हरजिंदर
बाबर के निधन के बाद अफगानिस्तान एक पूर्वी इलाके की सत्ता कम से कम उस मुगल वंश के हाथ से तो निकल ही गई जो आगरा और दिल्ली से अपना शासन चला रहा था.काबुल और कंधार की कमान बाबर ने पहले ही अपने छोटे बेटे कामरान मिर्जा को सौंप दी थी.
आज जो अफगानिस्तान है वह उस समय साफ तौर पर तीन हिस्सों में बंटा हुआ था.पूर्वी हिस्से यानी काबुल और कंधार के आस-पास के इलाके में मुगल शासन था जिसकी बागडोर कामरान के हवाले थी.पश्चिमी हिस्सा ईरान के सफाविद साम्राज्य के पास था.
अमू दरिया के उस पार के सारे इलाके पर उज्बेक वंश ने कब्जा कर रखा था.उज्बेक साम्राज्य के छापामार दरिया पार करके मुगल और सफाविद दोनों के ही इलाकों पर हमले करते रहते थे.मुगल और सफाविद में रिश्ते भले ही बहुत अच्छे नहीं थे लेकिन दोनों ही एक बात पर एकमत थे कि उज्बेक सेना को किसी भी तरह से इस इलाके में आने से रोकना है.
बाबर के निधन के बाद जब हिंदुस्तान की सत्ता हुमायूं को मिली तो उसके सौतेले छोटे भाई कामरान ने उसकी सरपरस्ती मानने से साफ इनकार कर दिया.लेकिन हुमायूं ने कोई टकराव मोल लेने की जरूरत नहीं समझी.
अबुल फजल ने लिखा है कि बाबर ने मरते समय हुमायूं को कहा था कि ‘अपने भाई के खिलाफ कुछ नहीं करना, भले ही वह इसके लायक हो‘.हुमायूं ने अंत तक इस वचन को निभाया भी.
थोड़े ही समय में हालात ने कुछ दूसरी ही करवट ले ली.हुमायूं ने अभी हिंदुस्तान की बागडोर संभाली ही थी कि इब्राहिम लोदी की सेना के सरदारों और सैनिकों ने अपने को फिर से संगठित करना शुरू कर दिया.इस बार उनका नेता था- शेरशाह सूरी। जो अफगान मूल का था और युद्ध की रणनीति बनाने में माहिर था.
यहां एक दिलचस्प बात यह है कि हिंदुस्तान में अब जो मुख्य लड़ाई हो रही थी वह अफगान ताकतों के बीच ही थी.इतिहासकार डिर्क कोलियर ने ‘द ग्रेट मुगल एंड देयर इंडिया‘ नाम की जो किताब लिखी है उसमें वे हमलावर फौज को तो बाबर की सेना कहते हैं लेकिन इब्राहिम लोदी की फौज को हिंुदस्तान की या दिल्ली सल्तनत की सेना कहने के बजाए अफगान सेना ही कहते हैं.
लगातार कईं इलाकों पर कब्जा करता हुआ शेरशाह सूरी जल्द ही इतना ताकतवर हो गया कि उसने कन्नौज की लड़ाई में हुमायूं की फौज को बुरी तरह परास्त कर दिया। हुमायूं जान बचाकर काबुल भागा.
वहां पंहुचते ही उसे समझ में आ गया कि कामरान न तो उसे वहां का शासन सौंपने को तैयार है और न ही सत्ता में कोई हिस्सेदारी देने को.
इस बीच कामरान ने शेरशाह सूरी को यह संदेश भेजा कि अगर उसे पंजाब की सत्ता सौंप दी जाए तो वह हुमायूं को दिल्ली सल्तनत के हवाले कर देगा.शेरशाह सूरी को इस प्रस्ताव में कोई दिलचस्पी नहीं थी इसलिए यह ठुकरा दिया गया.
हुमायूं को यह समझ में आ गया था कि काबुल और कंधार में वह सुरक्षित नहीं है इसलिए वह वहां से निकला और सिंध व सिस्तान होते हुए उसने ईरान में जाकर शरण ली.
कामरान को जब यह खबर मिली कि हुमायूं ईरान में अपनी फौज को संगठित कर रहा है तो उसने ईरान के शाह को संदेश भेजा कि अगर वे हुमायूं को उन्हें सौंप दें तो वह उन्हें कंधार सौंपने को तैयार है। लेकिन शाह ने यह पेशकश नहीं मानी.
हुमायूं ने फौज तैयार कर ली तो सबसे पहला हमला काबुल पर ही किया और कामरान को वहां से खदेड़ दिया.लेकिन कामरान जल्द ही वापस आकर फिर से सत्ता पर काबिज हो गया.हुमायूं ने एक बार फिर कोशिश की और इस बार भी यही सब दोहराया गया। तीसरी बार हुमायूं ने ज्यादा तैयारी से हमला किया और इस बार कामरान को पूरी तरह परास्त कर दिया.कामरान वहां से जान बचाकर दिल्ली भागा.
दिल्ली में तब तक शेरशाह सूरी का निधन हो चुका था और सत्ता उसके बेटे इस्लाम शाह सूरी के पास आ चुकी थी। वहां पहंुच कर कामरान ने दिल्ली दरबार से हुमायूं के खिलाफ मदद मांगी। वहां उसे कोई मदद तो नहीं मिली उल्टे उसे पकड़ कर सैनिकों के साथ काबुल भिजवा दिया गया। इन सैनिकों ने काबुल में कामरान को हुमायूं के हवाले कर दिया.
हुमायूं चाहता तो उस समय कामरान को मार सकता था या उसे हमेशा के लिए जेल में डाल सकता था.लेकिन उसे अपने पिता को दिया गया वचन याद था इसलिए बजाए मारने या जेल में डालने के हुमायूं ने कामरान को हज के लिए मक्का भेज दिया.मक्का में ही कामरान का निधन हो गया.
शेरशाह सूरी के निधन के बाद सूरी साम्राज्य धीरे-धीरे बिखरने लगा था.हुमायूं के लिए यह अच्छा मौका था और उसने फिर से हिंदुस्तान की ओर बढ़ना शुरू किया.इस्लाम सूरी की सेनाएं कहीं भी उसे रोक नहीं सकीं.
आखिरी लड़ाई सरहंद में हुई.जून 1555 की गर्मियों में हुमायूं ने यह जंग भी जीत ली और वह फिर से पूरे हिंदुस्तान का सुल्तान बन गया.काबुल से लेकर भारत तक का इलाका फिर से एक शासन के झंडे तले आ गया.
नोट: यह लेखक के अपने विचार हैं
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )