समीर शेख
साल था 2003. फरवरी का पहला दिन था. भारतीय मूल की अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला अपने छह साथियों के साथ अंतरिक्ष से धरती पर लौटने वाली थीं. वह अंतरिक्ष में जाने वाली पहली भारतीय महिला थीं. उसकी पृथ्वी की यात्रा शुरू हो चुकी थी. अचानक उसके अंतरिक्ष यान में आग लग गई. हादसे में कल्पना और उनके साथियों की मौत हो गई. महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव बारामती की 11 साल की करिश्मा ये सब टीवी पर देख रही थी.

यह पहली बार था जब नन्हीं करिश्मा को एहसास हुआ कि 'हम अंतरिक्ष में जा सकते हैं.' उन्होंने मन बना लिया कि वह भी कल्पना चावला की तरह अंतरिक्ष यात्री बनेंगी और आसमान छूएंगी. करिश्मा कहती हैं, ''कल्पना चावला की इस हादसे में मौत हो गई. लेकिन उन्होंने मुझे और मेरे जैसी लाखों लड़कियों को अंतरिक्ष यात्री बनने का सपना दिया. इस घटना के बाद मुझ पर अंतरिक्ष यात्री बनने का जुनून सवार हो गया.”
करिश्मा को बचपन से ही चांद से आकर्षण था क्योंकि ईद के आने की जानकारी चांद के दीदार पर ही निर्भर करती है. अब उसके पास चाँद तक पहुँचने का रास्ता था. वह कहती हैं, ''मैंने सबसे पहले अपने अब्बू को अंतरिक्ष यात्री बनने के अपने सपने के बारे में बताया. मैंने इससे जुड़ी जानकारी जुटानी शुरू कर दी. मेरे माता-पिता इसी सिलसिले में मुझे कुछ न कुछ पढ़ने के लिए लाते रहते थे.
उस समय बारामती में 'एस्ट्रोनॉट्स क्लब' जैसी कोई चीज़ नहीं थी. मुझे पता चला कि पुणे में 'द इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (IUCAA)' जैसी एक संस्था है जो अंतरिक्ष के संबंध में संशोधन करती है. इसलिए मैंने अपने माता-पिता के साथ पुणे जाने की जिद की.”
शाहरुख खान अपनी फिल्म 'ओम शांति ओम' में कहते हैं, 'तुम किसी चीज को अगर शिद्दत से चाहो, तो सारी कायनात तुम्हें हमसे मिलाने में लग जाती है) करिश्मा भी शिद्दत से अंतरिक्ष यात्री बनने का सपना देख रही थीं. और करिश्मा के साथ एक करिश्मा हुआ.
बारामती स्थित विद्या प्रतिष्ठान संस्थान में पांच दिवसीय व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया. इस लेक्चर सीरीज के जरिए देशभर के विशेषज्ञ छात्रों से बातचीत करने वाले थे. अब्बू ने करिश्मा को बताया कि वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. जयंत नार्लिकर इस मदरसे में आ रहे हैं. करिश्मा को यकीन ही नहीं हुआ. करिश्मा डॉ. नार्लिकर से मिलकर उनसे ढेर सारे सवाल पूछना चाहती थीं.
लेक्चर वाले दिन करिश्मा अपने माता-पिता के साथ कार्यक्रम में आईं. वह बहुत उत्साहित थी. जिस शख्स के लिए वह पुणे जाना चाहती थी वह खुद उसके गांव आया था. व्याख्यान समाप्त हुआ और श्रोताओं ने डॉ. नार्लिकर को घेर लिया.
छोटी करिश्मा को एक तरफ धकेल दिया गया. वह बड़ों के घेरे में प्रवेश नहीं कर सकती थी. इस घटना को याद करते हुए वह कहती हैं, "मैं बहुत छोटी थी. डॉ. नार्लिकर बुजुर्गों से घिरे हुए थे. उन्हें पार कर डॉ. नार्लिकर तक पहुंचना संभव नहीं था. मैं थोड़ा निराश होकर एक तरफ खड़ी हो गई. डॉ. नार्लिकर जाने लगे, इसी बीच उनकी नजर मेरे ऊपर गिर पड़ी, मैंने उन्हें अपना हाथ दिखाया. वह रुके और बोले , 'अगर आपके मन में कोई सवाल है, तो उसे एक कागज के टुकड़े पर लिख लें और नीचे अपना पता लिखकर मुझे दे दें.''
