महिला दिवस विशेषः अपवादों को छोड़कर आज भी अधिकतर फिल्मों में महिला किरदार शो पीस ही हैं

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 07-03-2023
अमिताभ और स्मिता पाटिल नमकहलाल के एक गाने में (वीडियो ग्रैब)
अमिताभ और स्मिता पाटिल नमकहलाल के एक गाने में (वीडियो ग्रैब)

 

मंजीत ठाकुर

"ये एक मज़लूम लड़की है जो इत्तेफ़ाक़न मेरी पनाह में आ गई है" फिल्म पाकीज़ा में यह डायलॉग बोलते वक्त राजकुमार को इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं रहा होगा कि वह भारतीय सिनेमा के एक सच का खुलासा कर रहे हैं.

 

भारतीय फ़िल्मों की नायिका दशकों से ‘मज़लूम’ होने का बोझ ढोती आ रही हैं और ये सिलसिला कुछ अर्थों में आज भी क़ायम है.

 

हिंदुस्तानी सिनेमा के शुरुआती दौर में नायिकाओं के किरदार भी पुरुष ही निभाया करते थे और  सोलंके नामक एक अभिनेता को नारी की भूमिका निभाने के लिए पुरस्कार भी मिला था. गौर से देखे तों आज तक फिल्मों में नारी पात्रों को पुरुषवादी नज़रिए और अहं के साथ ही गढ़ा गया है.

 

हिंदुस्तानी सिनेमा के पहले दशक की फ़िल्में धार्मिक किस्म की थीं और उनमें महिलाएँ देवियों जैसी थीं, जबकि कैकेयी और मंथरा वगैरह बुरी महिला पात्रों के स्टीरियोटाइप बने. गाँधी जी के असर में भारतीय समाज और सिनेमा दोनों ही बदलने लगे. 1937 में वी शांताराम  की ‘दुनिया ना माने’ में बूढे़ विधुर से ब्याही नवयुवती इस बेमेल विवाह को नाजायज़ मानती है.

 

लेकिन 'दुनिया न मानें' की शांता आप्टे को छोड़ दें तो शोभना समर्थ से लेकर ‘तदबीर’ की नरगिस या ‘तानसेन’ की खुर्शीद तक सभी नायिकाएँ वैसी ही गढ़ी गईं, जैसा हमारा समाज आज तक चाहता आया है.

 

महबूब ख़ान ने 1939 में औरत और 1956 में इसका भव्य रंगीन संस्करण मदर इंडिया बनाई.  केंद्रीय पात्र अपने सबसे लाडले विद्रोही पुत्र को गोली मार देती है क्योंकि वह गाँव की लाज को विवाह मंडप से उठाकर भाग रहा था. नरगिस द्वारा अभिनीत इस किरदार को ही दीवार में निरूपा राय के रुप में एक और शेड मिलता है.  बाद में मां के चरित्र का सशक्त विस्तार राम लखन, करण अर्जुन और रंग दे बसंती में दिखता है.

 

Bandini

 

आज़ादी के बाद के आदर्श प्रेरित कुछ फ़िल्मों में नारी मन को भी उकेरने की कोशिश की गई. अमिया चक्रवर्ती की ‘सीमा’ और बिमल रॉय की ‘बंदिनी’ में महिला पात्रों ने कमाल किया. बिमल रॉय की सुजाता हरिजन लड़की के सपने और डर को तो ऋषिकेश मुखर्जी की 'अनुपमा' और 'अनुराधा' भी नारी की पारंपरिक छवि को जीती है.

 

लेकिन फ़िल्म ‘जंगली’ के साथ रंगीन होते ही हिंदुस्तानी सिनेमा की पलायनवादी धारा ने नारी को वस्तु की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया. सातवें दशक में श्याम बेनेगल ने ‘अंकुर’ और ‘निशांत’ में महिलाओं के खिलाफ सामंतवादी अन्याय की कहानी पेश की, और ये भी स्थापित किया कि भारतीय लोकतंत्र सामंतवाद का नया चेहरा है. लेकिन इस दौर की मुख्यधारा के सिनेमा में महिला किरदारों का काम महज नाच-गाने तक ही सीमित रहा.

 

खासकर सिने आकाश में जब अमिताभ बच्चन का उदय हुआ उसके बाद कम से कम उनकी फिल्मों में महिला किरदारों का काम परदे को खूबसूरत बनाना भर रह गया था. स्मिता पाटिल जैसी समर्थ अभिनेत्री को भी अमिताभ की फिल्म में बारिश के दृश्य में भीगी साड़ी में दिखाया गया था. यह बात और है कि उस दृश्य को देखकर बाद में स्मिता बहुत विचलित हुई थीं.

