A revolution in education has emerged from the village, where scientist Sajid is shaping the future of children

रामगढ़ जिले के छतरपुर से निकली एक सोच आज देश भर में शिक्षा की दिशा और दशा बदल रही है पढ़िए आवाज द वॉयस के थे चेंज मेकर्स सीरीज के तहत झारखंड से हमारे सहयोगी जेब अख्तर की डॉ. साजिद हुसैन पर यह विस्तृत रिपोर्ट.
इस सोच के पीछे हैं डॉ. साजिद हुसैन, जिन्होंने वैज्ञानिक की नौकरी छोड़कर बच्चों के भविष्य के लिए एक नई राह तैयार की.उनकी पहल “स्कूलोजियम” आज हजारों बच्चों और सैकड़ों शिक्षकों के लिए उम्मीद की किरण बन चुकी है. साजिद हुसैन का गांव चितरपुर, नेमरा से लगभग 30 किलोमीटर पहले है. यहीं उनकी शुरुवाती पढ़ाई हुई.
वे बताते हैं कि उनके स्कूल के दिनों में एक क्लास में 100 से ज्यादा बच्चे पढ़ते थे, लेकिन आगे चलकर उनमें से गिने-चुने ही करियर में आगे बढ़ पाए. यह अनुभव उनकी स्मृति में गहराई से बैठ गया.
बेंगलुरु की आईआईएससी से मास्टर्स और जर्मनी से पीएचडी करने के बाद उन्हें नेशनल एयरोस्पेस लेबोरेटरी (NAL) में वैज्ञानिक की नौकरी मिली. लेकिन विदेश और देश के बड़े संस्थानों में मिले अनुभव ने उन्हें यह एहसास कराया कि गांव के बच्चे केवल इसलिए पिछड़ जाते हैं क्योंकि उनके पास आधुनिक शिक्षा संसाधन नहीं हैं.
साजिद ने ठान लिया कि वे गांव लौटेंगे और शिक्षा की दिशा बदलेंगे. 2012 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और लौट आए चितरपुर. यहीं से जन्म हुआ स्कूलोजियम का.
नाम से ही इसकी सोच को बयां करता है, स्कूल और जिम्नेज़ियम का मेल. साजिद कहते हैं, “जैसे शरीर को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम जरूरी है, वैसे ही दिमाग को सक्रिय रखने के लिए प्रैक्टिकल एक्सरसाइज जरूरी है.”
यहां बच्चे किताबों तक सीमित नहीं रहते. कभी वो नींबू, करेला या हल्दी का स्वाद लेकर एसिड-बेस समझते हैं, तो कभी घर से लाए अनाज और सब्ज़ियों से पोषण का विज्ञान. यहां पढ़ाई स्पर्श, सुगंध और प्रयोग से होती है, ठीक वैसे से ही जैसे रवींद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन की कल्पना थी.
साजिद के सामने सबसे बड़ी चुनौती शिक्षकों की सोच बदलना रही. ग्रामीण इलाकों में ज्यादातर शिक्षक पूराने तरीकों से पढ़ाने के आदी थे. उन्हें नए पैटर्न पर लाने में छह-छह महीने लग जाते हैं.
यही वजह है कि स्कूलोजियम न केवल बच्चों को पढ़ाता है, बल्कि शिक्षकों को भी ट्रेनिंग देता है. उनका पैटर्न मेकर ओरिएंटेड पेडागॉजी कहलाता है, जिसमें बच्चों को समस्या हल करने और निर्णय लेने की क्षमता विकसित करने पर जोर है. साजिद का मानना है कि आने वाले 20 वर्षों में नौकरी का स्वरूप बदल जाएगा.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के इस दौर में वही बच्चे आगे निकलेंगे जिनमें प्रॉब्लम सॉल्विंग स्किल होगी. आज उनका मॉडल केवल झारखंड तक सीमित नहीं है. कर्नाटक से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक कई स्कूल इसे अपना चुके हैं. जमशेदपुर का डीबीएमएस स्कूल और अरुणाचल का सैनिक स्कूल भी स्कूलोजियम मॉड्यूल पर काम कर रहे हैं.
