शबाना ताई से डोंगरी के ‘ भाई लोग ’ क्यों डरते हैं ?

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 25-10-2023
Shabana Tai
Shabana Tai

 

छाया काविरे

नवरात्रि के नौ दिनों में मां दुर्गा के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है. भारतीय संस्कृति में महिलाओं की वीरता और साहस के अनेक उदाहरण मिलते हैं. वर्तमान समय में भी अनगिनत महिलाएं अपने काम और जज्बे से विभिन्न क्षेत्रों में अपना लोहा मनवा रही हैं. ऐसी ही एक महिला अधिकारी की कामयाबी की कहानी है ये. डोंगरी का इलाका हमेशा से अंडरवर्ल्ड और आतंकवाद के लिए बदनाम रहा है.  शबाना शेख वहां पहली महिला वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक के रूप में कार्यरत हुईं. अब वह सहायक पुलिस आयुक्त के पद पर कार्यरत हैं.

नौ भाई-बहनों में उनका नम्बर तीसरा था. घर में महिलाओं को रेडियो सुनने की अनुमति नहीं थी. उन्हें अखबार पढ़ने से भी मना किया जाता था. पढ़ने वाली वह अपनी पीढ़ी में पहली लड़की थीं. उन्हें सलवार-कुर्ता पहनने की आदत थी. पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज के मैदान पर दौड़ते समय, वह सलवार-कुर्ता पहनतीं और ओढ़नी बांधकर दौड़ती थीं. यह कहानी किसी फिल्म या किताब की नहीं है.

शबाना शेख का जन्म अहमदनगर जिले के अकोले तालुका में एक बड़े संयुक्त परिवार में हुआ. उनकी सात बहनें और दो भाई हैं. उनके गांव में उस समय लड़कियों को शिक्षा देना लगभग निषिद्ध था. हालांकि, उनके माता-पिता का लड़कियों के शिक्षा के प्रति समर्थन था. उन्होंने अपने सभी बच्चों को स्कूल भेजने का फैसला किया.

शबाना कहती हैं, ‘‘हम लगातार सात बहनें हैं. इसलिए दादा-दादी को लगता था कि ‘घर का चिराग’ होना चाहिए. इसलिए सात बहनों के बाद दो भाई हुए, लेकिन मेरे माता-पिता ने कभी भी हमारे बीच भेदभाव नहीं किया. मेरी बड़ी बहन जब कॉलेज जाने लगी, तब अकोले में कोई भी मुस्लिम लड़की कॉलेज नहीं जाती थी.

मेरा ग्रेजुएशन पूरा हो होने के बाद मुझे पोस्ट ग्रेजुएशन करना था, लेकिन गाँव में पोस्ट ग्रेजुएशन की सुविधा नहीं थी. उस समय की सामाजिक स्थिति भी शिक्षा के लिए बिल्कुल अनुकूल नहीं थी. तब मैंने बाहर जाकर शिक्षा लेने की इच्छा जताई, लेकिन मेरे पिता ने इनकार कर दिया... इसलिए एक्सटर्नल से ही मैंने एमए में प्रवेश लिया.’’

शबाना आगे कहती हैं, ‘‘हम लड़कियों को बाहर किसी से भी बात करने की भी अनुमति नहीं थी. कॉलेज जाते समय भी चुपचाप कॉलेज जाना था और कॉलेज खत्म होने के बाद चुपचाप घर लौटना था. लड़कों से बात करना वर्जित था.

जब कॉलेज में चुनाव के लिए लड़के वोट मांगने घर आते थे, तो हम अपनी छत पर जाकर बैठ जाते थे. फिर वोट मांगने आए हुए उन लड़कों से पिता ही बात करते और उन्हें कहते थे कि, ठीक है! अपनी बेटी को बताता हूँ कि तुम्हें वोट दे.