करिश्मा आगे कहती हैं, ''मैंने तुरंत पापा से पेन और कागज लिया और अपने पते के साथ 'ब्लैक होल' के बारे में एक प्रश्न लिखा और पत्र डॉ. नार्लीकर को सौंप दिया. मैंने कभी नहीं सोचा था कि इतना बड़ा वैज्ञानिक मुझ जैसी छोटी लड़की का पत्र अपने साथ पुणे ले जायेगा. दो-तीन महीने बीत गए. मैंने मान लिया था कि डॉ. नार्लिकर भूल गये होंगे.
लेकिन दिल में एक उम्मीद भी थी. और एक दिन अचानक मेरे घर के पते पर मेरे नाम एक पत्र आया. पत्र डॉ. नार्लिकर का था. मैं सातवें आसमान पर था. उन्होंने ब्लैक होल के बारे में मेरे प्रश्न का विस्तार से उत्तर दिया। लेकिन उस पत्र में कुछ और भी था जो बहुत महत्वपूर्ण था.
यही उनकी सलाह और मार्गदर्शन था. उन्होंने मुझे मेरे पसंदीदा विषय से संबंधित मेरी जिज्ञासा को कैसे संतुष्ट किया जाए इसके बारे में कुछ सलाह दी. उस समय गूगल नया था. उन्होंने मुझे बताया कि मैं अंतरिक्ष के बारे में अधिक जानकारी इकट्ठा करने के लिए Google का उपयोग कैसे कर सकता हूं. डॉ. नार्लीकर के उस पत्र से मैं पूरी तरह अभिभूत हो गया. उनके पत्र ने मुझे स्पष्ट दिशा दी और मेरा आत्मविश्वास भी बढ़ाया. अब मैंने इस दिशा में आगे बढ़ने का फैसला किया है.”
करिश्मा के छोटे से परिवार में माता, पिता और एक भाई और एक बहन हैं. वह भाई-बहनों में सबसे बड़ी हैं. उनकी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा मराठी माध्यम से हुई. बाद में उन्होंने 'इलेक्ट्रॉनिक्स एंड टेली कम्युनिकेशन' से इंजीनियरिंग पूरी की. वह सिर्फ परीक्षा में अंक लाने के लिए पढ़ाई करने को तैयार नहीं थी. उनमें ज्ञान प्राप्त करने और उसे लागू करने की प्रवृत्ति थी. करिश्मा में एक रिसर्चर के सारे गुण थे.
डॉ. अम्बेडकर अपने एक लेख में कहते हैं, 'अध्ययन में आपको संकीर्ण मानसिकता का होना चाहिए' जिसका अर्थ है कि शोध करते समय आपको एक छोटी सी बात पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और उसकी जड़ तक जाना चाहिए. करिश्मा ने बिल्कुल वैसा ही किया. वह अपने बचपन के सपने की ओर बढ़ने के लिए बहुत योजनाबद्ध और सुसंगत तरीके से कदम उठा रही थी.
उन्होंने आईआईटी खड़गपुर में आयोजित स्पेस चैलेंज प्रतियोगिता पर कड़ी नजर रखी. वह कहती हैं, ''इस प्रतियोगिता में कई शोधकर्ता और वैज्ञानिक अपने शोध पत्र प्रस्तुत करते थे. इसमें उनकी ईमेल आईडी थीं. मैं उन ईमेल आईडी को लिखता था और इन शोधकर्ताओं से अपने प्रश्न पूछता था.
