय में इतनी पीड़ा,इतना विषाद भर देता है कि

करवटें बदलते रात गुजर जाती है.

 

किन्तु जिनके आविष्कार से

वह अंतिम अस्त्र बना

जिसने छह अगस्त उन्नीस सौ पैंतालीस की काल –रात्रि को

हिरोशिमा-नागासाकी में मृत्यु का तांडव कर

दो लाख से अधिक लोगों की बलि ले ली,

हजारों को जीवन भर के लिए अपाहिज कर दिया.

 

क्या उन्हें एक क्षण के लिए सही,यह

अनुभूति हुई कि उनके हाथों जो कुछ

हुआ अच्छा नहीं हुआ?

यदि हुई,तो वक्त उन्हें कठघरे में खड़ा नहीं करेगा,

किन्तु यदि नहीं हुई,तो इतिहास उन्हें कभी

माफ नहीं करेगा.

(साभार-पुस्तक- चुनी हुई कविताएं-अटल बिहारी वाजपेयी)

25 दिसंबर, 1924 को जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी ओजस्वी वक्ता, एक दूरदृष्टा, भारतीय संस्कृति को साथ लेकर चलनेवाले,नाम के अनुरूप अटल व अडिग व्यक्तित्व के स्वामी थे.  अपनी जन्म तिथि  25 दिसंबर पर वे लिखते हैं, “25 दिसंबर! पता नहीं कि उस दिन मेरा जन्म क्यों हुआ! बाद में बड़ा होने पर, मुझे यह बताया गया कि 25 दिसंबर ईसा मसीह का जन्मदिन है, इसलिए बड़े दिन के रूप में मनाया जाता है. मुझे यह भी बताया गया कि जब मैं पैदा हुआ तब पड़ोस के गिरजाघर में ईसा मसीह के जन्मदिन का त्यौहार मनाया जा रहा था. कैरोल गाए जा रहे थे. उल्लास का वातावरण था, बच्चों में मिठाई बाँटी जा रही थीं. बाद में मुझे यह भी पता लगा कि बड़ा दिन हिन्दू धर्म के उन्नायक पं. मदन मोहन मालवीय का भी जन्मदिन है. मुझे जीवन भर इस बात का अभिमान रहा कि मेरा जन्म ऐसे महापुरुषों के जन्म के दिन ही हुआ.”   

अपने काव्य संयोग के बारे में वे कहते हैं-, ‘’कविता मुझे घुट्टी में मिली थी.  घर में साहित्य-प्रेम का वातावरण था. मैंने भी तुकबंदी शुरू कर दी. मुझे याद है कि मेरी पहली कविता ‘ताजमहल’ कुछ इस तरह थीं-   

ताजमहल, यह ताजमहल,

कैसा सुंदर, अति सुन्दरतर.

वे आगे लिखते हैं, “यह कविता केवल उसके सौन्दर्य तक ही सीमित नहीं थीं. कविता उन कारीगरों की व्यथा तक पहुँच गई थी, जिन्होंने पसीना बहाकर, जीवन खपाकर, ताजमहल का निर्माण किया था. कविता की अंतिम पंक्तियाँ मुझे अभी तक याद हैं”-

जब रोया हिन्दुस्तान सकल,

तब बन पाया यह ताजमहल

अटल जी के काव्य व्यक्तित्व पर उनके पितामह, पिता की छाया तो थीं ही,साथ ही उनके व्यक्तित्व पर स्वाधीनता सेनानियों, महाकवि निराला का भी व्यापक प्रभाव पड़ा. वे स्वयं स्वाधीनता सेनानी थे. राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य के सम्पादन से जुड़े अटल साहित्यिक कर्म के निष्ठावान साधक बने रहे. 

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद उनका राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में दीर्घ राजनैतिक जीवन, देश के शीर्ष राजनेताओं का सान्निध्य, जन से जुड़ाव आदि ने उनके काव्य कर्म को कृति बनाने में यथेष्ट योगदान दिया. 

