शायरी में बग़ावत का सुर: साम्राज्यवाद और सरमायेदारी के ख़िलाफ़

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 14-08-2025
Part Four: The role of progressive poets in the freedom movement
Part Four: The role of progressive poets in the freedom movement

 

ज़ाहिद ख़ान

तमाम तरक़्क़ी—पसंद शायरों के साथ जाँ निसार अख़्तर ने भी शायरी को रिवायती रूमानी दायरे से बाहर निकालकर, ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों से जोड़ा.उनकी शायरी में इंक़लाबी अनासिर तो हैं ही, साम्राज्यवाद और सरमायेदारी की भी सख़्त मुख़ालफ़त है.वतन—परस्ती और क़ौमी यक—जेहती पर उन्होंने कई बेहतरीन नज़्में लिखी.सर्वहारा वर्ग का आहृान करते हुए, वे अपनी एक इंक़लाबी नज़्म में कहते हैं,

मैं उनके गीत गाता हूॅं, मैं उनके गीत गाता हूॅं

जो शाने पर बग़ावत का अलम लेकर निकलते हैं

किसी ज़ालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं
 
जाँ निसार अख़्तर
 
जाँ निसार अख़्तर साम्प्रदायिक सौहार्द के हिमायती थे.उनकी कई नज़्में इस मौजू़अ पर हैं,
 
एक है अपना जहाँ

एक है अपना वतन

अपने सभी सुख एक हैं

अपने सभी ग़म एक हैं

आवाज़ दो हम एक हैं

ये है हिमालय की ज़मीं, ताज—ओ-अजंता की ज़मीं

संगम हमारी आन है, चित्तौड़ अपनी शान है

गुलमर्ग का महका चमन, जमना का तट गोकुल का मन

गंगा के धारे अपने हैं, ये सब हमारे अपने हैं

कह दो कोई दुश्मन नजर उट्ठे न भूले से इधर

कह दो कि हम बेदार हैं, कह दो कि हम तैयार हैं

आवाज़ दो हम एक हैं

जाँ निसार अख़्तर का एक अहम कारनामा ‘हिंदुस्तान हमारा’ है.यहकिताब दो वॉल्यूम में है और इसमें तीन सौ सालों की हिंदुस्तानी शायरी का अनमोल सरमाया है.वतन—परस्ती, क़ौमी यक—जेहती के साथ-साथ इस किताब में मुल्क की कुदरत, रिवायत और उसके अज़ीम माज़ी को उजागर करने वाली ग़ज़लें, नज़्में शामिल हैं.हिंदोस्तानी त्यौहार, तहज़ीब, दुनिया भर में मशहूर मुल्क के ऐतिहासिक स्थल, मुख़्तलिफ़ शहरों, आजादी के रहनुमाओं, देवी-देवताओं यानी हिंदुस्तान की वे सब बातें, वाक़िआत या किरदार जो हमारे मुल्क को अज़ीम बनाते हैं, से संबंधित शायरी सब एक जगह मौजूद है
 
.इस किताब के ज़रिए उर्दू शायरी का एक ऐसा चेहरा हमारे सामने आता है, जो अभी तक पोशीदा था.मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब को परवान चढ़ाने और इसे आगे बढ़ाने में उर्दू शायरी ने अपना जो योगदान दिया, यह किताब बताती है.
 
अपने ज़माने में सैयद ‘मुत्तलबी’ फ़रीदाबादी की हैसियत एक अवामी शायर की थी. किसानों और आज़ादी की तहरीक में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की.मुशायरों और सियासी जलसों के वे मक़बूल शायर थे.सैयद मुत्तलबी फ़रीदाबादी ने अपनी इंक़लाबी नज़्मों में हमेशा इंसानियत मुख़ालिफ़ करतूतों की सख़्त मज़म्मत की.‘मथुरा का एक दर्दनाक मंज़र’ नज़्म में वे इन ताक़तों को ललकारते हुए कहते हैं,
 
लानत ए सरमायदारी ! लानत ए शाहंशाही

ये मनाज़िर हैं, तुम्हारी ही फ़कत जल्वागरी.
 
सामंती पृष्ठभूमि होने के बाद भी किसानों और कामगारों के प्रति सैयद ‘मुत्तलबी’ फ़रीदाबादी की सहानुभूति थी.रियासत और अंग्रेज़ हुकूमत के अत्याचारों और सख़्ती के ख़िलाफ उन्होंने हमेशा जद्दोजहद की और किसानों का पक्ष लिया.
 