लेकिन मैंने गोलमोल सवाल नहीं पूछे. मुझे अंदाज़ा था कि शोधकर्ता ऐसे सवालों का जवाब नहीं देते, जैसे 'अंतरिक्ष यात्री बनने के लिए मुझे क्या करना होगा?' इसलिए मेरा प्रश्न बहुत विशिष्ट था. मुझे 'स्पेस जंक' के बारे में पढ़ना और समाधान ढूंढना अच्छा लगा. इसलिए मैं इसके बारे में प्रश्न पूछूंगा. ये शोधकर्ता मेरे प्रश्नों का उत्तर भी बहुत विस्तार से देते थे. इस बातचीत से मुझे अनोखा ज्ञान प्राप्त हुआ.”
करिश्मा ने इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में आईआईटी खड़गपुर में अपना शोध प्रबंध प्रस्तुत किया. इसके बाद उन्होंने अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए समर्पित फ्रांस की प्रतिष्ठित 'इंटरनेशनल स्पेस यूनिवर्सिटी' में फ़ेलोशिप के लिए आवेदन किया. इंजीनियरिंग के अपने आखिरी सेमेस्टर के दौरान, वह इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से फेलोशिप हासिल करने में सफल रहीं. फ्रेंच यूनिवर्सिटी ने उन्हें मास्टर्स के लिए चुना था.
करिश्मा कभी भी बारामती जैसे गांव से बाहर नहीं गई थीं. उसे डर था कि क्या उसका परिवार उसे उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजेगा? अगर वे तैयार भी हैं तो उन्हें यात्रा और फीस के लिए बड़ी रकम जुटानी होगी. मध्यम वर्गीय इनामदार परिवार के लिए यह एक बड़ी चुनौती थी.
लड़कियों के लिए बाधाएँ उनके सपनों जितनी बड़ी होती हैं. लड़की के माता-पिता पर रिश्तेदारों और समाज का बहुत दबाव होता है. जाहिर तौर पर करिश्मा और उनके माता-पिता पर भी दबाव था. 'करिश्मा अब इंजीनियर बन गई हैं. उसे शादी कर लेनी चाहिए, घर बसाना चाहिए और फिर एक आरामदायक नौकरी करनी चाहिए.' बाहर होने वाली चर्चा चुपचाप घर पर भी होने लगी.
करिश्मा ने बचपन से जो सपना देखा था उसे पूरा करने का एक बड़ा मौका इंतज़ार कर रहा था. वह इसे जाने नहीं देना चाहती थी. उसने घर पर अपने पिता को एक पत्र लिखा. जिसमें उन्होंने लिखा, 'मुझे उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाने दीजिए.
मेरे बचपन का सपना सच हो जाए. ये सपना सिर्फ मैंने ही नहीं बल्कि हम सभी ने देखा था. आपके समर्थन के कारण ही मैं यह सफलता हासिल कर पाया हूं.' मेरा सपना सच होने वाला है, इस बार भी आप मेरे साथ खड़े हैं.' जब मैं विदेश से अपनी पढ़ाई पूरी करके वापस आऊंगी तो आप जो भी लड़का बताएंगी, मैं बिना उसका चेहरा देखे उससे शादी कर लूंगी!'
अब्बू मान गये, अम्मी को मनाना आसान नहीं था. करिश्मा कहती हैं, ''मैं अपनी मां के सामने जाकर बैठ गई. मैंने उसे एहसास दिलाया कि हमारे पास निर्णय लेने के लिए बहुत कम समय बचा है. मैं बहुत भावुक हो गया. मैं तीन घंटे तक अपनी मां के सामने बैठकर रोती रही और उन्हें समझाती रही.' आख़िरकार उसका हृदय भी पिघल गया. उन दोनों को समझाने में मुझे दो महीने लग गए लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी.'
मां-पापा तो मान गए, लेकिन करिश्मा के सामने अभी और भी मुश्किलें थीं. हालाँकि उन्हें फ़्रांस के एक विश्वविद्यालय में मास्टर फ़ेलोशिप मिली, लेकिन यह केवल आंशिक थी. इसलिए उसे जाने से पहले बड़ी रकम इकट्ठी करनी पड़ी.
इस मध्यम वर्गीय परिवार के पास इतने पैसे नहीं थे. करिश्मा के पिता सल्लाहुद्दीन इनामदार, जो प्राइवेट कॉलेज में सीनियर क्लर्क थे, ने अपनी बेटी के सपनों को पूरा करने के लिए एक बड़ा फैसला लिया. उनके पास दो गुंठा (करीब 2100 वर्ग फुट) जमीन का एक टुकड़ा था.