 

namak halal song

 

नरगिस, कामिनी कौशल, मधुबाला और गीताबाली के साथ मीना कुमारी और नलिनी जयवंत भी अपने अभिनय से दर्शकों पर छाप छोड़ चुकी थीं, फिर भी 'अंदाज़' दिलीप कुमार की ही फ़िल्म मानी जाती रही, 'बरसात' राजकपूर की और 'महल' अशोक कुमार की.

 

हालांकि, राज कपूर की ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ में अंग प्रदर्शन चरम पर था तो बाद में ‘प्रेम रोग’ विधवा समस्या पर सार्थक फ़िल्म थी. राजकपूर को यह श्रेय ज़रूर देना चाहिए कि उनकी नायिकाएं किसी भी अर्थ में हीरो से कमतर नहीं रहीं.  वे औरत के उसी रूप में पेश करते रहे जिस रूप में वह हमारे समाज की देहरी के अंदर और बाहर रही हैं.

 

Hum

 

अमिताभ बच्चन के दौर में मारधाड़ में नायिका कहीं हाशिए पर फिसल गई. ‘अभिमान’ या 'मिली'  जैसी फिल्में जया भादुड़ी पर मेहरबान ज़रूर हुईं, पर इसी बीच परवीन बॉबी और जीनत अमान जैसी अभिनेत्रियों को केवल अपने जिस्म का जलवा दिखाकर ही संतुष्ट होना पड़ा.

 

सत्तर के दशक में भी नायिकाएं त्यागमयी, स्नेही, और नायक की राह में आँचल बिछाए बैठी एक आदर्श नारी बनी रही. इसके साथ ही ख़ूबसूरत होना और पार्क में साइकिल चलाते हुए गाना भी उसकी मजबूरी रहा है.

 

अस्सी का दशक हिंदी फिल्मों में कई लिहाज से अराजकता का दशक माना जाता है. इस दशक में कथा' और चश्मेबद्दूर  या 'गोलमाल' जैसी अलग महिला किरदारों वाली फ़िल्में तो आती हैं, पर यह परंपरा कायम नहीं रह पाती.

 

महेश भट्ट की ‘अर्थ’ने हालांकि महिला किरदारों की परंपरा को नए अर्थ दिए. इस फिल्म से हमें साधारण चेहरे-मोहरे, लेकिन असाधारण प्रतिभा वाली अभिनेत्री शबाना आज़मी मिली. भट्ट की इस फ़िल्म ने एक मशहूर अभिनेत्री का मर्द पर हद से ज़्यादा आश्रय और बरसों से परित्यक्ता पत्नी के आत्मसम्मान को  दिखाया.

 

Rudali

 

‘सुबह’ और ‘भूमिका’ भी इसी दशक में आईं और स्मिता पाटिल अपनी चमत्कारिक अभिनय क्षमता का लोहा मनवा गईं. अपनी मादक छवि से परेशानहाल डिंपल ने ‘जख्मी औरत’ ‘रुदाली’ और ‘लेकिन’ से महिला किरदारों के अलग आयाम प्रस्तुत किए.

 

‘सावन भादो’ से एक अनगढ़ लड़की के रुप में आई रेखा ने उमराव जान और खूबसूरत जैसी फिल्मों से  अपना अलग मुकाम बनाया लेकिन उनके किरदार में वैविध्य खून भरी मांग से ही आया.

 

काजोल ‘दुश्मन’ और ‘बाज़ीगर’ में कुछ अलग क़िस्म की भूमिकाओं में दिखीं लेकिन यहां भी उन किरदारों को हीरो का सहारा चाहिए था. रानी के 'ब्लैक' में कमाल के पीछे कहीं अमिताभ बच्चन का चेहरा झांकता रहा. बहरहाल, रवीना टंडन की ‘सत्ता’ या गुलजार की 'हू तू तू' बेशक महिलाओं पर बनी अच्छी राजनीतिक कहानियां हैं. ऐसी ही कुछ प्रकाश झा की ‘राजनीति’भी है, जिसमें पहली बार कतरीना कैफ सिर्फ पलकें झपकाने की बजाय अभिनय करती नजर आईं.

 

बाजार की शक्तियों ने नायिकाओं को अभिनेत्री के आसन से उतार कर आइटम बना दिया. मल्लिका शेरावतों और मलाइका अरोड़ाओं के सामने तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त बेहद सीधे-साधे गीत नजर आते हैं.

 

पिछले दशक में, ‘इश्क़िया’में विद्या बालन का किरदार अलग है. ‘मिस्टर एंड मिसेज अय्यर’ और ‘पेज थ्री’की कोंकणा हालांकि शबाना और स्मिता की याद दिलाती हैं.

