कर्बला का संदेश: अन्याय के खिलाफ खड़ा होना ही सच्चा इस्लाम है

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 25-07-2025
Message of Karbala: Standing up against injustice is true Islam
Message of Karbala: Standing up against injustice is true Islam

 

इमान सकीना

इस्लामी इतिहास का वह क्षण जब इमाम हुसैन इब्न अली (अ.स.), पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) के नवासे, कर्बला की तपती रेत पर अपने परिजनों और साथियों सहित शहीद हुए — वह केवल एक पारिवारिक या राजनीतिक त्रासदी नहीं थी, बल्कि यह इस्लाम की आत्मा को बचाने वाला ऐतिहासिक मोड़ था. इमाम हुसैन की यह शहादत एक ऐसा अमर अध्याय है जो आज भी मुसलमानों के लिए नैतिक साहस, ईमानदारी और सच्चाई के लिए खड़े होने की मिसाल बना हुआ है.

पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) की वफ़ात के बाद इस्लामी नेतृत्व धीरे-धीरे उस मार्ग से विचलित होने लगा जिसकी नींव न्याय, परामर्श और आध्यात्मिकता पर रखी गई थी. जब मुआविया इब्न अबी सुफयान ने उमय्यद वंश की स्थापना की और अपने पुत्र यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, तो इस्लामी शासन व्यवस्था एक राजशाही के रूप में परिवर्तित होती दिखी.

यज़ीद की ताजपोशी न केवल इस्लामी सिद्धांतों का उल्लंघन थी, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति को सत्ता देना था, जिसकी जीवनशैली इस्लाम के मूल्यों से सीधी टकराहट में थी. वह खुलकर पापों में लिप्त था, धार्मिक विधानों का उपहास करता था और अपने शासनकाल में इस्लामी नैतिकता को रौंद रहा था.

ऐसे में जब यज़ीद ने इमाम हुसैन से अपनी वैधता के लिए बयअत (वफ़ादारी) की मांग की, तो हुसैन ने स्पष्ट शब्दों में इंकार कर दिया. उन्होंने कहा, "मेरे जैसा आदमी, यज़ीद जैसे आदमी की बयअत नहीं कर सकता।" यह केवल एक व्यक्तिगत असहमति नहीं थी, बल्कि इस्लाम के नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा का संकल्प था.

उन्होंने महसूस किया कि यदि वे यज़ीद की बयअत कर लेते, तो यह अत्याचारी शासन को इस्लाम के नाम पर वैधता देने जैसा होता — और यही वह क्षण था जब उन्होंने कर्बला की ओर अपने कदम बढ़ाए.

मदीना से निकले इमाम हुसैन अपने परिवार और कुछ साथियों के साथ कूफ़ा की ओर बढ़े, जहाँ के लोगों ने उन्हें समर्थन का वादा किया था. लेकिन जब वे कर्बला पहुँचे, तब तक यज़ीद की फौजें कूफ़ा को आतंकित कर चुकी थीं। कर्बला के तपते मैदान में, दस मुहर्रम 61 हिजरी (680 ई.) को, यज़ीद की विशाल सेना ने इमाम हुसैन और उनके केवल 72 साथियों — जिनमें महिलाएं, बच्चे और बुज़ुर्ग भी थे — को घेर लिया.

उन्हें पीने का पानी तक नहीं दिया गया. लेकिन इन असहनीय परिस्थितियों में भी हुसैन ने आत्मसमर्पण नहीं किया.उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि उनका मक़सद सत्ता या प्रभुत्व नहीं, बल्कि अपने नाना के इस्लाम को ज़िंदा रखना है.

उन्होंने घोषणा की: "मैं न तो बग़ावत के लिए उठा हूँ, न फसाद के लिए. मैं केवल उम्मत की इस्लाह के लिए, अच्छाई का हुक्म देने और बुराई से रोकने के लिए उठा हूँ." यह घोषणापत्र इस्लामी इतिहास की नैतिक चेतना का स्थायी स्तंभ बन गया.

