धर्मपुत्र: साठ साल बाद भी क्यों देखनी चाहिए यह फिल्म

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] • 2 Years ago
धर्मपुत्र: साठ साल बाद भी क्यों देखनी चाहिए यह फिल्म
धर्मपुत्र: साठ साल बाद भी क्यों देखनी चाहिए यह फिल्म

 

साकिब सलीम

सिनेमा, साहित्य की तरह, उस समाज का प्रतिबिंब होने का तर्क दिया जाता है जिसमें हम रहते हैं और बदले में समाज के कार्य करने के तरीके को बहुत प्रभावित करता है. जब हम भारत की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति और उस सिनेमा को देखते हैं, जो विशेष रूप से मुंबई द्वारा निर्मित होता है, तो यह तर्क लड़खड़ाता हुआ प्रतीत होता है.

हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जो छोटे-छोटे राजनेताओं द्वारा विभाजन की गंदी चालों से जकड़े हुए हैं. यदि सिनेमा साहित्य की तरह समाज का प्रतिबिंब है तो उसे सांप्रदायिक राजनीति, जातिवाद और विभाजनकारी राजनीति के मुद्दों को संबोधित करना चाहिए. पिछले 75 वर्षों में, मुख्यधारा के सिनेमा ने धार्मिक कट्टरता और उससे उत्पन्न होने वाली राजनीति के प्रति तिरस्कार दिखाया है.

शशि कपूर, माला सिन्हा, रहमान, मनमोहन कृष्ण और निरूपा रॉय अभिनीत 1961 की फिल्म धर्मपुत्र एक ऐसी फिल्म है जिसे मैं पुराना और बेकार मानना चाहता हूं, लेकिन दुर्भाग्य से यह फिल्म अभी भी उतनी ही ताजा और प्रासंगिक है जितनी 60साल पहले थी.

यश चोपड़ा का दूसरा निर्देशन उद्यम और शशि कपूर की पहली वयस्क के रूप में, यह फिल्म भारत में सांप्रदायिक राजनीति पर प्रकाश डालती है. मुख्यधारा के सिनेमा ने ज्यादातर भारतीय राजनीति के इस सबसे महत्वपूर्ण पहलू को कमतर आंका है. या तो फिल्में इस मुद्दे पर चुप रहती हैं या, अगर वे सांप्रदायिकता के अस्तित्व को स्वीकार करती हैं, तो फिल्म कुछ मुस्लिम पात्रों को दिखाएगी जो देश को विदेशी सहायता से तोड़ना चाहते हैं.

धर्मपुत्र इस दृष्टिकोण से प्रस्थान करते हैं. देश के दुखद विभाजन के 14साल बाद ही निर्मित, यश चोपड़ा ने साहसपूर्वक इस विषय को उठाया और इस मुद्दे को ईमानदारी से संभाला, केवल एक महान कलाकार ही प्रदर्शित कर सकता है.

फिल्म की शुरुआत 1925में सेट किए गए एक सीक्वेंस से होती है, जहां एक बड़ा जुलूस इंकलाब जिंदाबाद और हिंदू मुस्लिम भाई भाई के नारे लगा रहा है. नवाब बदरुद्दीन (अशोक कुमार) अपनी बेटी हुस्न बानो (माला सिन्हा) के साथ दिल्ली में डॉक्टर अमृत राय (मनमोहन कृष्ण) के पास आता है, जो बिना शादी किए गर्भवती है.

डॉक्टर के पिता और नवाब सबसे अच्छे दोस्त थे और बानो ने उन्हें राखी बांधी. इस बिंदु पर फिल्म खुद को अलग करती है. जब डॉक्टर बानो से पूछते हैं कि उनके साथ किसने गलत किया, तो वह जवाब देती हैं कि यह गलती नहीं बल्कि प्यार था. उसके पिता नवाब ने उन्हें शादी नहीं करने दी क्योंकि उसका प्रेमी जावेद (रहमान) निचली जाति का था.