 

piku

 

लेकिन यह बात भी कहना होगा कि पिछले डेढ़ दशक में कहानी में किरदार प्रमुख हो गया, अभिनय के स्तर पर नायिकाओं ने शानदार काम किया. कई सारी फिल्में भी महज नायिका के बूते चल निकली, लेकिन उसके मेहनताने में आज भी कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है.

 

पहले भी हिंदी सिनेमा ने बेहतरीन अभिनेता दिए हैं, लेकिन बेहतरीन नायिकाओं की फेहरिस्त भी लंबी है. फिर भी महिलाओं को केंद्र में रख कर परदे पर आने वाली कहानियां गिनती की रहीं.

 

अब हिंदी सिनेमा में कथा-पटकथा नए रंग के साथ दर्शकों के बीच पहुंच रही है. इस बदलाव के बयार में महिला किरदारों को भी अहमियत मिल रही है. आज यह जरूरी नहीं रहा कि फिल्मों में हीरो ही फिल्मों को हिट कराने का ‘फैक्टर’ हो. हालांकि, आज भी पठान शाहरुख की और लाल सिंह चड्डा आमिर की फिल्म मानी जाती है. फिल्मों पर उसके मुख्य हीरो का नाम टाइटिल के साथ चलता है और नायिकों की बात कदरन कम की जाती है.

 

लेकिन सचाई यह भी है नायिकाएं भी अपनी सशक्त भूमिका से न सिर्फ फिल्म हिट करा रहीं हैं, बल्कि परदे पर बेहतरीन अभिनय के लिए सुर्खिंयां बटोर रहीं हैं.

 

english winglish

 

पिछले कुछ सालों के दौरान ‘डर्टी पिक्चर’, ‘गुलाबी गैंग’, ‘फैशन’, ‘कहानी’, ‘क्वीन’, ‘तनु वेड्स मनु’, ‘हाइवे’, ‘पीकू’ और ऐसी कई फिल्में हैं, जिनमें पुरुष किरदार या नायकों के होते हुए भी चर्चा सिर्फ नायिकाओं के दमदार अभिनय की हुई और फिल्में हिट हुर्इं.

 

यह हिंदी सिनेमा का बदलता रंग है जो अब थोड़ा ज्यादा मुखर होता दिख रहा है. इसका पूरा श्रेय युवा पुरुष और महिला निर्देशकों और युवा कलाकारों को जाता है.

 

पहले हिंदी सिनेमा की तस्वीर में महिला थी, लेकिन कहानी या पटकथा का दमदार अंश नहीं थी. लेकिन आज कहानियां बाकायदा महिला किरदारों को ध्यान में रख कर लिखी जा रही हैं.

 

लेखन की शैली भी बदल रही है और समाज में महिलाओं की बदलती स्थिति के साथ सहज बदलाव भी स्वीकार किया जा रहा है. कहानी में अब नायिकाओं को अभिनय के लिए दमदार किरदार दिए जा रहे. नायिकाओं को अपने अभिनय में प्रयोग करने की भी आजादी मिल रही है. बल्कि आजकल कुछ अभिनेत्रियां किरदार की चुनौती को स्वीकार करते हुए फिल्म को हिट कराने की जिम्मेदारी ले रही हैं.

 

पहले और आज के सिनेमा को तुलनात्मक दृष्टि से न भी देखे तो हिंदी सिनेमा कई नई चीजों को अपना रहा है, बदल रहा है. बदलाव की इसी कड़ी में स्त्री को केंद्र में रख कर लिखी गई कहानियों का परदे पर आ रही हैं.

 

कंगना रनौट के करियर को सबसे अधिक ऊंचाई पर लेकर जाने वाला कोई फिल्म था तो उसका नाम है क्वीन. एक तरह से 'टूट' कर 'संभलने' की कहानी को इस महिला केंद्रित फिल्म में महिला को दर्शया गया है. इस फिल्म के लिए कंगना को राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.

 

ऐसी ही एक फिल्म थी द डर्टी पिक्चर. विद्या बालन ने जिस दमदार अंदाज में इस फिल्म में अभिनय किया है, उसे देखकर सेलेबिलिटी का टिकट बालन को दिया जा सकता है.

Bahubali

 

दिवंगत स्टार श्रीदेवी के लिए बड़े पर्दें पर एक वापसी फिल्म थी इंग्लिश विंग्लिश, जिसे गौरी शिंदे ने निर्देशित किया है.  इस फिल्म ने एक गृहणी के दर्द और उसके जज्बे को उकेरा है.

 

इस दशक की एक और दमदार महिला केंद्रित फिल्म रही मैरी कॉम. प्रियंका चोपड़ा ने इस फिल्म में जान फूक दी थी. उमंग कुमार द्वारा निर्देशित फिल्म मैरी कॉम की विश्व मुक्केबाजी चैंपियनशिप में उनकी जीत पर आधारित इस फिल्म ने खूब तारीफे बटोरी. एक महिला मां होने के बाद भी कई मुश्किलों का सामना करते हुए विश्व मुक्केबाजी चैंपियनशिप का ख़िताब अपने नाम करती हैं.