उस समय जीएस का चुनाव होता था. यह सब बहुत खटकता था. कितनी बार मैं इस बारे में अपने अब्बू से लड़ती थी. आगे मैं छात्रा प्रतिनिधि (एलआर) के रूप में कॉलेज की चुनाव में खड़ी हुई और जीत गई.’’

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शबाना बताती है, ‘‘उस समय केवल डीएड, एमए और बीएड जैसे कोर्स ही किए जाते थे, लेकिन मुझे उनमें कोई दिलचस्पी नहीं थी. उस समय स्पर्धा परीक्षाओं के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, लेकिन शिक्षा के प्रति मेरे अत्यधिक जुनून के कारण मैं जानकारी प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रही थी.

एमए का पहला वर्ष शुरू होते ही, मैंने स्पर्धा परीक्षाओं का अध्ययन शुरू कर दिया. मै कुछ अलग करना चाहती थी. इसलिए मैंने यह क्षेत्र चुना. घर और समाज लडकियों की पढाई को लेकर नकारात्मक दृष्टिकोण हुआ करता था. लेकिन हमारे अब्बा का दृष्टिकोण सकारात्मक था. हालांकि, घर का माहौल सपोर्टिव नहीं था और यह लगातार महसूस भी होता था.

इसलिए कहीं न कहीं ऐसा लगता था कि इन बंधनों को तोड़ना चाहिए. हम लड़कियां भी कुछ कम नहीं हैं. यह कहीं न कहीं दिखाना था. उस समय, अब जैसी आसानी से जानकारी उपलब्ध नहीं होती थी. मैं रोज अखबार पढती थी.

ये देखने की कही कोई विज्ञापन आया है या नहीं. परीक्षाओं के संबंध में मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए मेरी मेहनत रंग लाई और मेरी मुलाकात कैप्टन अविनाश कोल्हटकर सर से हुई. वे स्पर्धा परीक्षाओं की क्लास चलाते थे. उस समय पंद्रह पैसे का पोस्टकार्ड होता था. मैं जाहिरात के संबंध में या अध्ययन के संबंध में सर को पोस्टकार्ड भेजती थी.’’

बाद में सर ने शबाना को बहुत सहयोग किया. पत्र के जवाब में सर कहते थे कि, ‘‘शबाना, विज्ञापन आते ही मैं तुम्हें जरूर बताऊंगा.’’ और आखिरकार विज्ञापन आ गया और शबाना को सर का पत्र मिला.

शबाना यादों में खोते हुए कहती हैं, ‘‘मैंने अपने अब्बू से कहा था, मुझे आगे की पढ़ाई के लिए पुणे में रहना है. अब्बू बहुत गुस्सा हुए. मेरे शिक्षण का उन्हें कभी विरोध नहीं था, लेकिन मुझे घर से दूर रहना होगा, असुरक्षित महसूस हुआ होगा, इस चिंता के कारण वे गुस्सा हुए और इसलिए वे अनुमति नहीं दे रहे थे. अब्बू का मन मैं बदल रही थी, लेकिन वे कुछ तैयार नहीं हो रहे थे. हालांकि, मुझे अन्य लड़कियों की तरह न रहकर, ऐसा कुछ करना था, जिससे मेरे अब्बू को मुझ पे गर्व होगा. मैंने यह कदम उठाया तो अन्य कई लड़कियों की शिक्षा में बाधाएं कम हो जाएंगी, ऐसा भी मुझे लगता था.’’

दिन भर किताबों के साथ देखे गये सपने शबाना को रात को सोने नहीं देते थे. इसलिए आखिरकार शबाना ने अपने अब्बु से दृढ़ संकल्पपूर्वक फिर से कहा, ‘‘अब्बू, मुझे कुछ भी करके पढ़ना है, चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ आएँ.

