राकेश चौरासिया / नई दिल्ली
जब भी संकट आता है, तो इंसानियत और हैवानियत दोनों बलवती हो जाती हैं, क्योंकि ये दोनों आदमी में इनबिल्ट होती हैं.
कोरोना काल में हम हैवानियत देख रहे हैं कि लोग जीवन रक्षक औषधियां रेमेडिसिविर आदि और ऑक्सीजन की भी कालाबाजारी पर उतारू हैं.
दूसरी तरह कोरोना काल में हजारों-हजार हाथ मदद को उठ खड़े हुए हैं, ये इंसानियत का हुस्न है.
गुजरात के औरंगाबाद और उप्र के रहीमाबाद से दो ऐसी खबरें आईं कि मानों जून की गर्मी में तप्त हृदय को बारिश की फुहारों ने राहत दी हो.
इन दोनों स्थानों पर मजहब की दीवारें इंसानियत के जोर से भरभरा कर गिर पड़ीं.
रहीमाबाद के तरौना गांव का यह वाकया हैं, जहां मुस्लिम दोस्तों ने अपने एक हिंदू दोस्त के पिता का अंतिम संस्कार किया.
मामला यह था कि 65 साला रामस्वरूप परलोक सिधार गए. वे व्यापारी थे और उनकी तरौना चौराहे पर दुकान थी.
एक दिन पहले रामस्वरूप की तबियत ज्यादा बिगड़ गई. उन्हें वायरल बुखार था. सुबह जब उनका बेटा हंसराज अस्पताल ले जाने को हुआ, तो बेटे हाथों में ही रामस्वरूप ने दम तोड़ दिया.
बुखार से मौत की खबर सुनकर पड़ोसियों और रिश्तेदारों को सांप सूंघ गया.
परिवार को जब लाश के पास घंटों गुजर गए और मातमपुर्सी के लिए कोई नहीं आया, तो उन्हें अंदाजा हो गया कि अंतिम संस्कार पड़ोस और बिरादरी का दायित्व होता है, लेकिन अब उन्हें यह काम खुद करना होगा. परिवार दुविधा में गोते लगा रहा था कि गांव के ही उत्साही मुस्लिम युवक नौशाद अली और शमशाद अली ने कमर कस ली.
रामस्वरूप का अंतिम प्रक्षालन और श्रंगार हुआ.
फिर मुस्लिमों के मजबूत कंधों पर रामस्वरूप की अंतिम यात्रा शुरू हुई. मुस्लिम युवाओं ने रामस्वरूप को बारी-बारी से कंधा देकर श्मशान घाट तक का आधे किमी का सफर पूरा किया.
श्मशान में अग्नि संस्कार पूरा होने तक मुस्लिम युवक हंसराज के बाकदम रहे.
इन युवाओं ने कहा कि हमने कुछ नहीं सोचा और न कुछ सोचने की फुर्सत ही थी. हमें तो इस बेबशी में यही लग रहा था कि चाचा को उन्हें अंतिम अधिकार मिलना चाहिए.
गुजरात के औरंगाबाद में भी सांप्रदायिक सद्भाव परिघटना सामने आई.
यहां के सर्राफा बाजार में बंगाली स्वर्णकला के माहिरीन दुलाल घोड़ई अपने परिवार के साथ रहते हैं.
वे इस इलाके में स्वर्णाभूषणों को अपना स्पर्श देकर उनकी कीमतआफजायी करते रहे हैं.
उनके दो बेटों में 15 का साल का छोटा बेटा सुमोह विकलांग था. उसकी स्वाभाविक मृत्यु हो गई. वह कुछ समय से बीमारी के कारण बिस्तर पर ही था.
दुलाल घोड़ई की दिक्कत यह थी कि उसके पास आधार कार्ड नहीं था. इस कारण न तो वह मेडिकल औपचारिकताओं के लिए कागजात तैयार कर पाया और न ही उसे अंतिम संस्कार की अनुमति मिल पा रही थी.
यहीं पर कलकत्ते के नूर इस्लाम शेख रहते हैं. दुलाल घोड़ई की उनसे पहचान थी. उन्होंने नूर इस्लाम शेख को अपनी परेशानी बताई.
नूर इस्लाम शेख ने सामाजिक कार्यकर्ता अलीम बेग की मदद से और भागदौड़ करके नगर निगम से अनुमति हासिल की और तब सुमोह का अंतिम संस्कार हो पाया.
दुलाल घोड़ई का कहना है कि नूर और अलीम उनके भाई जैसे हैं. जब कोई मदद नहीं कर रहा था, तो उन्होंने सगे वालों जैसा कर्तव्य निभाया. वे उनके शुक्रगुजार हैं.