अपने पिता के सान्निध्य में वाजपेयी ने कविता की घुट्टी पी थी. उनके पिता कवि कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत के जाने-माने कवि थे. महात्मा रामचन्द्र वीर द्वारा रचित अमर-कृति ‘विजय पताका’ ने अटल जी के साहित्यिक जीवन की दिशा ही बदल गई. उनके प्रथम प्रकाशित काव्य में ‘कैदी कविराय कुण्डलियाँ’ शामिल हैं, जो वर्ष 1975-1977 के आपातकाल के दौरान उनके बंदी बनाए जाने के दौरान रचित हैं. अपनी कविताओं के संबंध में उन्होंने लिखा, “मेरी कविता युद्ध की घोषणा है, हारने के लिए एक निर्वासन नहीं है. यह हारने वाले सैनिक की निराशा की ड्रम बीट नहीं है, लेकिन युद्ध-योद्धा की जीत होगी, यह निराशा की इच्छा नहीं है, लेकिन जीत का हलचल, चिल्लाओ!”

‘मेरी इक्यावन कविताएँ` कवि व राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी का बहुप्रसिद्ध काव्य-संग्रह रहा, जिसका लोकार्पण 13 अक्टूबर, 1995 को भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री, कवि, साहित्यकार पी.वी. नरसिंहराव द्वारा सुप्रसिद्ध कवि शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की उपस्थिति में किया गया. पुस्तक के नाम के अनुरूप इसमें अटल जी की इक्यावन कविताएँ संकलित हैं.  इस पुस्तक की कविताओं को सुप्रसिद्ध गजल गायक जगजीत सिंह ने स्वरबद्ध किया था.  इस पुस्तक से एक कविता-

दूध में दरार पड़ गई.

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया ?

भेद में अभेद खो गया.

बँट गये शहीद, गीत कट गए;

कलेजे में कटार गड़ गई.

दूध में दरार पड़ गई.

 

खेतों में बारूदी गंध,

टूट गए नानक के छन्द

सतलुज सहम उठी,व्यथित सी वितस्ता है,

वसंत से बहार झड़ गई.

दूध में दरार पड़ गई.

 

अपनी ही छाया से बैर,

गले लगने लगे हैं ग़ैर,

ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता;

बात बनाएँ,बिगड़ गई.

दूध में दरार पड़ गई.

उनकी काव्य रचनाओं में राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता सदैव प्रकट होती रही है. वे भारत के बंटवारे के विरुद्ध थे, तब बंटवारे पर उन्होंने एक कविता लिखी थी ‘स्वतंत्रता दिवस की पुकार’

पन्द्रह अगस्त का दिन कहता-आजादी अभी अधूरी है.

सपने सच होने बाकी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥

जिनकी लाशों पर पग धर कर, आजादी भारत में आई.

वे अब तक हैं खानाबदोश, गम की काली बदली छाई॥

 

कलकत्ते के फुटपाथों पर, जो आंधी-पानी सहते हैं.

उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥

हिन्दू के नाते उनका दु:ख सुनते, यदि तुम्हें लाज आती.

तो सीमा के उस पार चलो, सभ्यता जहां कुचली जाती॥

 

इंसान जहां बेचा जाता, ईमान खरीदा जाता है.

इस्लाम सिसकियाँ भरता है, डॉलर मन में मुस्काता है॥

 

भूखों को गोली, नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं.

सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥

 

लाहौर,कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया.

पख़्तूनों पर, गिलगित पर है गमगीन गुलामी का साया॥

 

बस इसीलिए तो कहता हूँ आजादी अभी अधूरी है.

कैसे उल्लास मनाऊं मैं ? थोड़े दिन की मजबूरी है॥

 

दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएंगे.

गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएंगे॥

 

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें.

जो पाया उसमें खो न जाएं,जो खोया उसका ध्यान करें॥”

2018 में वाजपेयी जी द्वारा चयनित कविताओं की संकलित पुस्तिका ‘चुनी हुई कविताएँ’ प्रकाशित हुई थी. कहते हैं वही रचना उत्कृष्ट मानी जाती है जो समाज के प्रति व्यक्ति की क्या भूमिका हो इसे रेखांकित करें. उनकी कविताओं से लोग आज भी अणुप्राणित होते हैं. उनका संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियाँ, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, जेल-जीवन,राष्ट्रीय नेता के रूप में उनका दीर्घ अनुभव इत्यादि आयामों के प्रभाव एवं अनुभूति ने उनके काव्य में सदैव ही अभिव्यक्ति पाई.