पैसे जुटाने के लिए उन्होंने यह जमीन बेच दी. लेकिन फिर भी एक बड़ी रकम जुटाने की जरूरत थी. करिश्मा कहती हैं, ''प्लॉट बेचने के बाद भी अपेक्षित रकम नहीं मिली. इसलिए हम चिंतित थे. यह जानकारी बारामती सांसद सुप्रिया सुले और शरद पवार को मिली. शरद पवारजी ने पहल की और मुझे वित्तीय सहायता प्रदान की.
करिश्मा को हमेशा से इस बात का एहसास था कि विदेश जाने के लिए पैसे बड़ी मेहनत से जुटाए गए हैं. वह कहती हैं, ''जब मैं फ्रांस गई तो मुझे हर पल ये चीजें महसूस होती रहीं. मैं जरूरी चीजें खरीदते समय भी पैसे बचाने की कोशिश करता था.' मैंने हमेशा खुद से कहा कि मुझे बहुत मेहनत करनी है.
'इंटरनेशनल स्पेस यूनिवर्सिटी' से मास्टर्स कर रहीं करिश्मा को विश्व प्रसिद्ध अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन 'नासा' में रिसर्च असिस्टेंट के तौर पर काम करने का मौका मिला. इस बारे में वह कहती हैं, "मेरे पास एक ही समय में दो बड़े ऑफर आए थे.
एक नासा और दूसरा जर्मनी की अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी डीएलआर. डीएलआर को अंतरिक्ष अनुसंधान में एक बहुत प्रतिष्ठित संस्थान माना जाता है. मैंने दोनों प्रस्तावों को देखा और डीएलआर में शामिल होने का फैसला किया."
मेरे मित्र मेरे निर्णय से आश्चर्यचकित थे. उनकी राय थी कि मुझे नासा में शामिल होने का अवसर नहीं खोना चाहिए. लेकिन मैं जिस विषय पर शोध करना चाहता था उसका दायरा 'डीएलआर' में अधिक था. इसलिए सबसे पहले मैंने नासा के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया. लेकिन मेरे विश्वविद्यालय द्वारा डीएलआर में दस्तावेज़ जमा करने में देरी के कारण मुझे वहां प्रवेश नहीं मिल सका और मुझे नासा में शामिल होना पड़ा.
नासा में रिसर्च असिस्टेंट के तौर पर शामिल हुईं करिश्मा के लिए एक नई दुनिया खुल गई. उन्हें ऐसे लोगों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर शोध करने का मौका मिला जिनके नाम उन्होंने अब तक सिर्फ किताबों में ही पढ़े थे. इस अनुभव के बारे में बात करते हुए वह कहती हैं, ''मेरे सीनियर्स ने मुझे कभी एहसास नहीं होने दिया कि मैं नई हूं और अभी भी सीख रही हूं. वे हर शोध के दौरान मुझसे मेरी राय पूछते थे. इससे मुझे काफी आत्मविश्वास मिला।”
करिश्मा अब 'स्पेस रोबोटिस्ट' के तौर पर काम कर रही हैं. अपने अब तक के सफर के बारे में बात करते हुए वह कहती हैं, ''जैसे ही मैंने शोध करना शुरू किया, मुझे एहसास हुआ कि यह तो बस शुरुआत है और 'आसमान की भी कोई सीमा नहीं है.' फिल्मी भाषा में कहें तो 'ये तो ट्रेलर है, पिक्चर अभी बाकी है...' मैं अंतरिक्ष यात्री बनने का अपना सपना पूरा करना चाहता हूं.
उस दिशा में मेरा प्रयास जारी है. मैंने एक अंतरिक्ष यात्री के लिए आवश्यक पायलट प्रशिक्षण पूरा कर लिया है। अगले दो-तीन साल मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं.' उसके बाद, इंशाअल्लाह, अंतरिक्ष यात्री बनने का मेरा बचपन का सपना सच हो जाएगा.”
