18% आबादी, सिर्फ 2% उम्मीदवार: बिहार चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधित्व की चिंताजनक तस्वीर

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 26-10-2025
The worrying picture of Muslim representation in the Bihar elections.
The worrying picture of Muslim representation in the Bihar elections.

 

मलिक असगर हाशमी / नई दिल्ली

बिहार में छठ महापर्व समाप्त होते ही विधानसभा चुनाव का ख़ुमार सिर चढ़कर बोलने लगेगा.इन व्यस्तताओं के बीचबिहार के आम वोटरों का ध्यान इस ओर से भले ही हट जाए कि इस चुनाव में कितने मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में हैं और किस पार्टी ने कितने टिकट दिए हैं.बावजूद इसके, सियासी गलियारों में NDA और 'इंडिया' गठबंधन द्वारा मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव लड़ाने पर चर्चा बेहद गर्म है.

ख़ास बात यह है कि बीजेपी ने जहाँ इस चुनाव में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा, वहीं सेक्युलर पार्टियों ने भी मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारने में कोई ख़ास गंभीरता नहीं दिखाई है.पूर्वोत्तर की एक यूनिवर्सिटी की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर रेशमारहमान का मानना है कि राहुल गांधी सहित 'इंडिया' गठबंधन के नेता चुनाव प्रचार के दौरान किसी बड़े मुस्लिम चेहरे को अपने साथ भी नहीं रख रहे हैं, शायद उनकी यह समझ है कि विपक्ष ऐसी तस्वीरें दिखाकर चुनाव में ध्रुवीकरण की कोशिश करेगा.

मुस्लिम प्रतिनिधित्व: एक चिंताजनक अंतर

बिहार एक ऐसा राज्य है जहाँ मुस्लिम आबादी का लगभग 18%हिस्सा है और 87से ज़्यादा सीटों पर उनका निर्णायक प्रभाव है.इसके बावजूद, 2025के बिहार विधानसभा चुनावों में उनकी राजनीतिक मौज़ूदगी चिंताजनक रूप से सिर्फ़ दिखावे की रह गई है.जैसे-जैसे बड़ी पार्टियाँ अपनी अंतिम लिस्ट जारी करती रही हैं,

समुदाय के इस बड़े जनसांख्यिकीय वज़न और उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व के बीच एक बड़ा अंतर साफ़ सामने आता गया. खासकर सत्ताधारी नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (NDA) में.

 243 विधानसभा सीटों में से, सत्ताधारी NDA ने सिर्फ़ पाँच मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, जो कुल सीटों का महज़ 2.06%है.101सीटों पर चुनाव लड़ रही बीजेपी (BJP) ने एक बार फिर मुस्लिम प्रतिनिधित्व को शून्य रखा है, जो उनके द्वारा मुस्लिम समुदाय को राजनीतिक और अन्य तरह से हाशिए पर धकेलने के लगातार पैटर्न को दर्शाता है.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडी(यू) (JD(U)) ने केवल चार मुसलमानों को नॉमिनेट किया है: सबा ज़फ़र (अमौर), मंज़र आलम (जोकीहाट), शगुफ़्ता अज़ीम (अररिया), और मोहम्मद ज़मा खान (चैनपुर).पाँचवें उम्मीदवार, मोहम्मद कलीमुद्दीन, LJP (राम विलास) के बैनर तले बहादुरगंज से चुनाव लड़ रहे हैं.यह 2020की तुलना में एक बड़ी गिरावट है, जब जेडी(यू) ने 11 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था.अब NDA का संदेश साफ़ लगता है: कम जोखिम, कम मुस्लिम चेहरे.

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सिर्फ़ मुस्लिम बहुल सीटों तक सीमित

NDA द्वारा टिकट वितरण में एक और ख़ास बात यह है कि इन पाँच में से चार उम्मीदवार मुस्लिम बहुल सीमांचल ज़िलों—जोकीहाट, अररिया, अमौर और बहादुरगंज—तक ही सीमित हैं, जहाँ मुस्लिम मतदाता 40%से 70%के बीच हैं.केवल मोहम्मद ज़मा खान, जो वर्तमान अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री हैं, कैमूर ज़िले की एक मिली-जुली सीट से चुनाव लड़ रहे हैं.

