1857 हमारी आजादी की पहली लड़ाई थी और जिसको कई इतिहासकार गदर भी कहते हैं. यह लड़ाई हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर लड़ी थी. दोनों कौमें कंधे से कंधा मिलाकर साथ चल रही थीं. तब, मजहब के नाम का कोई भेद नहीं था, क्योंकि मकसद एक था.
और तब, फिरंगियों ने हिंदू और मुसलमानों को बांटने की चाल चलनी शुरू की. असल में, 1857 की लड़ाई में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जबरदस्त एकता थी और इस एकता ने ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज अधिकारियों की नींद उड़ा दी. उन्हें लग गया कि दोनों कौमें एक बनी रहीं तो उनकी हुकूमत ज्यादा दिन चल नहीं पाएगी.
10 मई 1857, दिन इतवार का था. उस रोज छिड़े हिंदुस्तान की आजादी की पहली लड़ाई में हिंदू और मुसलमानों के साथ सिखों ने भी लड़ाई में हिस्सा लिया था और कंपनी के शासन को चुनौती दी थी.
1857 के गदर पर बनी एक पेंटिंग स्रोतः सोशल मीडिया
1857 के स्वतंत्रता संग्राम को फिरंगी इतिहासकारों और अफसरों ने 'सिपाही विद्रोह' का नाम दिया था, लेकिन असलियत यह रही कि आम आदमी की इसमें बड़ी हिस्सेदारी थी.
इस लड़ाई की अगुआई नाना साहब, दिल्ली के मुगल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र, मौलवी अहमदशाह, तात्या टोपे, खान बहादुर खान, रानी लक्ष्मीबाई, हजरत महल, अजीमुल्लाह खान और शहजादा फिरोजशाह ने मिलकर की थी. लेकिन इन अगुओं के साथ ही इस संग्राम में मौलवी हो या पंडित, ज़मींदार हो या किसान, कारोबारी हो या नौकर सभी जाति-धर्मों के लोगों ने हिस्सेदारी की थी.
दिल्ली की बागी हुई फौज की कमान मोहम्मद बख़्त, सिघारी लाल, ग़ौस मोहम्मद, सिरधारा सिंह और हीरा सिंह जैसे लोगों के हाथों में थी. और दिल्ली की क्रांतिकारी सेना को, जिसका नेतृत्व बख्त खान कर रहे थे और जिसे फ़िरंगी ‘पुरबिया’ सेना कहते थे, उसमें भी बड़ी संख्या हिंदुओं की ही थी.
पूरे उत्तर भारत में हिंदू और मुसलमान दोनों कौम के ऐसे कई लोग रहे हैं जिन्होंने मजहब को पीछे रखकर हिंदुस्तान को आगे रखा. उनमें से कइयों के नाम आज अधिकतर लोग भूल चुके हैं.
हरियाणा के हांसी में अंग्रेजी शासन के खिलाफ हुकुमचंद जैन और मुनीर बेग ने साझा प्रतिरोध किया था. हुकुमचंद जैन, हांसी और करनाल के कानूनगो, फारसी और गणित के विद्वान और अपने क्षेत्र के एक बड़े ज़मींदार थे. जब उन्हें 1857 के संग्राम की खबर मिली तो वह दिल्ली दरबार पहुंच गए जहां तात्या टोपे पहले से मौजूद थे.
हुकुमचंद जैन को फांसी देकर अंग्रेजो ने दफना दिया और उनके साथी मुनीर बेग का शव जला दिया गया था
उनके नजदीकी दोस्त मिर्जा मुनीर बेग के साथ उन्होंने बगावत का झंडा बुलंद किया. मुनीर बेग खुद भी फारसी और गणित के बड़े विद्वान थे. लेकिन एक फैसलाकुन लड़ाई में इन्हें दिल्ली से मदद नहीं मिल पाई. इन्हें अंग्रेजों के हाथों हार का सामना करना पड़ा.
इन दोनों को सितंबर, 1857 में हांसी में गिरफ्तार किया गया और सजा-ए-मौत सुनाई गई. दोनों दोस्तों के साथ अंग्रेजों ने बेहद बुरा बरताव किया और 19 जनवरी, 1858 को इन्हें फांसी देने के बाद हुकुमचंद जैन को दफनाया, जबकि मुनीर बेग का पार्थिव शरीर जला दिया गया.
अयोध्या भी गदर के दौरान हिंदू- मुस्लिम एकता की बड़ी मिसाल के रूप में उभरा. जहां अनगिनत मौलवी और पुजारी ब्रिटिश कंपनी हुकूमत के खिलाफ उठ खड़े हुए और नतीजतन फांसी के फंदे पर झूल गए.
उन दिनों अमीर अली अयोध्या के एक मशहूर मौलवी थे. वहाँ के प्रसिद्ध हनुमानगढ़ी मंदिर के पुजारी थे बाबा रामचरण दास. अंग्रेजों के साथ लड़ाई के बाद दोनों को एक साथ गिरफ्तार किया गया और अयोध्या में कुबेर टीले पर एक इमली के पेड़ पर एक साथ फांसी पर लटका दिया गया.
