सारंग खानापुरकर
मुख्तियार अली देश के मशहूर सूफी गायकों में से एक है. राजस्थान के बीकानेर से ताल्लुक रखनेवाले मुख्तियार अली मिरासी समुदायसे है, जहाँ 800 साल से गायकी की परम्परा चली आ रही है. कबीर, बुल्लेशाह, मीरा के कलाम गाने के लिए वो देश और दुनिया में मशहूर है. विशेष बात ये है की उनकी लोकप्रियता दक्षिण भारत में अधिक है. कुछ समय पहले मुख्तियार अली पुणे आये हुए थे, तब सूफी संगीतपर उनसे की गयी बातचीत...
सूफी संगीत की ख़ासियत आपको क्या लगती है?
शैली चाहे जो भी हो, संगीत लोगों को जोड़ने का काम करता है. हालाँकि, सूफी जैसे लोक संगीत की ख़ासियत लोगों के दिलों को जोड़ना है. सूफ़ी संगीत में इसपर बड़ा ज़ोर दिया गया है. लोगों के बीच प्रेम और आत्मीयता की भावना कैसे पैदा की जाए ये हम अपने गीतों और संगीत के माध्यम से बख़ूबी सिख सकते है. कबीर, मीरा, बाबा बुल्लेहशाह जैसे हमारे संतो और सुफिओं ने हमें यही सिखाया है और संगीत के ज़रिये यही पैगाम देने की हमारी कोशिश रहती हैं.
सूफ़ी संगीत की कई शतकों की परंपरा है. लेकिन आज भी यह संगीत लोगों के बिच बेहद लोकप्रियता बनाये हुए है. आप देखेंगे की हिंदी फिल्मों में भी इस गीत-संगीत का काफी इस्तेमाल किया गया है. असल ख़ुशी हमारी इन परंपराओं के हिफाज़त करने में है. इन परंपराओंने और इनके संतों ने हमें यही सिख दी है की हम सब एक है. इस रिवायतने मुझे जो दिया है, अगर मैं उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचा सकूं तो मैं अपने आप को खुशकिस्मत समझूँगा.
आपको कबीर से गहरी मुहब्बत है. इसकी वजह क्या है?
संत कबीर ने अपनी जिंदगी में कभी समझौता नहीं किया. जब उन्हें लगा कि लोगों को एक संदेश देने की जरूरत है तो उन्होंने वह पैगाम बेहद स्पष्टता से दिया. ऐसा करते वक़्त उन्हें कोई डर महसूस नहीं हुआ. यही वजह है की मैं कबीर का बेहद एहतराम करता हूं.
उन्ही से जुडी फिल्म में काम करने का आपका अनुभव कैसा रहा?
कुछ साल पहले कबीर पर बनी डॉक्युमेंट्री रिलीज हुई. 'हद-अनहद' नाम से. उसे देश-विदेश में काफी प्रसिद्धि मिली. उसमें में मैंने सूफी संगीत के बारे में बात की थी. कैमरे के सामने बतौर लोक कलाकार मैंने अपने मन की बात कही. उस वक़्त मुझे समझ नहीं आया कि हम किस बारे में बात कर रहे थे.
पर जब मैंने फिल्म पूरी होने के बाद देखी तो मुझे एहसास हुआ कि हमने बातचीत के दौरान कई बड़ी बातें कही थीं. इस वजह से मैं अंतर्मुख हो गया. मुझे एहसास हुआ कि मैंने जो भी बोला है हकीकत में उसपर अमल करने की बड़ी जिम्मेदारी अब मेरे उपर है.
हालाँकि, हमें एहसास हुआ कि हम कबीर, बाबा बुल्लेशाह को गानेवाले कलाकार हैं. फ़िल्में हमारा क्षेत्र नहीं हैं. इसलिए मैंने अपना दायरा तय किया. बहुत बड़े सपने देखने की हमें ज़रूरत नहीं थी.
