केरल की दो वृद्ध बहनों की यूरोपीय यात्रा बनी हौसले की मिसाल

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 20-06-2025
The European trip of two elderly sisters from Kerala became an example of courage
The European trip of two elderly sisters from Kerala became an example of courage

 

आवाज द वाॅयस/ नई दिल्ली

रिटायरमेंट की उम्र को अक्सर एक स्थिर और शांत जीवन के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है. लेकिन केरल के त्रिशूर ज़िले के वडक्कनचेरी की दो बुज़ुर्ग बहनें – वलसला मेनन (86) और रमणी मेनन (84) – इस धारणा को पूरी तरह नकारते हुए यह साबित करती हैं कि यदि मन में जज़्बा हो, तो उम्र कभी भी सीमाएं नहीं खींच सकती.

 इन दोनों बहनों ने हाल ही में एक महीने की लंबी यूरोपीय यात्रा की, जिसमें उन्होंने आठ देशों की सैर की. यह यात्रा केवल पर्यटकों की एक सामान्य सैर नहीं थी, बल्कि एक जीवन दर्शन का प्रमाण थी – कि सकारात्मक सोच, आत्मनिर्भरता और परिवार के सहयोग से हर सपना साकार किया जा सकता है.

वलसला और रमणी का सफर पारंपरिक से कुछ अलग रहा है. वलसला मेनन त्रिशूर के अकाउंटेंट जनरल कार्यालय में कार्यरत थीं. उनके पति का देहांत वर्षों पहले हो गया था.

वहीं रमणी ने पति की मृत्यु के बाद वलसला के साथ रहना शुरू किया. उम्र के 70वें दशक में इन बहनों ने आध्यात्मिक यात्राओं के साथ घूमना शुरू किया. वे 'आध्यात्मिक प्रबोधन संगम' नामक एक यात्रा समूह के साथ पूरे भारत में घूमीं. फिर यह रुचि उन्हें एशिया के अन्य देशों – विशेषकर दक्षिण-पूर्व एशिया – तक ले गई.

दो साल पहले कश्मीर की एक यात्रा के दौरान स्विट्ज़रलैंड की बर्फीली वादियों को देखने की तीव्र इच्छा जागी. उसी इच्छा ने उन्हें यूरोप तक पहुंचा दिया. यह योजना कोई वर्षों पुरानी नहीं थी.

यह तो अचानक बनी – गायत्री, रमणी की पोती, बताती हैं कि पहले केवल उनके भाई गौतम के कार्यस्थल – जर्मनी – की यात्रा की योजना बनी थी. लेकिन धीरे-धीरे यह योजना एक बड़े यूरोपीय टूर में बदल गई.

परिवार ने न केवल जर्मनी, बल्कि स्विट्ज़रलैंड, फ्रांस, नीदरलैंड्स, इटली, बेल्जियम, ऑस्ट्रिया और चेक गणराज्य की भी सैर की. अंतिम पड़ाव फिर से जर्मनी बना, जहाँ उन्होंने पारंपरिक मलयाली त्योहार 'विशु' मनाया.


गायत्री अक्सर अपनी दादी और परदादी के साथ यात्रा करती हैं. लेकिन इस बार अपने छोटे बच्चे की देखभाल के कारण वह साथ नहीं जा सकीं. उनकी मां बिंदु और बेटी क्षेत्रा इस बार की यात्रा में साथ रहीं.

यह यात्रा एक ट्रैवल एजेंसी के ज़रिए की गई थी – जो परिवार के लिए एक बड़ी सीख बन गई. बिंदु बताती हैं कि ट्रैवल ऑपरेटर का व्यवहार असभ्य था. “उसने तो यहाँ तक कह दिया कि मैं अपनी मांओं को क्यों लायी हूँ?”

वे बताती हैं कि कुछ सहयात्रियों ने भी शुरुआत में नाराज़गी जताई थी. लेकिन कॉलेज की पुरानी दोस्त जिजी और उनके पति जोसेफ ने परिस्थिति को संभालने में मदद की.. यह अनुभव एक गहरा संदेश देता है कि बुज़ुर्ग यात्रियों के लिए हमारे देश में अब भी संवेदनशील और सुसंगठित व्यवस्थाओं की कमी है.