सैयद मुत्तलबी फ़रीदाबादी की ज़बान मिली-जुली है या यूॅं कहें हिंदुस्तानी है.उनकी नज़्मों में खड़ी बोली के अलावा हरियाणवी, मेवाती, राजस्थानी और बृज भाषा का असर साफ़-साफ़ देखा जा सकता है.वे शायरी में भाषायी शुद्धता के हामी नहीं थे.जिस बोली या भाषा का जो शब्द उन्हें भाता, वह उसका इस्तेमाल करते.यही वजह है कि अवाम को उनकी शायरी का यह अंदाज़ ख़ूब पसंद आता था.वे उनकी शायरी से गहरे से जुड़ जाते थे.लिखने का अंदाज कुछ ऐसे होता, मानो वाकि’आ-निगार हैं,
 
लो लो चलो चलो

बढ़ो बढ़ो बढ़ो बढ़ो

नाव में बैठी राजा की नार

पातर नाचे बारम बार

पायल देत रही झंकार

ढोलक बोले गिड़ गिड़ तार

पेट की आग से नाव चलाओ

चलों चले चलों चले

चाबुक दोनों मार रहे हैं

आगे टंडेल पीछे जमादार

मज़दूरी करके पछताए

पछताए फिर करने आए

युग बीते यह जनम गुज़ारा

कोई नहीं बनता गुनतारा

कोई पहन पहन मर जाए

कोई मरे पे कफ़न न पाए

इस दुनिया को आग लगाए

बल्ली तोड़ दें बीड़ा डुबोये

इस नज़्म में सैयद मुत्तलबी फ़रीदाबादी न सिर्फ़ मेहनत—कशों के शोषण का पूरा मंज़र बयॉं करते हैं, बल्कि नज़्म के आख़िर में एक इंक़लाबी सोच का मुज़ाहिरा भी करते हैं.उन्होंने देशी सामंतों और साम्राज्यवादी अंग्रेज़ हुकूमत दोनों की जन विरोधी नीतियों की आलोचना की.
 
उर्दू अदब में एहसान दानिश की शिनाख़्त, शायर-ए-मज़दूर के तौर पर है.मज़दूरों के उन्वान से उन्होंने अनेक ग़ज़लें, नज़्में लिखीं.वे एक अवामी शायर थे.अपने समय में उन्हें जोश मलीहाबादी की तरह मक़बूलियत मिली.उन्होंने अपनी शायरी में जहॉं मज़दूर तबक़े के मसले-मसाइल को आवाज़ दी, उनके रंज़-ओ-ग़म को उभारा, तो वहीं सरमायेदारी की भी सख़्त मज़म्मत की.दानिश ने धर्म की रूढ़िवादिता पर जमकर प्रहार किया.अपनी शायरी में वे कई बार मज़हब से बग़ावत करते हुए दिखते हैं.अपनी एक नज़्म में वे लिखते हैं,
 
हाथ में थी इनके मज़हब सिक्का—साज़ी की मशीन

इनके आगे ज़र उगलती थी मआवद की ज़मीन

ख़ानक़ाहों में दिलों का मुद्दआ बिकता रहा

मुद्दतों तक इन दुकानों में ख़ुदा बिकता रहा
 
एहसान दानिश अपनी नज़्मों में सब के लिए समान अधिकारों की बात करते हैं.सरमाएदारी की जानिब उनके दिल में इतना ग़ुस्सा है कि अपनी नज़्मों में वे सरमाएदारों के ख़िलाफ़ आग उगलते हुए कहते हैं,
 
मैं उसे साहिब—ए—ईमान समझता ही नहीं

ओछे ज़रदार को इंसान समझता ही नहीं
 
अहमद नदीम क़ासमी
 
अहमद नदीम क़ासमी ने शुरूआत में रूमानी ग़ज़लें लिखीं, लेकिन बाद में ज़िंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों को अपने अदब का मौजू़अ बना लिया.उनकी शायरी जहॉं इंसान—दोस्ती का जज़्बा जगाती है, तो वहीं उसमें आने वाले कल की ख़ूबसूरत तस्वीर भी है.
 
