मिथिला के गांव महिषी का देवी उग्रतारा का मंदिर, जहां मुस्लिमों के बगैर पूरी नहीं होती पूजा

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 27-10-2022
मिथिला के गांव महिषी का देवी उग्रतारा का मंदिर, जहां मुस्लिमों के बगैर पूरी नहीं होती पूजा
मिथिला के गांव महिषी का देवी उग्रतारा का मंदिर, जहां मुस्लिमों के बगैर पूरी नहीं होती पूजा

 

मंजीत ठाकुर

भारत के हमेशा विविधता का देश कहा गया है और हिंदू धर्म में भी अपार विविधता है. आजकल देश में मांसाहार करने और न करने को हिंदू धर्म से जोड़ा जाता है, दूसरी तरफ हिंदू और मुसलमानों के बीच की खाई बढ़ती जा रही है. ऐसे में मिथिला का महिषी समन्वयता और सौहार्द की मिसाल पेश करता है.

मिथिला में शक्तिपीठों में से एक है महिषी गांव का उग्रतारा मंदिर. महिषी गांव शाक्त परंपरा यानी देवी शक्ति की पूजा करने वालों का बेहद पवित्र स्थान है. लेकिन यहां देवी के समक्ष मुर्गे की बलि भी दी जाती और यह बलि बगैर मुस्लिम व्यक्ति के पूरी नहीं होती है.

असल में, महिषी गांव का इतिहास बेहद पुराना है और यह गांव मिथिला की बेशकीमती परंपरा का वाहक गांव माना जाता है. इस गांव में उग्रतारा देवी का मंदिर है, इन देवी को काली का एक रूप माना जाता है. यह शक्तिपीठ भी है. लेकिन इसके साथ ही महिषी गांव वैष्णवों के लिए भी पवित्र स्थान है. इस गांव से बौद्ध परंपराएं भी जुड़ी रहती हैं.

मिथिला की परंपराओं के जानकार पंडित जटाशंकर झा कहते हैं, “महिषी शाक्त के लिए उग्रतारा देवी के मंदिर, वैष्णवों के लिए मंडन मिश्र और शंकराचार्य के शास्रार्थ की प्रसिद्ध घटना और भारती के कारण बौद्धों के लिए भी पवित्र स्थान है.”

झा बताते हैं कि महिषी गांव में मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच शास्रार्थ हुआ था. मंडन मिश्र वैष्णव संप्रदाय के थे, जबकि उनकी पत्नी भारती का झुकाव बौद्ध धर्म की तरफ था. इसके साथ ही महिषी गांव लक्ष्मीनाथ गोसाई जैसे संत के कारण भी प्रसिद्ध है. खास बात यह है कि जैन धर्म की इकलौती महिला तीर्थंकर और श्वेतांबर परंपरा की संस्थापक मल्लिनाथा भी यहीं की थीं.

mithila

महिषी की गाथा के बारे में बताते हुए झा कहते हैं, “मिथिला राज्य पर सबसे अधिक समय तक नेतृत्व करनेवाली रानी पद्यावती का मायके भी महिषी ही था. उस गांव में आज भी सभी धर्म पंथ की परंपरा जीवित हैं.”

मिथिला में महिषी शाक्त संप्रदाय का सबसे मजबूत मठ है. शाक्त परंपरा यहां न केवल बची हुई है, बल्कि देखी भी जा सकती है. हिंदू धर्म में मलक्ष्य एक जाति है जिसे आज का समाज मुसलमान कहता हैं.

मलक्ष्य (मुसलमान) के बगैर सम्पन्न नहीं होती है देवी पूजा

मिथिला के हिंदू घरों में आम तौर पर मांगलिक कार्यों में कुलदेवी की पूजा की जाती है और इस पूजा में बलि देने की परंपरा है. जानकार बताते हैं कि मिथिला में वैष्णवी देवी अगर कुल देवी न हों तो कुलदेवी को बकरे (छागल) और मुर्गे दोनों की बलि दी जाती है.


मुर्गे की बलि कोई मलक्ष्य ही देते हैं. इसके बगैर देवी पूजा संपन्न नहीं होती. बलि देने के लिये जिन्हें बुलाया जाता है, उन्हें नये कपड़े और दक्षिणा देकर विदा किया जाता है. इस परंपरा के पीछे कई कहानियां हैं. जिन हिन्दुओं को गरबा में मुसलमानों की उपस्थिति से एतराज हो उन्हें पता होना चाहिए कि यह भी धार्मिक परंपरा ही है.

झा इसके लिए शास्त्रों को उद्धृत करते हैं और कहते हैं, “धर्मस्य निर्णयो ज्ञातः मिथिलायां व्यवहारतः”मतलब धर्म संबंधी दुविधाओं में मिथिला का व्यवहार विवाद का निदान है.

लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात झा बताते हैं कि देवी के समक्ष मुर्गे की बलि देना कोई अनोखी बात नहीं है. शाक्त परंपरा के वाममार्ग में ऐसी बलि की परंपरा रही है और कुक्कुट बलि (मुर्गे या बत्तख) इस वाम मार्ग की परंपरा रही है.

जानकार कहते हैं कि हिंदू धर्म में ऐसी प्रथाएं इसके समन्वयकारी रूप का परिचायक हैं और महिषी में देवी के समक्ष बलि प्रदान में मुस्लिम व्यक्ति का आना समाज के इस मिली-जुली तहजीब का नतीजा ही है.