कर्बला में हुसैन और उनके साथियों ने जो बलिदान दिया, वह केवल तलवारों और तीरों का युद्ध नहीं था — वह सत्य और असत्य के बीच खींची गई सबसे स्पष्ट रेखा थी. जब पानी से वंचित अब्बास (अ.स.) ने फरात नदी से लौटते हुए अपने होंठ तर नहीं किए, जब हुसैन का छह महीने का बेटा अली असगर प्यास से तड़पते हुए गोद में शहीद हो गया, और जब ज़ैनब (स.अ.) ने कैद में भी अपने हौसले को नहीं टूटने दिया — तब दुनिया ने देखा कि इस्लाम केवल किताबों में नहीं, बल्कि इन असाधारण लोगों के जज़्बे में ज़िंदा है.

हुसैन की शहादत यज़ीद की "जीत" पर भारी पड़ गई. यह बलिदान एक आग की तरह फैला, जिसने पूरे इस्लामी समाज को झकझोर दिया. मदीना में यज़ीद के खिलाफ विद्रोह हुआ, कूफ़ा में तव्वाबीन आंदोलन शुरू हुआ — वो लोग जो हुसैन का साथ न दे पाने के अपराधबोध से व्याकुल .इन आंदोलनों ने इस्लाम की आत्मा को पुनर्जीवित किया और बताया कि कर्बला केवल एक घटना नहीं थी, बल्कि एक चेतना थी, एक आंदोलन था.

इमाम हुसैन ने इस्लाम को किन-किन तरीकों से बचाया?

सबसे पहले, उन्होंने इस्लाम की मूल शिक्षाओं — न्याय, सत्य, करुणा और प्रतिरोध — को पुनः परिभाषित किया. यज़ीद जैसे शासक के सामने झुकने से इनकार करके उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि इस्लाम सत्ता का नहीं, सिद्धांतों का धर्म है.

दूसरा, उन्होंने उत्पीड़न के विरुद्ध खड़े होने का आदर्श स्थापित किया. उनकी शहादत ने यह सिखाया कि भले ही संसाधन कम हों, संख्या में आप छोटे हों, लेकिन सत्य के लिए डटे रहना ही सबसे बड़ी ताक़त है.

तीसरा, कर्बला ने पूरे इस्लामी जगत को नैतिक रूप से पुनः जागृत किया. आशूरा की स्मृतियाँ हर वर्ष मुसलमानों को यह याद दिलाती हैं कि धर्म केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि हिम्मत और हक़ के लिए खड़े होने की ज़िम्मेदारी भी है.

चौथा, कर्बला ने दलितों और उत्पीड़ितों को आवाज़ दी. जब एक छोटे से जत्थे ने एक सम्राट की फौज को नैतिक रूप से परास्त कर दिया, तो यह संघर्ष दुनिया भर के मज़लूमों के लिए मशाल बन गया.

पाँचवाँ और सबसे महत्वपूर्ण, इमाम हुसैन ने पैगंबर की विरासत को मिटने से बचा लिया. उनकी शहादत ने वह चिंगारी पैदा की जिससे इस्लाम के सच्चे मूल्य फिर से चमक उठे.

आज भी जब दुनिया नैतिक भ्रम, राजनीतिक उत्पीड़न और आध्यात्मिक खोखलेपन से जूझ रही है, तब इमाम हुसैन की मिसाल एक उजाला बनकर सामने आती है. उनका

बलिदान केवल अतीत का इतिहास नहीं, बल्कि वर्तमान का मार्गदर्शन है. उन्होंने बताया कि जब दुनिया चुप हो जाए, तब बोलने की हिम्मत रखो. जब लोग झुक जाएं, तब खड़े रहो। जब सब चुपचाप तमाशा देखें, तब तुम एक नई इबारत लिखो.

इसलिए आज भी हर आशूरा पर यह गूंजता है:"इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद."
और इस्लाम को ज़िंदा रखने वाला नाम है — हुसैन !