गायत्री और बिंदु के अनुसार, वलसला और रमणी को ख़ास बनाता है उनका संतोष और सकारात्मक दृष्टिकोण.गायत्री कहती हैं. "वे कभी शिकायत नहीं करतीं."  “कभी कुछ गड़बड़ हो जाए, तो उल्टा हमें ही ढाढ़स बंधाती हैं.” गायत्री को कश्मीर यात्रा का एक वाकया याद है , जब आख़िरी समय पर टैक्सी वाला नहीं आया और ईद के कारण कोई नया वाहन नहीं मिल रहा था.

"मां और मुझे पूरा दिन पैदल चलकर दूसरी गाड़ी ढूंढनी पड़ी. अंततः हमें एक लोकल 'परक्कुमथालिका'-जैसी बस मिली और उसी से हमने कश्मीर की सैर की. लेकिन इन दोनों ने एक बार भी शिकायत नहीं की.”

वलसला और रमणी की जीवनशैली भी उन्हें दूसरों से अलग बनाती है. वे शुद्ध शाकाहारी हैं. धीरे-धीरे चलती हैं, लेकिन अपनी सेहत का ध्यान खुद रखती हैं. एक को सुनाई कम देता है.

दूसरी की आंखों की सर्जरी हो चुकी है. फिर भी वे कभी खुद को दूसरों पर बोझ नहीं बनने देतीं. बिंदु कहती हैं, “हमारे परिवार का एक अनकहा नियम है. हर यात्रा में मांओं को ज़रूर साथ ले जाना है।”

वलसला और रमणी को इस बात का अंदाज़ा भी नहीं कि वे कितनी बड़ी प्रेरणा बन चुकी हैं.वलसला मुस्कुराते हुए कहती हैं। “हमें नहीं लगता कि हमने कुछ असाधारण किया है,”  “हम तो बस वहीं जाते हैं, जहाँ बच्चे ले जाते हैं. घूमना सबको चाहिए – यह ज़िंदगी का हिस्सा है.”

यात्रा के दौरान स्विट्ज़रलैंड की आल्प्स पर्वतश्रृंखला और बर्लिन स्टोरी बंकर उनके सबसे पसंदीदा अनुभव रहे. रमणी बताती हैं, “बर्लिन स्टोरी बंकर के बारे में हमने किताबों में पढ़ा था, उसे देखना एक ऐतिहासिक अनुभव था.” वहीं वलसला को आल्प्स की प्राकृतिक सुंदरता ने मंत्रमुग्ध कर दिया.

यूरोप की अनुशासित जीवनशैली और यातायात व्यवस्था से वे प्रभावित हुईं. वे कहती हैं,“वहाँ का ट्रैफिक बहुत सुव्यवस्थित था। हमें हमारे शहरों की तरह डर नहीं लगता था.” 

जब उनसे पूछा गया कि क्या वे फिर से यूरोप जाएंगी, तो उन्होंने मुस्कुराकर कहा – “शायद नहीं. अब हम तब तक नए स्थान देखना चाहते हैं, जब तक शरीर साथ दे. अगर जवान होते, तो ज़रूर बार-बार जाते.”

फिलहाल, परिवार की अगली योजना अक्टूबर में लक्षद्वीप की है. गायत्री कहती हैं, “हमें नहीं पता हमारे पास दादी-दादी के साथ कितना समय और है. इसलिए हर यात्रा एक नई याद बन जाए, यही कोशिश है.”

वलसला और रमणी की यह यात्रा सिर्फ दो वृद्ध महिलाओं की विदेश यात्रा नहीं है. यह एक जीवंत उदाहरण है कि उम्र चाहे जो भी हो, ज़िंदगी को जीने का जोश अगर बचा हो, तो हर मोड़ रोमांचक बन सकता है.

यह कहानी उन सभी के लिए प्रेरणा है जो यह मान बैठे हैं कि ‘अब बहुत हो गया’. असल में, ज़िंदगी तब तक चलती है, जब तक आप चलना चाहते हैं – मन से, हौसले से, और अपनों के साथ.