 

विद्या बालन की एक और फिल्म सबसे चर्चित फिल्म थी. उस फिल्म का नाम 'कहानी' है. इस फिल्म में पूर्ण रूप से एक महिला के ऊपर कहानी को दर्शाया गया जो गर्भवती है, और गर्भवती के दौरान में अपने गुमशुदा पति की तलाश में हर मुश्किल को पार करने के लिए तैयार है. जब ये फिल्म बड़े पर्दें पर रिलीज हुई थी तब इसे देख दर्शकों ने भी खूब तारीफ के पुल बांधे थे.  इस फिल्म ने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कार भी जीते थे.

 

इम्तियाज अली की हाईवे में आलिया के मुख्य किरदार को खूब तारीफे मिली. इस फिल्म में एक महिला कैद है लेकिन, वो कैद होकर भी किस तरह से आजाद है, इस फिल्म में बखूबी तरीके से दिखाया गया है. आलिया भट्ट ने इसी तरह राजी में भी शानदार अभियन किया था और वह पूरी फिल्म आलिया के किरदार के इर्द-गिर्द घूमती है.

 

बॉक्स ऑफिस को कंधे पर ढोने वाली नायिकाओं की फेहरिस्त में एक बड़ा नाम दीपिका पाडुकोण का है. जिन्होंने शूजित सिरकार द्वारा निर्देशित फिल्म पीकू, पद्मावती  और छपाक जैसी फिल्मों के जरिए सिर्फ शोपीस होने का ऐलान किया.

 

सोनम कपूर टुकड़ों में अच्छा अभिनय करती हैं और उनके करियर की सबसे शानदार फिल्मों में से एक है नीरजा. इसी तरह महिला को केंद्र में रखते हुए आई पिंक भी एक्ट्रेस तापसी पन्नू, कीर्ति कुल्हारी और एंड्रिया के करियर की सबसे शानदार फिल्मों में एक है. इस फिल्म के जरिए न्याय और समानता के महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए.

 

ऐसी ही एक फिल्म थी लिपस्टिक अंडर माय बुर्का. इस फिल्म को कई बार वाद-विवादों का भी सामना करना पड़ा था. जिस तरह से इस फिल्म में महिला किरदार को परिभाषित किया गया उसे देखकर लगभग हर कोई सोचने पर मजबूर हो गया था. इस फिल्म में महिला पात्र अपनी इच्छाओं को खोजते हुए आगे बढ़ती रहती है. इस फिल्म के किरदार ने लाखों महिलाओं को प्रेरित किया.

 

Pathan

 

महिला किरदारों के संघर्ष की एक फिल्म है निल बटा सन्नाटा. कमाल का फिल्म है ये. एक घर में काम करने वाली महिला की बेटी की तरह से पढ़ाई करके एक पुलिस अधिकारी बन जाती है.

 

असल में, नए जमाने में ओटीटी प्लेटफॉर्म के उदय के बाद और दर्शकों की रुचि परिष्कृत होने के बाद से फिल्मों में महिलाओं का केंद्र में होना बढ़ा है. पर अधिकतर फिल्मों में अभी भी हीरोइन का अर्थ बिकनी पहनना और मुख्य कहानी में बस ग्लैमर जोड़ना रह गया है.

 

महिलाओं को लेकर संवेदनशील फिल्में बनने की शुरुआत तो हुई है पर इस दिशा में अभी भी कहीं न कहीं चूक है. मिसाल के तौर पर आपको बाहुबली फिल्म की याद होगी. इसके पहले चैप्टर में खुद योद्धा रही तमन्ना भाटिया को नायक महेंद्र बाहुबली महिला होने की याद दिलाता है.

 

इसी तरह जैक्लीन फर्नांडीज उसी तर्ज पर फिल्म रॉय में चिट्टियां कलाइयां वे कहती हैं जिस तरह जया प्रदा आज का अर्जुन में गोरी है कलाइयां गाती हैं. हालिया हिट दक्षिण भारतीय फिल्मों आरआरआर या कांतारा या केजीएफ में भी महिला किरदारों की स्थिति क्या होती है और उनके साथ नायक कैसा सुलूक करता है, यह सबकी निगाहों में होगा ही.

 

इस तरह कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आज भी अधिकतर भारतीय दर्शक अपनी हीरोइन से यही कहना चाहता है, "आपके पाँव देखे, बहुत खूबसूरत हैं, इन्हें ज़मीन पर न रखिएगा मैले हो जाएंगे..."