नीति आयोग और झारखंड सरकार भी इस पैटपैर्न को बड़े पैमाने पर लागू करने पर विचार कर रही है. साजिद का कहना है- “आज की पढ़ाई में मुश्किल से 20 प्रतिशत बच्चे नौकरी तक पहुंच पाते हैं, उनमें से केवल 5 से 10 प्रतिशत को अच्छी नौकरी मिलती है.
यह तस्वीर बदलनी जरूरी है. खासकर झारखंड के 76 प्रतिशत ग्रामीण बच्चों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.” साजिद का नवाचार केवल शिक्षण मॉडल तक सीमित नहीं रहा. 2017 में उन्होंने एक और मिशन शुरू किया, छोटे बच्चों के लिए नई पीढ़ी की किताबें तैयार करना.
सात साल की मेहनत के बाद 2024 में स्कूलोजियम बुक्स के तहत 48 इनोवेटिव किंडरगार्टन टेक्स्टबुक्स सामने आईं. ये किताबें मेकर-आधारित
लर्निंग और प्रर्निंयोगात्मक शिक्षा पर टिकी हैं. इन्हें तैयार करने में आज़िम प्रेमजी यूनियूवर्सिट, डीपीएस रांची और झारखंड यूनियूवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी जैसे संस्थानों के शिक्षा विशेषज्ञों ने सहयोग दिया.
रांची यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति प्रो. एए खान कहते हैं—“इन किताबों ने प्रारंभिक शिक्षा में नई गहराई और नवीनता लाई है. ये किताबें बच्चों में सक्रिय और आनंदमय सीखने की प्रवृत्तिवृ जगाती हैं.”
2025-26 सत्र से जमशेदशेपुर का डीबीएमएस कदमा स्कूल और कई अन्य संस्थान इन किताबों को अपनाने जा रहे हैं. आज तक इस मॉडल से 85 गांवों के 26,000 से ज्यादा बच्चे जुड़जु चुकेचुके हैं. 621 से अधिक
शिक्षक इसे लागू कर रहे हैं और 177 प्रशिक्षक शिक्षकों को लगातार नई तकनीकें सिखा रहे हैं.
फीस महज 500 रुपये प्रति माह है, जो जरूरतमंद परिवारों के लिए पूरी तरह माफ कर दी जाती है. गांवों में इसका असर साफ दिखता है. कई बच्चे जो पहले पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर हो जाते थे, अब प्रयोग और एक्टिव लर्निंग की वजह से पढ़ाई को लेकर उत्साहित हैं.
अभिभावक बताते हैं कि पहले बच्चे केवल रटने पर ध्यान देते थे, अब वे घर आकर सवाल पूछते हैं और चीज़ों को समझने की कोशिश करते हैं. यही बदलाव असली शिक्षा की पहचान है.
साजिद का अगला सपना है ऐसा स्कूल जहां न मोटी किताबें हों, न चार दीवारी. बच्चों को जीवन से सीखने का अवसर मिले खेतों, बगीचों, बाजारों और रोजमर्रा की चीज़ों से.
वे कहते हैं- “हम बच्चों को नौकरी खोजने वाला नहीं, बल्कि नौकरी देने वाला बनाना चाहते हैं.” रामगढ़ का छोटा-सा चितरपुर आज शिक्षा के नए प्रयोगों का केंद्र बन चुका है. यहां से उठी एक सोच ने हजारों बच्चों का भविष्य बदल दिया है.
डॉ. साजिद हुसैन ने साबित कर दिया कि अगर विजन और जुनून हो तो एक छोटे से गांव का बेटा भी शिक्षा की दुनिया में क्रांति ला सकता है.