आपने मुझे पढ़ने के लिए शहर नहीं भेजा, तो मैं यहाँ से चली जाऊँगी. अब तुम सोच लो... मैं जाऊंगी मतलब जाऊंगी, अब्बू!’’ शबाना की इन बातों से आखिरकार उनके पिताजी ने उन्हें पुणे में आगे की पढ़ाई के लिए भेजने की तैयारी कर ली. पुणे के एक दूर के रिश्तेदार के पास शबाना की रहने की व्यवस्था की गई. और कुछ दिनों बाद आखिरकार शबाना पुणे में आ गईं.

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पुणे में कैप्टन अविनाश कोल्हटकर सर की कोचिंग क्लास में शबाना जाने लगीं. शबाना कहती हैं, ‘‘मैंने कोल्हटकर सर को कभी नहीं देखा था, लेकिन मुझे हमेशा लगता था कि कोल्हटकर सर मुझे सपोर्ट करेंगे. कोल्हटकर सर पुणे के थे. वे सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद क्लासेस चला रहे थे.’’ शबाना ने सर के पास एक साल का क्लास किया.

शबाना  ग्रामीण क्षेत्र से आई थीं. शुरुवात में शहर के माहौल को देखकर वो घबरा जाती थीं. शहर में लड़के-लड़कियां एक-दूसरे से बात करते थे, साथ में खाना खाते थे. ऐसा करने में शबाना को बहुत संकोच होता था. वे मायूस हो जाती थीं.

मैदान में दौड़ते समय ट्रैकसूट पहनना होता था. हालांकि, शबाना ने इससे पहले कभी पैंट-शर्ट नहीं पहना था. सलवार-कमीज ही उनका हमेशा का पहनावा था. इसलिए वे रोज सलवार-कमीज ही पहनती थीं.

इसलिए सर उन्हें बहुत गुस्सा करते थे. उनका अच्छा करियर बने, ऐसा सर को भी लगता था. शबाना ने तय किया था कि, अगर, सर ज्यादा डाटेंगे या मारेंगे, तो उस दिन देखूँगी कि क्या करना है! सर रोज ट्रैकसूट के बारे में पूछते थे और शबाना बताती थीं, ‘‘सर, मैं ट्रैकसूट लाने को भूल गयी. मैं कल पहनूँगी.’’

शबाना रोज ट्रैकसूट साथ लेकर जाती थीं, लेकिन उसे पहनने में उन्हें शर्म आती थी, संकोच होता था. ‘टी-शर्ट और पैंट कैसे पहनें? और उस पे दुपट्टा भी नहीं लेना है?’, ऐसा सवाल उस समय उनके मन में उपस्थित होता था.

शबाना कहती हैं, ‘‘सर कहते थे, ‘ट्रैकपेंट पहनो, शॉर्ट्स पहनो... इससे तुम्हारे लेग्ज ओपन हो जाएंगे और तुम अच्छे से भाग सकोगी, लेकिन शबाना की हिम्मत नहीं होती थी. ग्राउंड की परीक्षा करीब आई. उस दिन मैंने ट्रैकसूट पहनने का फैसला किया. अपने घर के किसी भी सदस्य को इस बारे में नहीं बताया. क्योंकि, उन्हें  ट्रैकसूट पर भागना था.

अगर किसी को बताया होता, तो वे ग्राउंड पर आ गए होते और मेरा कॉन्फिडेंस कम हो गया होता. हर चीज करते समय सोचना पड़ता था. मुझे कोई देखेगा और क्या कहेगा?

उसके बाद शबाना की लिखित परीक्षा हुई. नतीजे आने में बहुत समय था, लेकिन, गांव जाने की शबाना की बिल्कुल इच्छा नहीं थी. वे कहती हैं, ‘‘क्योंकि, गांव में कई लोगों को पता चल गया था कि, शबाना अधिकारी बनने के लिए पुणे गई है. अगर गांव गई, तो लोग उस संदर्भ में पूछेंगे. इसलिए रिजल्ट आने तक मैं पुणे में ही रुकी रही.