गीत’ नया गाता हूँ

टूटे हुए तारों से फूटे वासंती स्वर,

पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर,

झरे सब पीले पात,

कोयल की कुहुक रात,

प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूँ .

गीत नया गाता हूँ .

 

टूटे हुए सपने की सुने कौन सिसकी?

अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी .

हार नहीं मानूँगा,

रार नहीं ठानूंगा,

काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूँ

गीत नया गाता हूँ.

(साभार –चुनी हुई कविताएँ-अटल बिहारी वाजपेयी)

अटलजी अपने विचार कभी किसी पर थोपते नहीं थे. वे अपने दीर्घ राजनीतिक अनुभव के बीच भारत के सर्वमान्य नेता के रूप में प्रतिष्ठित हुए. भारतीय राजनीति को उन्होंने दो-ध्रुवीय बनाने में अथक योगदान दिया. 1957 में वे पहली बार भारतीय संसद के लिए निर्वाचित हुए. भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक वाजपेयी 1980 में स्थापित भारतीय जनता पार्टी के पहले अध्यक्ष बने. अपनी व्यवहार कुशलता से भारतीय राजनीति में सबके प्रिय बने वाजपेयी की संसद में भाषण कला से जवाहर लाल नेहरू भी प्रभावित थे. 

प्रधानमंत्री रहते हुए वे सशक्त नेता के रूप में उभरे,जब दुनिया की बड़ी शक्तियां भारत के परमाणु प्रसार का विरोध कर रही थी,तब उन्होंने परमाणु-परीक्षण कर दुनिया को चौंका दिया.  प्रधानमंत्री का पद छोड़ने के बाद वे एकदम एकान्त में हो गए. उन्होंने अपने घुटनों का प्रत्यारोपण करवाया था,जो पूरी तरह सफल नहीं रहा. स्वास्थ्य समस्या के कारण जीवन के अंतिम दिनों में वे अपने निवास में ही रहे.  

16 अगस्त,2018 को उनके देहांत से भारतीय राजनीति का एक महान सितारा डूब गया.  उनके देहावसान ने भारत से पण्डित नेहरू के बाद के सबसे विराट राजनीतिक व्यक्तित्व को हमसे छीन लिया. वाजपेयी जी का कविमना व्यक्तित्व उनके कृतित्व से झलकता है.  कवि ह्रदय अटल बिहारी वाजपेयी जनता के दिलों में सदैव जीवित रहेंगे. उन्हीं की एक रचना-

हरी-हरी दूब पर

ओस की बूंदें

अभी थीं,

अभी नहीं हैं.

ऐसी खुशियाँ

जो हमेशा हमारा साथ दें

कभी नहीं थीं,

कभी नहीं हैं.

 

क्वार की कोख से

फूटा बाल सूर्य,

जब पूरब की गोद में

पाँव फैलाने लगा,

तो मेरी बगीची का

पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,

 

मैं उगते सूर्य को नमस्कार करूँ

या उसके ताप से भाप बनी,

ओस की बूंदों को ढूँढूँ?

सूर्य एक सत्य है

जिसे झूठलाया नहीं जा सकता

मगर ओस भी तो एक सच्चाई है

यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है

क्यों न मैं क्षण-क्षण को जीऊँ?

कण-कण में बिखरे सौंदर्य को पीऊँ ?

 

सूर्य तो फिर भी उगेगा,

धूप तो फिर भी खिलेगी,

लेकिन मेरे बगीची की

हरी-हरी दूब पर,

ओस की बूँद

हर मौसम में नहीं मिलेगी.

वाजपेयी जी की यह रचना जीवन के प्रति उनके अनुराग,प्रकृति प्रेम,शाश्वत सत्य,मूल्य बोध को दर्शाता हैं.  वाजपेयी जी का काव्य व्यक्तित्व जीवन पर्यंत मूल्य-बोध के प्रति सजग रहा . अटल जी की ही पंक्तियों में – ‘’आदमी की पहचान उसके पद से या धन से नहीं होती,उसके मन से होती है,मन की फकीरी पर तो कुबेर की संपदा भी रोती है.‘’ ऐसे विराट सोच के स्वामी थे वाजपेयी!

 

(लेखक शिक्षाविद् हैं)