अवाम की आज़ादी और समानता के वे हामी थे.उनके अदबी सरमाये में एक से बढ़कर एक नज़्में हैं.मिसाल के तौर पर उनकी मक़बूल नज़्म ‘पाबंदी’ पर गर नज़र-ए-सानी करें, तो यह नज़्म पाबंदी इज़हार-ए-ख़याल के ख़िलाफ़ सदा-ए-एहतिजाज है.सादा अल्फ़ाज़ में उन्होंनें इस नज़्म में वह ख़याल पिरोया है, जो हर दौर में मौज़ूअ रहेगा,
 
मिरे आक़ा को गिला है कि मिरी हक़-गोई

राज़ क्यूँ खोलती

और मैं पूछता हूँ तेरी सियासत फ़न में

ज़हर क्यूँ घोलती है

मैं वो मोती न बनूँगा जिसे साहिल की हवा

रात दिन रोलती है

यूँ भी होता कि आँधी के मुक़ाबिल चिड़िया

अपने पर तौलती है

इक भड़कते हुए शोले पे टपक जाए अगर

बूँद भी बोलती है
 
अपने बग़ावती तेवर और समझौताहीन राजनीति के चलते अहमद नदीम क़ासमी को कई मर्तबा जेल भी जाना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपने इंक़लाबी तेवर नहीं बदले.उनकी शायरी में इंसानियत और भाईचारे का पैग़ाम है,
 
दावर—ए-हश्र ! मुझे तेरी कसम

उम्र भर मैंने इबादत की है

तू मेरा नामा-ए-आमाल तो देख

मैंने इंसॉं से मुहब्बत की है
 
सैयद मुत्तलबी फ़रीदाबादी
 
सैयद मुत्तलबी फ़रीदाबादी, एहसान दानिश और अहमद नदीम क़ासमी भले ही मुल्क के बंटवारे में लाखों लोगों के साथ पाकिस्तान हिजरत कर गए, मगर इस बात को कभी भुलाया नहीं जा सकता कि गु़लाम मुल्क में अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ उनकी क़लम ने खू़ब आग उगली.अपनी ग़ज़लों, नज़्मों से उन्होंने अवाम को बराबर बेदार किया.शायरी में कभी मुखर होकर, तो कभी इशारों में उन्होंने अपनी बात कही.यक़ीन न हो, तो अहमद नदीम क़ासमी की ऐसी ही एक ग़ज़ल के अशआर देखिए,

हुक्मरानों ने उकाबों का भरा है बहु रूप

भोली चिड़ियों को जगाना भी तो फ़नकारी है
 
इन चंद मिसालों से जाना जा सकता है कि तरक़्क़ी—पसंद तहरीक से जुड़े शायरों ने मुल्क की आज़ादी के लिए अपना सब कुछ झौंक दिया था.अंग्रेज़ी हुकूमत के सैकड़ों ज़ुल्म सहे, जेल में हज़ारों यातनाएं सहीं.अपने परिवार से दूर रहे, लेकिन बग़ावत का झंडा नहीं छोड़ा.उसे बुलंद करे रहे.मुल्क की आज़ादी में उनकी बे-मिसाल क़ुर्बानियॉं शामिल हैं.



dलेखक के बारे में :  भारतीय साहित्य में चले प्रगतिशील आंदोलन पर लेखक, पत्रकार ज़ाहिद ख़ान का विस्तृत कार्य है. उनकी कुछ अहम किताबों की फ़ेहरिस्त इस तरह  है-‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’, ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक की रहगुज़र’, ‘तहरीक-ए-आज़ादी और तरक़्क़ीपसंद शायर’ और ‘आधी आबादी अधूरा सफ़र’. ज़ाहिद ख़ान ने कृश्न चंदर के ऐतिहासिक रिपोर्ताज ‘पौदे’, अली सरदार जाफ़री का ड्रामा ‘यह किसका ख़ून है’ और हमीद अख़्तर की किताब ‘रूदाद-ए-अंजुमन’ का उर्दू से हिन्दी लिप्यंतरण किया है. ‘

शैलेन्द्र हर ज़ोर-ज़ुल्म की टक्कर में’ और ‘बलराज साहनी एक समर्पित और सृजनात्मक जीवन’ किताबों का संपादन भी उनके नाम है.   उनकी चर्चित किताब ‘तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमसफ़र’ मराठी और उर्दू ज़़बान में अनुवाद हो, प्रकाशित हो चुकी हैं. इस किताब के लिए उन्हें ‘मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ से भी नवाज़ा गया.