फिर एक दिन घर से फोन आया और मुझे गांव जाना पड़ा, लेकिन मैं घर के बाहर नहीं निकलती थी. एक दिन सुबह आठ बजे के दरमियान मेरे लिए एक फोन आया. उधर से कोल्हटकर सर बोल रहे थे. उन्होंने कहा, ‘शबाना, तेरा पीएसआई पद के लिए चयन हो गया है!’ यह सुनते ही मेरे खुशी का ठिकाना नहीं रहा. मैं खुशी से बिल्कुल पागल हो गई.

घर में जश्न शुरू हो गया. ‘जिले की पहली (मुस्लिम) महिला पुलिस-अधिकारी’ के रूप में मेरे फोटो अखबार में छप गए. मेरी पढ़ाई का विरोध करने वालों ने भी मेरा सम्मान किया. मेरी छोटी बहनों ने पटाखे फोड़कर जश्न मनाया.’’

पुलिस उपअधीक्षक पद के लिए एमपीएससी परीक्षा में शबाना पात्र नहीं हुईं. लेकिन, निराश न होकर पहले ही प्रयास में उपनिरीक्षक पद की परीक्षा वे उत्तीर्ण हुईं. प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने एमए और फिर एलएलबी पूरा किया.

सन 1992 में ‘महाराष्ट्र पोलिस’ में शबाना शामिल हुईं. आगे उनकी छोटी बहन 1995 में पुलिस में भर्ती हुई. तो, दूसरी बहन शिक्षिका बनी. गांव की और जिले की मुस्लिम लड़कियां खास कर सरकारी नौकरियों में पीछे रहती हैं. वे इस ‘मिथक’ को तोड़ने में वो कामयाब हुईं.

पुलिस विभाग में शबाना की सेवा को अब 30 साल पूरे हो चुके हैं. इन 30 सालों के सेवाकाल में उन्होंने कई केसेस संभाले हैं. शबाना की दो बेटियां हैं. शबाना के पति डॉयश बैंक में उपाध्यक्ष हैं. उनकी एक बेटी ने एमबीए पूरा किया है और वह वर्तमान में विदेश में रहती है. दूसरी बेटी बारहवीं में है.

पूरे करियर में मानसिक रूप से चुनौतीपूर्ण केस कौन सा था?’ यह पूछने पर शबाना कहती हैं, ‘‘मेरी कभी भी मानसिक दुर्बलता नहीं रही. मैंने तय किया हुआ था कि कोई भी केस हो, हमें ईमानदारी से काम करना ही है. फिर कोई भी प्रेशर हो या कुछ भी हो. जो काम करना है उस को करना है.

हमें जो काम करना है, वह लीगल करना है. मैं यहां लोगों को मार्गदर्शन करते हुए भी यही कहती हूं, ‘आप किसी के भी अवैध आदेशों का पालन न करें. आपके वरिष्ठ होंगे या अन्य कोई होगा, तो भी उनसे लीगल अनुमति मिलने पर ही काम करें.’ इसलिए, किसी भी केस में मुझे कभी परेशानी हुई है, ऐसा मुझे कभी नहीं लगा.’’

अब तक संभाले गए सबसे बड़े केस के बारे में बात करते हुए शबाना कहती हैं, ‘‘मैं नागपाड़ा पुलिस स्टेशन में पीआई थी. वहां मुझे दिए गए दो केसेस में आरोपी को दस साल की सजा हुई. तीसरे केस में एक साल और आठ महीने सजा दी गई.

कुछ केसेस में तो आरोपी बाहर ही नहीं आए. जो अंदर गए, उन्हें जमानत भी नहीं मिली. फर्ज निभाते वक्त कभी-कभी सामाजिक, राजनीतिक दबाव होता है, लेकिन, उस समय डिप्लोमैटिकली और टैक्टफुली केस हैंडल करने पड़ते हैं. ऐसे समय में जो कानूनी है वही काम मैं करती हूं.’’