अयोध्या में फैजाबाद में राजा देवीबख्श सिंह की क्रांतिकारी सेना की कमान दो दोस्तों के हाथों में थी. ये दोनों दोस्त थे अच्छन खान और शम्भू प्रसाद शुक्ला. एक युद्ध के दौरान फिरंगियों ने इनको कैद कर लिया और आजादी के इन दोनों दीवानों की जान लेने से पहले फिरंगियों ने उन्हें भयानक यातनाएं दीं. और तब दोनों के गले जनता की भीड़ के सामने रेते गए.
राजस्थान की कोटा रियासत के राजा महाराव भले ही अंग्रेजों के पिट्ठू थे मगर उनके एक दरबारी लाला जयदलाल भटनागर ब्रिटिशों के खिलाफ उठ खड़े हुए. इस बगावत में उनका साथ दिया था कोटा के सेनापति मेहराब खान ने. इन दोनों ने मिलकर देश के अन्य विद्रोहियों के साथ संपर्क स्थापित किया और कोटा में अंग्रेजों पर हमला बोल दिया. बाद में इन्होंने अपनी मदद झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को दी थी.
हालांकि, 1860 तक लाला जयदयाल को अंग्रेज गिरफ्तार नहीं कर पाए थे, लेकिन उसी साल अप्रैल में वे पकड़े गए और 17 सितंबर को उन्हें फांसी दी गई. मेहराब खान को भी उसी साल सबके सामने फांसी पर लटका दिया गया.
मालवा इलाके में विद्रोह के साझे नायक तात्या टोपे, राव साहब, फिरोज शाह और मौलवी फजल हक थे. इन लोगों ने मिलकर फिरंगियों को खूब हराया. मौलवी फजल हक अपने 480 हिंदू-मुसलमान-सिख साथियों के साथ 17 दिसंबर, 1858 को रानौड़ की लड़ाई में शहीद हुए.
तात्या टोपे 1859 तक स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करते रहे और 18 अप्रैल, 1859 को बंदी बनाए गए और सिंधिया रियासत में स्थित शिवपुरी में फांसी पर लटकाए गए. फिरोजशाह को अंग्रेज कभी पकड़ नहीं पाए.
रानी लक्ष्मीबाई की लड़ाई में उनके तोपखाने के इंचार्ज गुलाम गौस खान थे. इसके साथ ही रानी की घुड़सवार सेना के मुखिया भी एक मुसलमान खुदाबख्श थे. अंग्रेजों ने जब झांसी के किले पर हमला किया तो इन दोनों ने 4 जून, 1858 को अपनी शहादत दी थी. रानी लक्ष्मीबाई की निजी सुरक्षा भी एक मुसलमान महिला मुंदार के जिम्मे थी. कोटा की सराय के युद्ध में लड़ती हुई मुंदार भी रानी के साथ यानी 18 जून, 1858 को शहीद हुईं.
अजीमुल्लाह खान 1857 की गदर के रणनीतिकार थे
इधर, रुहेलखंड में खान बहादुर खान की अगुआई में आजादी का ऐलान हो गया था और उनके सबसे बड़े सहयोगी खुशीराम थे. इन्होंने मिलकर रूहेलखंड का शासन चलाने के लिए आठ सदस्यीय समिति का गठन किया था जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों थे. सांप्रदायिक सौहार्द्र कायम करने के लिए गोकशी पर बंदिश लगा दी गई. बाद में, अंग्रेजों ने जब रुहेलखंड पर कब्जा कर लिया तो खान बहादुर खान, खुशीराम और उनके 243 सहयोगियों को एक ही दिन (20 मार्च, 1860) को बरेली कमिश्नरी के दफ्तर के सामने सामूहिक फांसी दी गई.
जुल्म की इंतिहा पार करते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज अधिकारियों ने इन बागियों का अंतिम संस्कार करने पर भी रोक लगा दी. नतीजतन, हिंदू हो या मुस्लिम इनके शव बहुत दिनों तक सूलियों पर झूलते रहे.
हिंदू और मुसलमानों ने एक होकर कंपनी शासन के खिलाफ लड़ाई की थी, तो उसमें बडे नामों के साथ ऐसे लोग भी थे, जिनके नाम पर बहुत चर्चा नहीं होती.
लेकिन, इन अनजान नायकों ने हमें बताया कि देश की विरासत हिंदू और मुस्लिम के एक साथ सिर्फ हिंदुस्तान के बारे में सोचने में है और इसमें जान देना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी.
तभी तो उस गदर के स्ट्रेटेजिस्ट रहे अजीमुल्लाह खान ने 13मई, 1857 को 'जंग-ए-आजादी' के तराने मे लिखा थाः
हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा
पाक वतन है क़ौम का जन्नत से भी प्यारा.
यह हमारी मिल्कियत हिंदुस्तान हमारा
इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा.