-फ़िरदौस ख़ान
जिन लोगों ने अभाव देखा है, वही अभावग्रस्त के दर्द को महसूस कर सकते हैं, उसकी परेशानी को समझ सकते हैं. ऐसी ही एक शख़्सियत हैं झारखंड के सलामुल हक़, जिन्होंने बचपन में बेहद ग़रीबी देखी थी. बचपन में ही वे इस बात को समझ चुके थे कि बेहतर ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए शिक्षा बहुत ज़रूरी है.
उन्होंने शिक्षा की अहमियत को समझा और उच्च शिक्षा प्राप्त की. इतना ही नहीं, वे ज़रूरतमंद बच्चों की पढ़ाई में मदद कर रहे हैं, जिसके लिए उन्हें कई पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है. अपने काम की वजह से आज वे लोगों के लिए एक मिसाल बन चुके हैं.
सलामुल हक़ का जन्म 25 सितम्बर 1972 को झारखंड के रामगढ़ जिले के मगनपुर के एक बेहद ग़रीब परिवार में हुआ था. उनके पिता कबीर हुसैन और माँ कतिबून निशा तालीमयाफ़्ता थे. उन्होंने मदरसे से तालीम हासिल की थी.
उन्होंने बहुत कम में गुज़ारा कर लिया, लेकिन अपने सभी बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाई. उनके चार बेटे और पांच बेटियां हैं. सलामुल हक़ ने भी राजकीय विद्यालय से पढ़ाई शुरू की थी और फिर रांची विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की.
साल 1994 में उनकी नियुक्ति प्राथमिक शिक्षक के रूप में हुई. उनके लिए अध्यापन केवल रोज़ी कमाने का ही ज़रिया नहीं है, बल्कि इसके ज़रिये वे ज़रूरतमंद बच्चों की मदद भी करते हैं. वे उन्हें निशुल्क पढ़ाते हैं. वे ग़रीब परिवारों के बच्चों को राजकीय विद्यालय में दाख़िला दिलाने के लिए प्रेरित करते हैं और उनकी हर मुमकिन मदद भी करते हैं.
सलामुल हक़ ने बताया कि साल 2002 में उनका स्थानांतरण रामगढ़ ज़िले के गोला के उत्क्रमिक मध्य विद्यालय चाड़ी उर्दू कन्या में हुआ. यहां उन्हें विद्यालय का प्रभार प्रधानाध्यापक बनाया गया. विद्यालय की हालत बहुत ख़स्ता थी. यहां कोई ढंग का कमरा तक नहीं था.
बच्चियां खुले आसमान के नीचे बैठकर पढ़ने को मजबूर थीं. गर्मी और बरसात के मौसम में उन्हें बहुत दिक़्क़त होती थी. इतना ही नहीं, विद्यालय में पीने के पानी और शौचालय का भी कोई इंतज़ाम नहीं था, जिसकी वजह से बच्चियों को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता था.
उनसे बच्चियों की यह हालत देखी नहीं गई. उन्होंने समाज के गणमान्य लोगों से इस बारे में बात की. उन्हें लोगों की हरसंभव सहायता मिली. उनकी कोशिशों की वजह से विद्यालय में दो कमरों का निर्माण करवाया गया.
झारखंड शिक्षा परियोजना के तहत विद्यालय में शौचालय का निर्माण करवाया गया. साथ ही फ़र्नीचर का भी इंतज़ाम किया गया. विद्यालय के पास पर्याप्त ज़मीन भी नहीं थी. इसलिए तत्कालीन मुखिया से ज़मीन दान करवाकर निर्माण कार्य करवाया गया.
विद्यालय में पीने के पानी का भी इंतज़ाम करवाया गया. दरअसल विद्यालय के विकास का यह सिलसिला एक बार शुरू हुआ, तो फिर चल पड़ा. अब विद्यालय में 12कमरे हैं और तक़रीबन 200लड़कियां तालीम हासिल कर रही हैं.
वे बताते हैं कि कोरोना महामारी की वजह से लगी तालाबंदी के दौरान वे घर-घर जाकर बच्चों को पढ़ाते थे, ताकि उनकी पढ़ाई में रुकावट न आए. उन्होंने बच्चों को ऑनलाइन भी पढ़ाया. शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए उन्हें लगातार ज़िले से तीन बार सर्वश्रेष्ठ शिक्षक का सम्मान मिल चुका है.
यह उल्लेखनीय उपलब्धि ही है कि विद्यालय को सामुदायिक सहयोग का घोर अभाव होने के बावजूद उन्होंने विकट परिस्थितियों का सामना करते हुए विद्यालय को उत्कृष्टता का प्रमाण पत्र दिलवाया.
उन्होंने कोरोना काल में अपनी भूमिका सकारात्मक रखते हुए प्रदत्त कार्यों का शत-प्रतिशत निर्वहन किया. इसके लिए झारखंड शिक्षा परियोजना ने उन्हें सम्मानित किया. शून्य निवेश नवाचार के संबंध में भी झारखंड शिक्षा परियोजना रामगढ़ ने उन्हें सम्मानित किया है.
छात्रों को जब भी उनकी ज़रूरत पड़ती है, वे उनकी मदद करते हैं. विद्यालय ही नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएं भी उनके पास उर्दू के नोट्स लेने के लिए आते हैं. वे उन्हें निशुल्क नोट्स मुहैया करवाते हैं.
वे कहते हैं कि तालीम के ज़रिये ही एक बेहतर समाज का निर्माण किया जा सकता है. बेटों के साथ-साथ बेटियों को शिक्षा दिलाना भी बेहद ज़रूरी है. शिक्षा उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का मार्ग प्रशस्त करती है. आत्मनिर्भरता से आत्मविश्वास बढ़ता है, जो उन्हें बेहतर ज़िन्दगी गुज़ारने में मदद करता है.
उन्होंने अपनी बेटियों को भी उच्च शिक्षा दिलवाई है. वे बताते हैं कि उनके चार बच्चे हैं. उनकी बड़ी बेटी ने उर्दू में बीए ऑनर्स किया है. उनकी दूसरी बेटी इंफ़ोसिस में सॉफ़्टवेयर इंजीनियर है, जो बेंगलुरु में पदस्थापित है. उनकी तीसरी बेटी भुवनेश्वर में बीटेक कर रही है. बेटा छठी जमात में पढ़ रहा है.
उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी सबीना ख़ातून एक जागरूक महिला हैं. वे पढ़ाई की अहमियत को बहुत अच्छी तरह समझती हैं. उन्होंने बच्चों की शिक्षा पर ख़ासी तवज्जो दी. विवाह के बाद शुरू में तक़रीबन 15साल तक वे घर से दूर रहे. इस दौरान उनकी पत्नी ने घर की सारी ज़िम्मेदारियों को बख़ूबी निभाया.
(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)