आज कई युवाओं को शबाना मार्गदर्शन कर रही हैं. डोंगरी में रुजू होने के बाद क्या मुश्किलें आईं, जब उनसे पूछा जाता है, तो वे कहती हैं, “डोंगरी में विभिन्न जाति, धर्म के लोग रहते है. डोंगरी का इलाका लोगों को सांप्रदायिक लगता है, लेकिन यहां के लोगों से संवाद किया जाए, तो वे व्यवस्थित सहयोग करते हैं.

उमरखाडी एक हिंदू क्षेत्र है, पालागल्ली, चार्णाल, दरगाह गली में मुस्लिम अधिक संख्या में हैं. लाल चाळ नाम के क्षेत्र में बौद्ध लोग रहते हैं. मैं हमेशा इन क्षेत्रों में जाती हूं. वहां के लोगों से संवाद करना मुझे पसंद है. अच्छा लगता है. वहां के हर व्यक्ति के पास मेरा मोबाइल नंबर है. वे कभी भी किसी भी परेशानी के मामले में मुझे संपर्क कर सकते हैं.

मैंने इस क्षेत्र में आने के बाद शुरू में ड्रग्स के बारे में कई कार्यवाही की. अब आसपास के लोगों में चर्चा होती है कि, ‘शबाना ताई को मालूम हुआ, तो छुट्टी नहीं!’ मुझे यहां से ड्रग्स का नामोनिशाँं मिटाना है. पूरे मुंबई में फरवरी 2021 में ड्रग्स कि सबसे बड़ा केस पकड़ा था. 25 किलो एमडी ड्रग्स था. कीमत थी साढ़े बारह करोड़ रुपये.“

वो कहती है, ‘‘आरोपी किसी भी जाति या धर्म का हो, उसने अपराध किया है, तो, उसे सजा दी जाएगी, ऐसा देखे बिना मैं उसे नहीं छोड़ती. पुलिस की कोई जाति नहीं होती. पुलिस ही हमारी जाति है. अब तक मुझे कभी भी किसी की धमकियां नहीं आई हैं.’’

शबाना कहती हैं, ‘‘मुस्लिम समाज में लड़कियों की शिक्षा के प्रमाण बहुत कम है. उन्हें भी शिक्षा के लिए आगे बढ़ना चाहिए. उनके माता-पिता को भी उन्हें सपोर्ट करना चाहिए. किसी पर भी निर्भर न रहकर सभी अनावश्यक दायरे तोड़कर महिलाओं को बाहर निकलना चाहिए.’’

डोंगरी में पढने के लिए आये हुए 28 वर्षीय आमिर काझी ने शबाना के काम के बारे में बताया, ‘‘डोंगरी के सब भाई शबाना ताई से डरते हैं...!’’ लेकिन, बाहर कुछ भी ‘धांसू टाइप इमेज’ हो, शबाना एक माँ के रूप में अपने परिवार के प्रति संवेदनशील हैं.

इस बारे में वह कहती हैं, ‘‘मानसिक और शारीरिक रूप से हमें तंदूरुस्त रहना चाहिए, ताकि काम में भी मन लगे. यह मेरा खुद का लॉजिक है! इसलिए, मैं अपने परिवार के लोगो के खानपान पर ध्यान देती हूं. मेरे बच्चों और पति के लिए मैं खुद ही खाना बनाती हूं.’’

कई सीमाएं तोड़ने वाली शबाना की ये कहानी बेहद प्रेरणादायक हैं. बात करते समय उनके चेहरे पर मुस्कान और आंखों में जीत की झलक दिखाई देती है. उनसे बात करने पर उनकी सकारात्मक ऊर्जा हमारे शरीर में भी तरंगित होने लगती है. उनके काम की सरहाना करते हुए उन्हें अब प्रमोशन मिल गया है और अब वो सहायक पुलीस आयुक्त के रूप में सीआईडी में अपना फर्ज अदा कर रही हैं.