करिश्मा का मानना है कि उनकी सफलता में उनके माता-पिता का अहम योगदान है. उनके पिता सलाउद्दीन इनामदार कहते हैं, ''करिश्मा ने सातवीं-आठवीं कक्षा से ही अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया था. वह बहुत ईमानदारी से काम कर रही थी. हम माता-पिता इसके गवाह हैं.
इसलिए हम उसके सपने को साकार करने के लिए सब कुछ जोखिम में डालने के लिए तैयार थे. जब वह पुणे आने की जिद करती थी तो मैं उसे पुणे ले जाता था. पुणे के आजम कैंपस में विज्ञान प्रदर्शनी होती थी, मैं उसे वहां ले जाता था. करिश्मा की सफलता में उनकी मां का भी बड़ा योगदान है. उन्होंने करिश्मा की हर जरूरत को पूरा करने की पूरी कोशिश की.''
कल्पना चावला से अंतरिक्ष यात्री बनने की प्रेरणा लेने वाली करिश्मा अब खुद कई लोगों के लिए प्रेरणा बन गई हैं. जब वह अपने गांव बारामती आती है तो बच्चों और युवाओं से घिरी रहती है. वह वहां हजारों छात्रों का मार्गदर्शन करती हैं. अपने अनुभव के बारे में बात करते हुए वह कहती हैं, ''जैसे ही उन्हें पता चलता है कि मैं गांव आई हूं, बहुत से लोग मुझसे मिलने आते हैं. जिसमें लड़कियां ज्यादा हैं. जब वे कहते हैं, 'मैं आपकी तरह एक शोधकर्ता बनना चाहता हूं', तो उनकी आंखों की चमक मुझे खुश और आश्वस्त करती है. मैं उनकी पसंदीदा दीदी हूं.' मैं कोई बड़ा शोधकर्ता नहीं हूं, लेकिन जब भी मौका मिलता है, नई पीढ़ी को कुछ मार्गदर्शन देने का प्रयास करती हूं.
उनकी जिज्ञासा तो बनी रहेगी, लेकिन मैं उनके लिए आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास करती हूं. बच्चों का मन दुनिया को जिज्ञासा से देखता है. वे कई चीजों के बारे में जानना चाहते हैं. लेकिन अक्सर उन्हें उचित मार्गदर्शन नहीं मिल पाता. इससे उनके हृदय में मौजूद ज्ञान की चिंगारी बुझ जाती है. लेकिन अगर सही समय पर सही मार्गदर्शन मिले तो यह चिंगारी धधकती ज्वाला में बदल सकती है. इसलिए कम उम्र में ही उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है. मैं आज जो कुछ भी हूं अपने गुरुओं की वजह से हूं.”
करिश्मा सिर्फ राय देने तक ही नहीं रुकीं. उन्होंने अंतरिक्ष के प्रति उत्सुक भारत की नई पीढ़ी के लिए 'ऑनलाइन स्पेस प्रोग्राम' शुरू किया. उन्होंने अपने कुछ शोध सहयोगियों के साथ मिलकर 'द नेक्स्ट स्पेस जेनरेशन' पहल शुरू की है.
इस गतिविधि के बारे में वह कहती हैं, ''विदेश में ऐसे कई संगठन और गतिविधियां हैं जो अंतरिक्ष के बारे में बच्चों की जिज्ञासा को बढ़ावा देते हैं, उन्हें कम उम्र से ही मार्गदर्शन और प्रोत्साहित करते हैं. लेकिन भारत में ऐसी गतिविधियों का अभाव है.
इस कारण से, हमने 'द नेक्स्ट स्पेस जेनरेशन' प्रोग्राम बनाया. इसकी एक बाकायदा वेबसाइट भी है. इसके जरिए हम बच्चों को अंतरिक्ष के बारे में जानकारी देते हैं. हमने उन्हें अंतरिक्ष अन्वेषण के संबंध में विभिन्न गतिविधियाँ दीं. सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में ली जा रही हमारी इस पहल को देशभर के लड़के-लड़कियों से बेहतरीन प्रतिक्रिया मिल रही है.”