राजनीतिक विश्लेषक महमूद आलम कहते हैं, "यह प्रतिनिधित्व नहीं है, यह नियंत्रण है." वह आगे कहते हैं, "मुस्लिम उम्मीदवारों को घेटो (मुस्लिम बहुल) वाली सीटों तक सीमित किया जा रहा है. यह सुनिश्चित करते हुए कि उनकी जीत भी NDA के सावधानी से बनाए गए जाति समीकरण को ख़राब न करे." NDA के टिकट बंटवारे में जातिगत समीकरणों को बहुत ज़्यादा तरजीह दी गई है: राज्य की आबादी का सिर्फ़ 10.5%होने के बावजूद, तथाकथित ऊंची जातियों को 243में से 85टिकट मिले हैं, जो कुल का 35%से ज़्यादा है.

विपक्षी 'इंडिया' गठबंधन और अलगाव की राजनीति

विपक्षी 'इंडिया' गठबंधन की तस्वीर मिली-जुली है, लेकिन यहाँ भी असंतोष है.महागठबंधन (राजद, कांग्रेस, सीपीआई-एमएल, आदि) ने अब तक 254सीटों में से 30मुस्लिम उम्मीदवारों (11.81%) को टिकट दिया है.

RJD ने 143सीटों में से 18 मुस्लिम उम्मीदवारों (12.58%) के नाम घोषित किए हैंऔर कांग्रेस (INC) 60सीटों में से 10मुस्लिम उम्मीदवारों (16.66%) के साथ आगे है.हालाँकि, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता तारिक अनवर ने पार्टी के टिकट बंटवारे की सार्वजनिक रूप से आलोचना करते हुए पक्षपात और अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व के प्रति गंभीरता की कमी का आरोप लगाया है.

इस बीच, असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM—जो ग्रैंड डेमोक्रेटिक अलायंस के तहत चुनाव लड़ रही हैने सात मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, लेकिन इसका प्रभाव सीमांचल के कुछ इलाकों तक ही सीमित है.इसके विपरीत, प्रशांत किशोर की जन सुराज एकमात्र ऐसा संगठन बनकर उभरा है जिसने अब तक 20मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा हैऔर उनके दावे के अनुसार यह संख्या 40तक बढ़ सकती है.

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ऐतिहासिक तुलना और जनता की निराशा

मुस्लिम प्रतिनिधित्व की स्थिति आज से चार दशक पहले कहीं बेहतर थी.1985 में कांग्रेस शासन के तहत, तत्कालीन 324 सदस्यीय बिहार विधानसभा में 34 मुस्लिम विधायक चुने गए थे.वहीं 2015 में महागठबंधन ने 24 मुस्लिम विधायकों (कुल सीटों का 10%) को विधानसभा भेजा था.आज, मुस्लिम समुदाय को सिर्फ़ एक वोट बैंक के रूप में देखा जाता है, जिनका प्रतिनिधित्व नहीं किया जाता, बल्कि उन्हें लुभाया जाता है.

 निराशा को और बढ़ाने वाली हाल की कुछ घटनाएँ भी हैंजैसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कम्युनिटी इवेंट्स के दौरान टोपी पहनने से इनकार, उनकी सरकार का विवादित वक्फ अमेंडमेंट बिल को सपोर्ट करनाऔर जेडी(यू) नेता देवेश ठाकुर की भड़काऊ टिप्पणियाँ.सीतामढ़ी के एक एक्टिविस्ट, शहनवाज बद्र क़ासमी ने सवाल उठाया: “हम बिहार की 18% आबादी हैं, लेकिन उनकी लिस्ट में मुश्किल से 2% हैं.यह आपको क्या बताता है?”

यह पूरी कहानी रणनीति में लिपटे बहिष्कार की है, बिना सशक्तिकरण के सिर्फ़ तुष्टीकरण की.जैसे-जैसे वोट डाले जाने के दिन करीब आते जाएंगे, यह सवाल पूछा जाता रहेगा: क्या बिहार के मुसलमानों के बारे में सिर्फ़ बात होती रहेगीया आख़िरकार सत्ता के गलियारों में उनके लिए भी कोई आवाज़ उठाएगा?