फिल्मों के लिए काम करना एक अलग अनुभव है. मैंने 'फाइंडिंग फैनी' और कुछ अन्य फिल्मों के लिए काम किया है. लेकिन, मैं समझता हूं कि यह मेरा तरीका नहीं है. मैं अपनी 26पीढ़ियों की परंपरा को कायम रखना चाहता हूं.'
अगर मैं बॉलीवुड में जाऊंगा तो मेरी इस परंपरा को कौन बनाए रखेगा? मुझे ख़ुशी तब ही मिलेगी जब मैं अपनी इस परंपरा को अगली पीढ़ी तक पहुंचा सकूं. इसलिए मैंने सिर्फ सूफी गाने गाने का फ़ैसला किया. मैं फिल्मों के लिए तभी गाऊंगा जब कबीर, बाबा फरीद जैसे संतों के कलाम गाने हो, वरना नहीं.
आपने फ्रांसीसी संगीतकार मैथ्यू डुप्लेसिस के साथ भी काम किया है.
पश्चिमी संगीत और हमारे संगीत में क्या अंतर है?
'फाइंडिंग फैनी' और एक एल्बम के लिए मैंने डुप्लेसिस के साथ काम किया. लोगोंने इसे बेहद पसंद किया, लेकिन मुझे लगा की हमारा संगीत अधिक ठोस है. हमारे संगीत का आधार शास्त्रीय है. मेरा मानना है कि सूफ़ी संगीत भी शास्त्रीय है. लोगों के हुजूम को लुभाना, ज्यादा से ज्यादा ऑडियंस इकट्ठा करना ही पश्चिमी संगीत का उद्देश्य है. इसके बरअक्स हमारा संगीत जहन को सुकून देनेवाला है. इसलिए यह हमें ख़ुदा से जोड़ता है.
क्या आपकी अगली पीढ़ी आपसे मौसिकी की तालीम ले रही है?
हाँ, बिलकुल ले रही है. मैं अपने बेटे को वो सब सिखाता हूँ जो मैंने अपने वालिद से सीखा है. हालाँकि, हम दोनों के बीच सीखने में एक बड़ा अंतर है. लड़के को लगता है की अब उसका पुराना गाना कोई नहीं सुनता. इसलिए वह एक पेशेवर गायक बनना चाहता है. लेकिन मैंने गायन के ज़रिये ज़िंदगी का आनंद लिया. अगर उसकी किस्मत में होगा तो वो भी वैसीही ख़ुशी महसूस कर पायेगा.
आप अभी भी राजस्थान के अपने पुश्तैनी गाव में रहते हैं. क्या आप किसी बड़े शहर में नहीं रहना चाहते?
गांव में जो मौज-मस्ती है, वो और कही नहीं है. जिनके साथ मैं बड़ा हुआ, जिनसे सीखा; मुझे उनके साथ रहना अच्छा लगता है. शहर में रहना मेरी फितरत नहीं. इसके अलावा, मैं इतना बड़ा आदमी भी नहीं हूं.
आज सूफ़ी संगीत के सामने आप क्या चुनौतियाँ देखते हैं?
हालाँकि सूफी संगीत बेहद लोकप्रिय है. इस संगीत में लोगों को जोड़ने की बड़ी ताक़त है. लेकिन इस संगीत को इसके असल रूप में संरक्षित करना मुश्किल होता जा रहा है. क्योंकि संगीत तेज़ी से बदल रहा है. उसे लोगों की पंसद के अनुसार बदलना पड़ रहा है.
लेकिन, सूफी संगीत लोगों की पसंद के अनुसार बदला नहीं जा सकता है. बिना इसकी रूह को हात लगाये इसे आज के दौर में इस्तेमाल जरुर किया जा सकता है . पर सूफी संगीत को तेजी से लोकप्रिय बनाने के लिए पश्चिमी संगीत, वाद्ययंत्रों का सहारा लेने से बचना चाहिए. क्योंकि ऐसा हुआ तो सूफी संगीत की रूहानियत निकल जाएगी, और तब ये संगीत हमारा नहीं रहेगा.