बारामती की एक लड़की अपने सपनों को लेकर अमेरिका में अंतरिक्ष शोधकर्ता के रूप में काम कर रही है, यह सभी के लिए गर्व और प्रेरणा की बात है. कई लोगों का मानना है कि मुस्लिम समुदाय पृष्ठभूमि से आने वाली करिश्मा को इस यात्रा के दौरान घर या समाज के विरोध का सामना करना पड़ा होगा.
इस पर करिश्मा की राय अहम और बेबाक है. वह कहती हैं, ''मुस्लिम समुदाय की एक रूढ़िवादी छवि बनाई गई है. अक्सर लोग सोचते हैं कि एक मुस्लिम लड़की घर में कैद है. हम सभी को इस रूढ़िवादी मानसिकता से बाहर निकलने की जरूरत है. मैं एक धार्मिक मुस्लिम पारिवारिक पृष्ठभूमि से आता हूं. मैं स्वयं धार्मिक हूं. मैंने और मेरे परिवार ने धर्म का गहन अध्ययन किया है.
इस्लाम का आदेश है कि 'अगर आपको शिक्षा प्राप्त करने के लिए चीन भी जाना पड़े, तो जाएं.' मेरे परिवार को लगा कि उनकी बेटी को उच्च शिक्षा प्राप्त करने से रोकना अपराध है. इसलिए मुझे लगता है कि शायद उसके धार्मिक होने से मेरी राह आसान हो गई.”
इस बारे में करिश्मा के पिता कहते हैं, "हमने कभी लड़के-लड़कियों में फर्क नहीं किया. मेरा धर्म भेदभाव को रोकता है. बल्कि यह हमें बच्चों को अच्छा ज्ञान देने का आदेश देता है. इसलिए हमने तीनों बच्चों को अच्छी परवरिश देने की कोशिश की." करिश्मा के दो भाई-बहनों में से बहन बेनजीर भी उच्च शिक्षित हैं. उन्होंने एमई (इंजीनियरिंग में मास्टर्स) किया है और पुणे में काम करती हैं. जबकि भाई जमीर ग्रेजुएशन कर रहे हैं.
लड़कियों की शिक्षा के बारे में पूछे जाने पर करिश्मा कहती हैं, ''लड़की चाहे किसी भी धर्म की हो, उसके सामने चुनौतियां एक जैसी ही होती हैं. इसलिए लड़कियों को अधिक मेहनत करनी होगी. मुझे भी ये करना पड़ा. आपकी सफलता आपके आलोचकों के लिए सबसे बड़ा जवाब है.
यदि आप अपने परिवार को समझाते हैं और मना लेते हैं, तो आप आधी लड़ाई जीत लेते हैं. इसलिए लड़कियों को बड़े सपने देखने चाहिए और उस दिशा में लगातार कदम बढ़ाने चाहिए. माता-पिता को भी अपनी बेटियों को उनके पारंपरिक ज्ञान से नहीं आंकना चाहिए. यह उन पर अत्याचार करने जैसा है.' उन्हें अपनी बेटियों को खुला आसमान देना चाहिए, फिर देखना वे कितनी ऊंची उड़ान भरती हैं!”
करिश्मा के माता-पिता को अपनी बेटी की उपलब्धियों पर बहुत गर्व है. उनके अब्बू कहते हैं, 'हमारे रिश्ते में एक लड़की है जो कहती थी, 'मैं करिश्मा दीदी जैसा बनने का नाटक करना चाहती हूं.' वह हाल ही में जज बनी हैं. करिश्मा से प्रेरित होकर ऐसी कई लड़कियां उच्च शिक्षा हासिल कर रही हैं, बड़े सपने देख रही हैं और उन्हें हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही हैं.'
“आज हम पति-पत्नी जहां भी जाते हैं, हमें करिश्मा के माता-पिता के नाम से जाना जाता है. एक माता-पिता के लिए इससे बड़ी खुशी क्या हो सकती है कि उन्हें उनके बच्चों के नाम से जाना जाए?” ये बताते हुए करिश्मा के अब्बू का गला भर आया.