नवाब डॉक्टर को बताता है कि समाज ने कुलीनों और निचलों के बीच अंतर करने के लिए कुछ प्रक्रियाओं को संहिताबद्ध किया है. जावेद, जो एक प्रोफेसर थे, की बानो से शादी नहीं हो सकती थी क्योंकि वह उच्च जाति का नहीं था. यकीनन यह फिल्म मुख्यधारा में कुछ लोगों में पहली है, जहां मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था को दिखाया गया है.

डॉक्टर, अपनी पत्नी सावित्री (निरूपा रॉय) के परामर्श से भ्रूण का गर्भपात नहीं करने का फैसला करता है, बानो को शिमला ले जाता है और बच्चे को जन्म देता है. डॉक्टर और सावित्री, बच्चे को गोद लेते हैं और उसका नाम दिलीप रखते हैं. बच्चा, जिसके जैविक माता-पिता मुस्लिम थे, बानो और जावेद, को हिंदू माता-पिता ने गोद लिया था और एक हिंदू के रूप में पाला था.

इस बीच, नवाब जावेद को ढूंढता है और उसकी शादी बानो से कर देता है. एक दुर्घटना के परिणामस्वरूप बानो को कभी कोई संतान नहीं होगी. सावित्री बाद में दो लड़के और एक लड़की को जन्म देती है. दोनों परिवार पड़ोसी हैं, और वे दोनों घरों के बीच एक पुल का निर्माण करते हैं, ताकि दिलीप अपनी असली मां बानो के साथ आसानी से खेल सकें, जिसे वह मौसी (चाची) कहते हैं. फिल्म 1931-32तक चलती है, महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन के मद्देनजर, नवाब ब्रिटिश पुलिस की गोलियों का बहादुरी से मुकाबला करता है और अपने होठों पर इंकलाब जिंदाबाद और हिंदू मुस्लिम भाई भाई के नारे के साथ मर जाता है. रहमान और बानो आजादी से ठीक पहले 1947में ही यूरोप लौटने के लिए देश छोड़कर चले गए थे.

दिलीप (शशि कपूर) की असली मां बानो, अपने बेटे से मिलने के लिए दौड़ती है,जो तब तक एक कट्टर हिंदू नेता बन गया होता है. दिलीप मुसलमानों से नफरत करते हैं और इसलिए अपनी असली मां को चाची के रूप में स्वीकार नहीं करता है. दिलीप के भाई-बहनों को उसके साथ हिंदू मुस्लिम मुद्दे पर तीखी बहस करते हुए दिखाया गया है. एक बिंदु पर उनके छोटे भाई सुदेश (देवेन वर्मा), एक गर्मागर्म चर्चा के दौरान, दिलीप से कहते हैं कि एक सामान्य भारतीय गुलाम रहेगा, भले ही अंग्रेज भारत छोड़ दें क्योंकि तब दिलीप जैसे कट्टरपंथी भारतीयों पर शासन करेंगे.

फिल्म अपने दर्शकों के साथ 1920और 1947के बीच भारतीय राजनीति के सांप्रदायिकरण की प्रक्रिया में खुद को उजागर करती है. रहमान बताते हैं कि जिस स्थान पर नवाब ने हिंदू मुस्लिम भाई भाई के नारे के साथ खुद को शहीद किया, वहां लोग ले के रहेंगे पाकिस्तान के नारे लगा रहे हैं.

उन्हें आश्चर्य है कि कैसे 15साल के भीतर देश विभाजन के कगार पर पहुंच गया है.

डॉक्टर और रहमान इस घटनाक्रम से हैरान हैं. देश का बंटवारा हो रहा है. दिलीप मुसलमानों को मारने के लिए भीड़ का नेतृत्व कर रहे हैं, हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान के नारे लगा रहे हैं. उनकी विश्वदृष्टि में, मुसलमानों का भारत पर कोई अधिकार नहीं है. राजेंद्र कुमार, एक नेता के रूप में एक कैमियो में, एक भीड़ को संबोधित करते हैं कि घरों को भी भाइयों के बीच विभाजित किया जाता है और यह हिंसा में तब्दील नहीं होता है.

इस फिल्म यश चोपड़ा सांप्रदायिकता का पूरा दोष मुस्लिम विरोध पर नहीं डालते.