हरजिंदर
नादिर शाह अपने जिस सिपहसालार को सबसे ज्यादा वफादार मानता था वह था अब्दाली कबीले का अहमद खान। नादिर शाह की निजी सुरक्षा भी उसी के जिम्मे थी. लेकिन यह भी कहा जाता है कि नादिर शाह की हत्या में सबसे बड़ा हाथ उसी का था.
कहते हैं उसी ने अली कुली के साथ मिल कर नादिर शाह की हत्याका षड़यंत्र रचा.नादिर शाह की हत्या केबाद जो घटनाएं हुईं वह भी इसी ओर इशारा करती हैं. एक तो नादिर शाहकी मौत के बाद अहमद खान ने उसके शव को बाहर फिंकवा दिया और वह शाही सम्मान नहींदिया जिसका वह हकदार था और जिसे देना एक सिपहसालार का फर्ज था.
दूसरे नादिर शाह की मौत के बाद अहमद खान ने उसकी भुजा में बंधा दुनिया का सबसे बेश कीमती कोहिनूर हीरा अपने कब्जे में ले लिया. यह हीरा उस समय किसी भी बादशाह के लिए पूरे एशिया पर उसकेआधिपत्य का प्रतीक बन गया था.
हालांकि कुछ अफगान इतिहासकारों ने इसी कहानी को एक दूसरी तरह से बयां किया है. उनका कहना है कि अहमद खान अब्दाली ने अपने शाह की जान बचाने की आखिरी दम तक कोशिश की लेकिन वह इसमें कामयाब नहीं हुआ.
उन्होंने कोहिनूर के बारे में लिखा है कि यह हीरा अहमद खानको नादिर शाह की एक बेगम ने इसलिए भेंट किया था क्योंकि उसने बेगम की आबरू कोविद्रोही सैनिकों से बचाया था. अहमद खान केबारे में एक और कहानी प्रचलित है.
कहा जाता है कि नादिर शाह की हत्या के तुरंत बाद भारत से एक कारवां वहां पहुंचा जिसके साथ भारी मात्रा में लूट का सामान था. अहमद खान ने यह सब अपने कब्जे में ले लिया और अपने कबीले के सैनिकों में बांट दिया. वह चाहता था कि इस मोड़ पर उसके कबीले के सैनिकों की वफादारी उसी के साथ और मजबूत हो जाए.
हालांकि इन सबका कोई प्रमाण नहीं मिलता और ज्यादातर इतिहासकारों ने इसका जिक्र भी नहीं किया है.अहमद खान का जिस तेजी से उदय हुआ उसमें एक बात साफ हो गई कि अफगानिस्तान पर अब बाहरी शासन खत्म हो रहा है और अब उसे फिर एक बार स्थानीय बादशाह मिलने वाला है.
सत्ता तकरीबन उसके हाथ में आ गई थी लेकिन अहमद शाह फूंक-फूंक कर कदम रख रहा था. 1747 में अहमद खान नेअब्दाली कबीले का जिरगा आयोजित किया. जिरगा एक तरह से कौमी लड़ाकों की पंचायत होती है जो जिसका आयोजन पख्तून कबीलों में तरह-तरह से होता रहा है.
कंधार के पास जब इस जिरगा का आयोजन हुआ तो उसकी अध्यक्षता उस दौर के एक धर्मगुरू साबिर खान ने की. साबिर खान ने कहा कि हम लोगों के बीच सबसे महान शख्सियत का स्वामी सिर्फ अहमद ही है. यह कह कर उन्होंने गेहूं की एक बाली अहमद के सर पर रख दी.
यह बाली दरअसलताज की प्रतीक थी. अहमद खान अपनी ताकत कोसाबित कर चुका था इसलिए उसका किसी तरह से विरोध होने की संभावना ही नहीं थी. साबिर खान ने उसे ‘दुर्र-ई-दुर्रान‘ यानी मोतियों में मोतीकहा. इसी के बाद अब्दाली कबीले को दुर्रानी भी कहा जाने लगा.
अब अफगानिस्तान स्वतंत्र था और अहमद खान अब अहमद शाह अब्दाली बन चुका था.जल्द ही अहमद शाह अब्दाली एशिया की सबसे बड़ी ताकत बन कर उभरा. हालांकि इसकी एक वजह उसकी बढ़ती हुई सैन्यशक्ति तो थी.
दूसरी वजह यह थी कि आस-पास के देश उस समय सैनिक रूप से कमजोर थे। वहां अस्थिरता लगातार बढ़ रही थी.ईरान में तो यह सबअराजकता की हद तक पहुंच गया था. नादिर शाह के वंशज उसे संभाल पाने में लगातार नाकाम साबित हो रहे थे.
जल्द ही सत्ता नादिर शाह के पोते शाहरुख शाह के पास आ गई थी लेकिन राजमहल के षड़यंत्रों में कुछ लोगों ने उसकी आंखों की रोशनी हमेशा के लिए छीन ली थी. दूसरी तरफ न तो आॅटोमन साम्राज्य की ताकत वैसी रही थी और न ही उज्बेक लड़ाके ही पहले की तरह से आक्रामक होने की स्थिति में थे.
सिंधु नदी के उस पार मुगलशासन कमजोर तो पहले ही हो चुका था, अब बिखरने भी लग गया था. एक तरफ तो लगातार दिल्ली की ओर बढ़ रही मराठासेनाओं ने उसकी नाक में दम कर रखा था तो दूसरी तरफ पंजाब में सिख एक ताकत के रूपमें उभर रहे थे, जिनकी छापामार युद्ध शैली मुगल प्रशासन के छक्के छुड़ा रही थी. इसी के साथ ईस्टइंडिया कंपनी भी लगातार मजबूत होती जा रही थी.
नोट: यह लेखक केअपने विचार हैं ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )